Skip to main content

Posts

Showing posts from May, 2015

100 भाषाओं में भी पठनीय सामग्री तैयार करना संभव है

निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति को मूल (भोपाल से प्रकाशित 'गर्भनाल' पत्रिका के जून 2015 अंक में प्रकाशित) भारत में सुविधा - संपन्न वर्गों के सामंती - आधुनिक खिचड़ी स्वरूप के विरोधाभासों में से उपजे संकटों में एक भाषा का संकट है। यह अजीब विड़ंबना है , देखते - देखते भारतीय भाषाएँ विलुप्ति की ओर बढ़ती जा रही हैं और भगतों का सीना पीटना जारी है कि हम ब्रह्मांड की महानतम सभ्यता के वारिस हैं। भाषा का संकट क्यों खड़ा हुआ और इसके हल क्या हैं , इस पर थोड़ी समझ बनाने की कोशिश हम यहाँ करेंगे। चूँकि हम हिंदी पढ़ते - लिखते हैं , इसलिए यहाँ हिंदी पर ही ज्यादा ध्यान रहेगा , पर संकट की स्थिति में कमोबेश सभी भारतीय भाषाएँ हैं। जाहिर है जिनको अंग्रेज़ी भारतीय भाषा लगती है , उन्हें आगे पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। पर जिन्हें यह ग़लतफहमी है कि देशव्यापी राजभाषा के रूप में अंग्रेज़ी का विकल्प हिंदी या संस्कृत है , उन्हें भी आगे पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। पिछली दो सदियों में अंग्रेज़ी शासन में जो सबसे अधिक नुकसानदेह बात दक्षिण एशिया में हुई है , वह यूरोप से आधुनिक राष्ट्र की धारणा का यहाँ ...

ओ आधे दर्जन हाथ

अरे ! 15 जुलाई तक मकान बन जाएगा मेरी नज़रों में सितंबर अक्तूबर का मैं हूँ निचली मंज़िल के नए मकान में खिड़की से देख रहा हूँ ऊपरी मंज़िल वाले इस मकान में जून के मैं को पंखा गर्म हवा के थपेड़े मार रहा है खिड़की बंद हो या खुली हवा की आवाज नहीं बदलेगी तपती ईंटों की दीवारें समवेत गाती रहेंगी जून का मैं थोड़ी देर आराम करना चाहता हूँ जग का पानी उत्तेजित अणुओं का धर्म जताता है प्यास पानी के अणुओं को अपनाती है स्नायु के झंकार जून के खयालों में गुनगुनाते हैं तपती धूप में काम कर रहे ओ आधे दर्जन हाथ ! ग़र्म ईंट उठा रहे हाथ मेरी सितंबर-अक्तूबर की ज़िंदगी के लिए तुम्हें धन्यवाद। दिखता है बंद खिड़की से घुँघराले बालों वाला बच्चा बहती लू में खेल रहा है खुली खिड़की से मेरी आवाज दौड़ती है सुनो अरे ! बच्चे को धूप से हटा लो। ( रविवार डाट काम : 2011; 'नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध' संग्रह में संकलित)

क्वार्क किसके बने होते हैं

धरती सीरीज़ की बीच की कविताएं फिर कभी। आज ये अलग मिजाज़ की इस शृंखला की आखिरी कविताएँ। ये सारी कविताएँ पिछले साल 'संवेद' में प्रकाशित हुई थीं।    18. मीमांसा भूगोल : द्विआयामी देश - काल में स्त्री पुरुष एकाकार। धर्म - प्रचारक सपने में पहाड़ देखता है। काला देश सही अनुपात से बहुत छोटा दिखता है , भूगोल राजनीति विज्ञान बनता है। धरती खोदी आर - पार। काले पैर - गोरे पैर। आँसू गड्डमड्ड। इतिहास : 1 काले घने बादल। हवाएँ पागल। तूफान का अंदेशा। ऊँचा सिर उठा घास का रेशा। हारे हुए बार - बार उठ खड़े। लड़े। 2 ज़ुल्म के मातों , हम कैसे ज़ालिम बन जाते। कितने पैगंबर आएँ कि जान पाते। 3 ' कोई जंग नेक नहीं होती। ' कोई लकीर सच नहीं होती। विज्ञान : नाइट्रोजन फास्फोरस। लातिनी रस। मीठे पानी जैसा इनका हिसाब चला बिगड़। जीवन में गौरैया नहीं बची , किसे खबर। गर्मियों में ग़र्मी ज्यादा , ठंड में ठंडक। भरभराती कोसी , कावेरी या गंडक। साहित्य : कितने रंग , छंद , मर्म। जाति , जेंडर , धर्म। अनंत स...

नीमबेहोशी में बरकरार

धरती सीरीज़ की और कविताएँ:   7. बरकरार दूर तक फैली है तू मौसम की गंध से तेरा बदन सराबोर तुझ पर बहती हवा                         दूर तेरी त्वचा पर छलकते समंदर बने पसीना का नमकीन स्वाद रंध्रों में लाने को आतुर है तू बेसुध है मैं बेसुध हूँ कोई हमें सुध में लाने की बीमार कोशिश में तार - तार करता है तेरा सीना बम गोले मेरे अंगों के टुकड़े कर रहे हैं तेरे बदन में नाखून गाड़ तुझे जकड़ कर लेटा हूँ मेरे हाथों में घास है सुबह मैना से बात की थी वह पास चक्कर लगाती है तेरी गंध है चारों ओर मैं हूँ तुझसे प्यार करने के लिए ज़िंदा नीमबेहोशी में बरकरार। 8. बगुले ओ पगले बगुले ओ पगले कैसे करूँ तुझे बयाँ सफेदपोश तू रकीब गीले इस मौसम में ढो लाया कैसे आँसू रे आ कि मिल करें प्यार धरती को और जितने रकीब हमारे उनको करें इकट्ठा कोई ...

आशिकों की भीड़ बेखौफ चली आती है

 धरती सीरीज़ की अगली कविताएँ: 5. यह रुदन अनादिकाल से है सूरज से छिटकी थी जब उस पहले दिन के बाद आई पहली रात चाँद निकला मेरे धब्बों को समेटे दौड़ रहा मेरे सीने से निकल परिधि ढूँढने में उसे कई साल लग गए उस दौरान रुदन हुआ और प्रगाढ़ फूटे ज्वालामुखी लावा बहा  तेरी देह पर उभर आईं रक्तिम आकृतियाँ यह तो पता था कि अब छूट नहीं सकता इसी राह पर आना था टुकड़े होने थे अनंत अब बची हैं सिर्फ कहानियाँ और प्यार उन्हें चीर लेने दो हमारा सीना बार - बार अंकुरित होगा मेरा रुदन देखो , आशिकों की भीड़ बेखौफ चली आती है। 6. छोड़ जाऊँगा छोड़ जाऊँगा अपनी हार का गर्व आखिरी शब तेरे लिए मोह असीम तुझे चूमता मेरा प्रणाम। जिनकी नफ़रत का भरा प्याला पीता रहा जिनकी चोट से तुझे घायल होते देखता रहा उनके लिए भी रख जाऊँगा तुझसे मिला प्यार कह जाऊँगा कि मौत के खेल खेलने वालो जिन तकलीफों ने बाँटा तुम्हें जिन कारणों से मरा माँओं से मिला स्नेह भूलो वह औ...

हम जिएँगे कि

आज दैनिक भास्कर के रसरंग में यह आलेख आया है -  वे हमारे गीत रोकना चाहते हैं आप डरते हैं ? मैं डरता हूँ। मैं बहुत डरता हूँ। मैं अपने लिए और आपके लिए डरता हूँ। इन दिनों हर दूसरे दिन हम आप में से कोई बस इस वजह से गायब हो जाता है कि हमने खूबसूरत दुनिया के सपने देखे हैं ; कि हम खूबसूरत हैं ; हमारे मन खूबसूरत हैं। खबरें आती हैं कि कोई और मार डाला गया। पानसारे , अभिजित रॉय , सबीन महमूद , लंबी सूची है। अब हम लिखें कि एक लड़की थी जिसे द सेकंड फ्लोर को टी टू एफ कहने का शौक था। उसने फौज और मुल्लाओं की नाक तले कॉफी का ढाबा और किताबों की दूकान चला रखी थी कि आप आएँ तो कहवे की महक पर गुफ्तगू हो , शेरोशायरी हो। वह बहादुर थी। वह हम आप जैसी डरपोक नहीं थी। उसने तमाम धमकियों , चेतावनियों के बावजूद वह काम किए जो उसे सही लगे - इंसान की आज़ादी का परचम बुलंद रखना। एक खूबसूरत इंसान वह चली गई। उसे हमसे छीन लिया गया। दो साफ - शफ्फाक चेहरे के नौजवान आए और उसे गोलियों से भून गए। इसलिए कि उसके सपनों से किसी और को डर लगता था। हम इस अहसास के साथ जीते रहते हैं कि अपना कुछ चला गया , जैसे...