धरती सीरीज़ की और कविताएँ:
7.
बरकरार
दूर
तक फैली है तू
मौसम
की गंध से तेरा बदन सराबोर
तुझ
पर बहती हवा दूर तेरी त्वचा
पर छलकते समंदर बने
पसीना
का नमकीन स्वाद
रंध्रों
में लाने को आतुर है
तू
बेसुध है मैं बेसुध हूँ
कोई
हमें सुध में लाने की बीमार
कोशिश में तार-तार
करता है तेरा सीना
बम गोले
मेरे अंगों के टुकड़े कर रहे हैं
तेरे
बदन में नाखून गाड़ तुझे जकड़
कर लेटा हूँ
मेरे
हाथों में घास है
सुबह मैना से बात की थी वह पास
चक्कर लगाती है
तेरी
गंध है चारों ओर
मैं
हूँ
तुझसे
प्यार करने के लिए ज़िंदा
नीमबेहोशी में बरकरार।
8.
बगुले
ओ पगले
बगुले
ओ पगले
कैसे
करूँ तुझे बयाँ
सफेदपोश
तू रकीब
गीले
इस मौसम में ढो लाया कैसे आँसू
रे
आ
कि मिल करें प्यार
धरती को
और
जितने रकीब हमारे
उनको
करें इकट्ठा
कोई
फूल कोई पत्ता
निर्लज्ज माशूक धरती
इतने आशिक पाले हुए है
ओ
सभ्यता-
आशिकों
की फौज धरती से लिपटी रहेगी
चिड़िया
चहकेगी,
फूल
खिलेंगे,
पत्ते
झूमेंगे
मिलकर
हम सब कविताएँ लिखते चलेंगे।
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