निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति को मूल (भोपाल से प्रकाशित 'गर्भनाल' पत्रिका के जून 2015 अंक में प्रकाशित) भारत में सुविधा - संपन्न वर्गों के सामंती - आधुनिक खिचड़ी स्वरूप के विरोधाभासों में से उपजे संकटों में एक भाषा का संकट है। यह अजीब विड़ंबना है , देखते - देखते भारतीय भाषाएँ विलुप्ति की ओर बढ़ती जा रही हैं और भगतों का सीना पीटना जारी है कि हम ब्रह्मांड की महानतम सभ्यता के वारिस हैं। भाषा का संकट क्यों खड़ा हुआ और इसके हल क्या हैं , इस पर थोड़ी समझ बनाने की कोशिश हम यहाँ करेंगे। चूँकि हम हिंदी पढ़ते - लिखते हैं , इसलिए यहाँ हिंदी पर ही ज्यादा ध्यान रहेगा , पर संकट की स्थिति में कमोबेश सभी भारतीय भाषाएँ हैं। जाहिर है जिनको अंग्रेज़ी भारतीय भाषा लगती है , उन्हें आगे पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। पर जिन्हें यह ग़लतफहमी है कि देशव्यापी राजभाषा के रूप में अंग्रेज़ी का विकल्प हिंदी या संस्कृत है , उन्हें भी आगे पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। पिछली दो सदियों में अंग्रेज़ी शासन में जो सबसे अधिक नुकसानदेह बात दक्षिण एशिया में हुई है , वह यूरोप से आधुनिक राष्ट्र की धारणा का यहाँ ...