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16 दिसंबर 2002: हमारे समय की राजनीति


(पंद्रह साल पुराना लेख)
दैनिक भास्कर, चंडीगढ़, सोमवार 16 दिसंबर 2002



यह हमारे समय की राजनीति है ! 




प्रसिद्ध अफ्रीकी-अमेरिकी कवि लैंग्सटन ह्यूज की पंक्तियां हैं - एक अपूर्ण स्वप्न का क्या हश्र होगा ? क्या वह धूप में किशमिश दाने जैसा सूख जाएगा? या एक घाव सा पकता रहेगा - और फिर दौड़ पड़ेगा ? क्या वह सड़े मांस सा गंधाएगा ? या दानेदार शहद सा मीठा हो जाएगा? शायद वह एक भारी वजन सा दबता जाएगा ? या वह विस्फोट बन फटेगा?


इस साल लैंग्सटन ह्यूज की शतवार्षिकी मनाई जा रही है। इस देश में अंग्रेजी साहित्य पढ़ने वाले लोग भी इस बात से अनजान ही हैं। जैसे पंजाब में करतार सिंह सराभा से अनजान युवाओं की पीढ़ी है। अपने समय की सीमाओं से जूझकर बेहतरी का सपना देखने वालों को हम तब याद करते हैं, जब हम में अपने सपनों को पूरा करने के लिए निरंतर संघर्ष की हिम्मत होती है। परिस्थितियों से हारते हुए हमारे सपने घाव से पकते हैं, उनमें से सड़े मांस की बदबू निकलती है। और विस्फोट जब होता है, तो उसमें जुझारू संघर्षों की जीत नहीं, अज्ञानता और पिछड़ेपन का कायर संतोष होता है। जर्मनी में सत्तर साल पहले ऐसा ही हुआ था। आर्थिक मंदी और बेरोजगारी का फायदा उठाकर नात्सी पार्टी और उसके नेता एडोल्फ हिटलर ने जनता को एक ऐसे राष्ट्रवाद का नारा दिया, जिसमें बहुसंख्यकों का अहम संतुष्ट हुआ, पर जर्मनी समेत दुनिया का बड़ा हिस्सा अंततः तबाही और ध्वंस का शिकार हुआ। 1984 के दंगों के बाद कांग्रेस की भारी बहुमत से जीत भारत के बहुसंख्यकों की ऐसी ही कायरतापूर्ण जीत थी। आज एक बार फिर गुजरात में ऐसा ही हुआ है। 
 

ऐसा नहीं कि इसकी अपेक्षा नहीं थी। दुनिया भर में करोड़ों लोग पक्ष-विपक्ष की बात करते हुए यही सोच रहे थे कि गुजरात में भाजपा जीतेगी। फिर भी जैसे एक हल्की आशा दो महीने पहले पाकिस्तान के चुनावों या अभी कुछ समय पहले हुए अमेरिका के सीनेट के चुनावों को लेकर असंख्य लोगों में थी कि शायद जनमत एक नई दिशा के लिए होगा, लोग संकीर्ण राष्ट्रवाद से परे हटकर मानवीय दृष्टिकोण के लिए आएंगे। इन सभी चुनावों में दूध का धुला कोई विपक्ष नहीं था। आखिर जिनके सपने पूरे नहीं हुए जो अमेरिका के काले लोग हैं जो सराभा के पंजाब के खेत-मजदूर हैं या जो मध्य गुजरात के आदिवासी हैं उनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार वह विपक्ष भी है जो आज प्रगतिशीलता या विकास की बात करता है। सच तो यह है कि दबे-कुचले लोगों को अधिकतर राजनीतिक दल एक सा ही कुचलते हैं। अशिक्षा और बेबसी से लाचार लोगों को झूठे वादों और दावों, शराब या अन्य प्रलोभनों से खरीदा जाता है। पर गुजरात का प्रसंग अधिक महत्वपूर्ण इसलिए है कि मुख्यधारा की भ्रष्ट राजनीति उन मूलवादियों, सांप्रदायिक कट्टरपंथियों और राष्ट्रवादियों को संगठित होने का मौका देती है, जो देश और समाज को निश्चित विनाश की ओर ले जाते हैं। 
 

एक कहावत है कि गरीब की आह हमेशा न्यायसंगत हो यह जरुरी नहीं, पर अगर तुम उसे न सुनो तो जान न पाओगे कि सच्चाई क्या है। मध्य गुजरात का आदिवासी भारत के अन्य दलित वर्गों की तरह ऐसा पिछड़ा वर्ग है जो लगातार सामंती शोषण से और सूदखोरों के हाथ पिसता रहा है। पिछड़ापन इतना भयंकर है कि आधुनिक तर्क और प्रगतिशील सोच की कोई जगह नहीं है। पारंपरिक मूल्यों के टूटने से और आधुनिकता के संकटों में फंसा आदिवासी अगर शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है तो वह राजद्रोही माना जाता है। विदेशों से करोड़ों रूपए इकट्ठे कर सांप्रदायिक मनोभाव से कार्यरत कोई भी संगठन बेरोक उनके बीच काम कर सकता है। यह हमारे समय की राजनीति है। ऐसा ही सच अहमदाबाद या बड़ोदा के शहरी दलित और बेकारी से मारे गरीबों का है जिनको बड़ी तादाद में दंगों के लिए इस्तेमाल किया गया। 
 

इसलिए 27 फरवरी 1933 को जब राइश्टाख (संसद) में आग लगी तो उसे आधार बनाकर वामपंथियों, यहूदियों और कलाकारों पर जिस तरह का हमला शुरू हुआ वैसा ही 27 फरवरी 2002 को गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने के बाद हुआ। सांप्रदायिक राष्ट्रवाद आक्रामक मिथ्या-वचन के रथ पर सवार होता है। इसलिए गुजरात का चुनाव पाकिस्तान में फूटने वाले पटाखों की बात करता है और किसी इमाम के इस आग्रह कि मुसलमान सौ फीसदी वोट दें को फतवा कहता है। 
 

बार-बार कहा हुआ झूठ सच बन जाता है। पढ़े-लिखे लोग भी इसे सच मानने लगते हैं। एक वामपंथी मित्र सांप्रदायिकता शब्द का अर्थ भूल गए क्योंकि उन्हें समझ में नहीं आया कि किसी ने बढ़ती हुई सांप्रदायिकता का जिक्र क्यों किया है। निजी जीवन से सामाजिक दायरे तक में पाखंड और स्वार्थ की जिंदगी जीता हुआ अंग्रेजीदां मध्य-वर्ग इस बात से खुश है कि अंग्रेजी मीडिया में बहुसंख्यक समुदाय की उदारवादी छवि स्पष्ट दिखती है। यह ऐसा समुदाय है जिसे गुजरात का थप्पड़ भी नहीं लगता।


गुजरात का सबक एक लंबे अरसे से चल रहे हताशा के दौर में एक और अध्याय है। 1930 के दशक के जर्मनी में इस दौर में बहुत सारे काबिल लोग देश छोड़ गए थे। इनमें वैज्ञानिक, कलाकार और साहित्यिक आदि शामिल थे। हमारे यहां पढ़े-लिखे लोगों में लाखों ऐसे हैं जो मौका मिलते ही यहां की गरीबी और गंदगी से दूर भागने को तैयार हैं। इन सबको भूलकर हमें एक बार फिर गुजरात और आने वाले समय के भारत के बारे में सोचना है। जैसे रवींद्रनाथ ठाकुर ने सौ साल पहले लिखा था , हमें इसी भारत माता को अपना दुखड़ा सुनाना है। घोर तिमिर घन निविड़ निशीथे, पीड़ित मूर्छित देशे, जागृत तब अविचल मंगल नत नयन अनिमेषे। दुःस्वप्ने आतंके रक्षा की अंके स्नेहमयी तुम माता।(ঘোর তিমির-ঘন নিবিড় নিশীথে, পীড়িত মূর্ছিত দেশে জাগ্রত ছিল তব অবিচল মঙ্গল, নত নয়নে অনিমেষে দুঃস্বপ্নে আতঙ্কে, রক্ষা করিল অঙ্কে স্নেহময়ী তুমি মাতা)
हे मातृ! इस पीड़ित मूर्छित देश को एक बार फिर घोर अंधेरे भरी घनी रात से निकलने के लिए प्रेरणा दो। दुःस्वप्न और आतंक भरे इन दुर्दिनों में हमारी रक्षा करो। आह्वान करो कि युवा आगे आएं, खोखले भाषणों, अंधविश्वाস और कर्मकांडों से दूर हटकर संकीर्ण राष्ट्रवाद से देश को बचाएं। गुजरात का महासमर एक शुरुआत है - देखना यह है कि संघर्षशील लोग किस तरह इस संकट का सामना करते हैं।








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