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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Wednesday, May 20, 2015

आशिकों की भीड़ बेखौफ चली आती है


 धरती सीरीज़ की अगली कविताएँ:

5. यह रुदन अनादिकाल से है

सूरज से छिटकी थी जब
उस पहले दिन के बाद आई पहली रात

चाँद निकला
मेरे धब्बों को समेटे दौड़ रहा
मेरे सीने से निकल

परिधि ढूँढने में उसे कई साल लग गए
उस दौरान रुदन हुआ और प्रगाढ़
फूटे ज्वालामुखी लावा बहा 
तेरी देह पर उभर आईं रक्तिम आकृतियाँ

यह तो पता था
कि अब छूट नहीं सकता
इसी राह पर आना था
टुकड़े होने थे अनंत
अब बची हैं सिर्फ कहानियाँ और
प्यार

उन्हें चीर लेने दो हमारा सीना
बार-बार अंकुरित होगा मेरा रुदन

देखो, आशिकों की भीड़ बेखौफ चली आती है।

6. छोड़ जाऊँगा

छोड़ जाऊँगा
अपनी हार का गर्व
आखिरी शब तेरे लिए मोह असीम
तुझे चूमता मेरा प्रणाम।

जिनकी नफ़रत का भरा प्याला पीता रहा
जिनकी चोट से तुझे घायल होते देखता रहा
उनके लिए भी रख जाऊँगा तुझसे मिला प्यार

कह जाऊँगा कि मौत के खेल खेलने वालो
जिन तकलीफों ने बाँटा तुम्हें
जिन कारणों से मरा माँओं से मिला स्नेह
भूलो वह और जिओ

धरती का रुदन सुनो
कि वह खरबों प्राणों का भार सँभाले है

तेरी सँभाली धड़कनें बाँट जाऊँगा ।

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1 Comments:

Blogger The Time of Our Lives said...

Bahot khubsurat!

12:06 PM, May 21, 2015  

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