धरती सीरीज़ की बीच की कविताएं फिर कभी। आज ये अलग मिजाज़ की इस शृंखला की आखिरी कविताएँ। ये सारी कविताएँ पिछले साल 'संवेद' में प्रकाशित हुई थीं।
18.
मीमांसा
भूगोल
:
द्विआयामी
देश-काल
में स्त्री पुरुष एकाकार। धर्म-प्रचारक
सपने में पहाड़ देखता है।
काला
देश सही अनुपात से बहुत छोटा
दिखता है,
भूगोल
राजनीति विज्ञान बनता है।
धरती
खोदी आर-पार।
काले पैर-गोरे
पैर। आँसू गड्डमड्ड।
इतिहास
:
1
काले
घने बादल। हवाएँ पागल। तूफान
का अंदेशा। ऊँचा सिर उठा घास
का रेशा।
हारे
हुए बार-बार
उठ खड़े। लड़े।
2
ज़ुल्म
के मातों,
हम
कैसे ज़ालिम बन जाते। कितने
पैगंबर आएँ कि जान पाते।
3
'कोई
जंग नेक नहीं होती।'
कोई
लकीर सच नहीं होती।
विज्ञान
:
नाइट्रोजन
फास्फोरस। लातिनी रस।
मीठे
पानी जैसा इनका हिसाब चला
बिगड़। जीवन में गौरैया नहीं
बची,
किसे
खबर।
गर्मियों
में ग़र्मी ज्यादा,
ठंड
में ठंडक। भरभराती कोसी,
कावेरी
या गंडक।
साहित्य
:
कितने
रंग,
छंद,
मर्म।
जाति,
जेंडर,
धर्म।
अनंत
सभ्यताएँ। उल्लास अनंत।
संगीत
:
कोई
नहीं जानता कि क्वार्क किस
चीज़ के बने होते हैं।
कवि
ने कोशिश की 'धरती
पर रख कान। विस्मय से जाग उठा
था गान।'
धरती
जानती है।
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