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नई संस्कृति में मैं उसके साथ

आज जनसत्ता में प्रकाशित


नई संस्कृति का दूध


उसे शबनम मेरे पास क्यों ले आई थी मुझे नहीं मालूम। शायद शबनम के मन में कहीं से यह बात जम गई थी कि विज्ञान पर बात करनी हो तो मुझसे काम निकल सकता है या यह भी हो सकता है कि मैं उसके साथ औरों से बेहतर पेश आता होऊँ। उसे मेरे पास छोड़ कर दो चार बातें कहकर ही वह चली गई थी। उस पहली मुलाकात के दौरान मैं उसके साथ सज्जनता से पेश आया। बाद में वह दो चार बार फिर आया और हर बार मैंने पहले से अधिक परेशान लहजे में बात की। पहली बार मेरे मन में सचमुच उसके प्रति कोई नाराज़गी नहीं थी। अच्छा भी लगा होगा कि शबनम को लगा कि ऐसे आदमी को मेरे पास लाए। उसके प्रति मेरी थोड़ी सहानुभूति भी थी क्योंकि उसने बतलाया था कि ग़रीबी के कारण वह स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया था। मैं उसे डाँट कर कहता कि वह अंधविश्वासों को विज्ञान नहीं कहे तो उसके चेहरे पर उभरते आक्रोश के बावजूद उसमें बच्चों जैसी सरलता झलकती। मैंने उसे दुबारा स्कूल की पढ़ाई शुरू करने को कहा तो उसका चेहरा तमतमा उठा था। मैं समझ गया था कि स्कूली पढ़ाई को लेकर उसके मन में गहरा आक्रोश है। पर जो उसने कहा वह चौंकाने वाली बात थी। उसका मानना था कि स्कूल में जो पढ़ाया जाता है वह सब ईसाई अंग्रेज़ों और मुसलमानों का रचा झूठ है। यह बात इतनी अजीब थी कि मैं उससे आगे क्या बात करूँ मेरी समझ में नहीं आया।

बाद की मुलाकातों में उसका आना जैसे इस अहसास का बढ़ते रहना था कि आखिर मैं ही क्यों? शबनम उसे किसी और के पास भी तो ले जा सकती थी। एक बार मैंने शबनम से कहा कि यार तुम अजीब हो; ऐसे बंदे को मेरे पास क्यों ले आई; तुम्हें समझ नहीं आया कि यह तुम्हें दुश्मन मानता है? शबनम ने मुस्करा कर कहा था कि इसीलिए तो...! और यह शबनम की पुरानी शैली थी, तिरछी मुस्कान से हमें काबू करने की, जिसके बाद कोई कुछ कह नहीं सकता था।

असल में मैं उससे डरने भी लगा था। ऐसा नहीं कि वह खुद कोई बदमाश हो। दरअसल उसका खुद बदमाश न होना ज्यादा डराने वाली बात थी। उसने खुद को ऐसे विषयों का पंडित मान लिया था, जिनके बारे में उसे कोई समझ न थी, पर वह अपनी समझ कई औरों तक ले जाने में काबिल था और मुझे यह जानकारी मिल गई थी कि उसके साथ पूरी एक टीम है। उसके संगी साथी उतने भोले न थे जितना वह लगता था। तीसरी चौथी बार मिलने के बाद अगर बैठक में हमारी बातचीत के दौरान मेरे परिवार का कोई आ जाता तो मैं जैसे सदमे में आ जाता कि किसी तरह वह तुरंत वापस कमरे के अंदर जाए। पर मैं उसके सामने अपना डर दिखलाना न चाहता था। मैं उसे पूरे दम के साथ कहता कि वह अपनी बकवास बंद करे और मेरा और अपना वक्त बर्बाद न करे। पहली बार जब वह शबनम के साथ आया था मैंने दोनों को चाय नाश्ता भी खिलाया था। दूसरी बार शायद उससे पूछा होगा। बाद में मैंने पूछना भी बंद कर दिया था। हालाँकि शबनम कभी मिलती और मैं शिकायत करता कि कैसे उसने मेरा वक्त बर्बाद किया है तो उसका रवैया ऐसा होता कि जैसे उस बंदे को किसी और के पास न ले जाकर मुझसे मिलाकर उसने मेरे प्रति कोई अहसान किया है; वह जता देती थी जैसे वह मुझे विशेष रुतबा दे रही है। शायद उसे ऐसा लगता था जैसे उसकी इस करतूत से मेरे अहं को सुकून मिला है। मैं मन ही मन उसे कोसता रह जाता।

अब लगता है कि डरते हुए भी मैं उससे मोहित हो रहा था। उसका यह मानना कि वह उन विषयों पर गहरी जानकारी रखता है जिनके बारे में दरअसल वह कुछ नहीं जानता था, मुझे उसके प्रति आकर्षित कर रहा था। आखिर खुद मुझमें वर्षों की पढ़ाई लिखाई के बाद भी ऐसा आत्म-विश्वास न आया था, जैसा उसमें मुझे दिखता था। उसने मुझे बतलाया था कि उसके ज्ञान का रहस्य पढ़ना लिखना नहीं बल्कि उसका वह सपना था जिसमें शिव भगवान ने उसे वर दिया था कि वह सारे कठिन सवालों का जवाब जान जाएगा। इसलिए अब उसके पास उन सारे सवालों के जवाब थे, जो उन जानकार लोगों के पास भी न होंगे जिन्होंने इन सवालों पर शोध किया होगा, अगर उन्होंने इन सवालों को शोध करने लायक माना हो। हाँ, उसके कई सवाल जिनके जवाब उसके पास थे, ऐसे ही थे जिनपर हमारे जैसे समझदार लोग माथापच्ची नहीं करते। जैसे लोग किसी पुल पर से गुजरते हुए सिक्के पानी में क्यों फेंक देते हैं, शनिवार के दिन तेल में सिक्का डाल कर लोग भीख क्यों माँगते हैं, आदि। जन्म मृत्यु के दीगर गंभीर सवालों के साथ ही उसके पास ऐसे अनगिनत सवालों के जवाब थे, जिन्हें हम सुना-अनसुना कर भूल जाते हैं। उसने बतलाया था कि उस सपने के आने के पहले और बाद में उसने कठिन साधना की है। इसलिए यह मानना ग़लत था कि उसे बिना मेहनत के ही जवाब मिल गए थे। वह हर दिन सुबह और शाम एक एक घंटे ध्यान पर बैठता था।

मैंने उससे ऐसे कई सवालों के अनोखे जवाब सुने, जिन्हें मैंने कभी सवाल ही नहीं माना था। कभी-कभी मैं अपने दोस्तों से हँसते हुए उसकी और उसके इन सवालों और जवाबों की चर्चा करता, पर एक दो बार मैंने उसे सड़क पर अपने चेलों के साथ देखा तो मुझे फिक्र हुई कि उसे पता न चल जाए कि मैं उसका मजाक उड़ाता हूँ। उसके चेलों के चाल-ढंग में आक्रामक तेवर थे। एक दो के पास मोटरबाइक थी।

यह जानकारी मुझे अपने घर काम करनेवाली स्त्री से मिली कि वह उनकी कॉलोनी में रहने लगा है और वहाँ नियमित रूप से सभाएँ होती हैं, जिनमें आसपास के शोहदे इकट्ठा होते हैं। जब मैंने पूछा कि वह क्या बातचीत करते हैं तो अचंभा इस बात का था कि उसने इन शोहदों और दीगर लोगों को भी वही सब बातें सुनाई थीं जो उसने मुझे बतलाई थीं कि आम लोगों के कर्म-कांडी रस्म, जिन्हें मेरे जैसे लोग अंधविश्वास मानते हैं, वे सब विज्ञान पर आधारित हैं। वे उसका सम्मान करते थे और उसके साथ और इलाकों में जाते जहाँ वह सभाएँ कर लोगों को वहीं बाते बतलाता कि सनातनी रस्मों का तार्किक आधार है। कुछ ही दिनों में उसके यहाँ भजन मंडली भी इकट्ठा होने लगी थी और फिर एक दिन किसी ने बतलाया कि वहाँ तो आश्रम खुल गया है।

एक दिन किसी काम से मैं उस कॉलोनी के पास से गुजर रहा था तो दूसरी ओर से शबनम आती दिखी। वह मोपेड पर सवार बीट पर जा रही थी। मुझे देखकर वह रुकी और उसने कहा कि बाबा सिरीधर के यहाँ मुख्यमंत्री आने वाले हैं, वहाँ जा रही है। पूछने पर समझ में आया कि यह तो वही था, उसने अपना नाम श्रीधर बाबा रख दिया था, हालाँकि उसका असली नाम राजिंदर था। मैंने आश्चर्य प्रकट किया और शबनम को याद दिलाया तो उसे जैसे अचानक याद आया कि साल भर पहले वह बाबा सिरीधर को लेकर मेरे पास आई थी। वह भूल ही गई थी कि उसी ने मुझसे इस बाबा बने भूतपूर्व जिज्ञासु को मुझसे मिलाया था। मैं मन ही मन रिपोर्टरों में गंभीरता के अभाव पर सोचता रहा। शबनम ने मुझे भी साथ आने को कहा। अखबारों के रिपोर्टर ऐसा करते हैं। उन्हें लगता है कि हम प्रोफेसर टाइप के लोग सब एक जैसे होते हैं और वेहले ही घूमते रहते हैं। कोई बहाना बनाकर मैं उससे छूटा। तब तक दूर से माइक पर आवाज़ें आने लगी थीं। शबनम को भी जल्दी थी कि वह सभा में पहुँचे।

मैं चलते हुए माइक से आती आवाज़ों को सुनने की कोशिश कर रहा था। पर वह रूटीन सी बातें थीं जैसी ऐसी किसी भी सभा से आती हैं। फिर कोई भजन गाने लग गया और मैं अपने काम पर आगे निकल गया। लौटते हुए अंजाने में ही मैं कोई धुन गाते हुए आ रहा था। अचानक मुझे अहसास हुआ कि यह उस भजन की धुन थी जो मैंने जाते हुए सुनी थी। कोई अजीब बात नहीं थी, फिर भी मुझे कोफ्त हुई और मैं सचेत होकर कोई और धुन गुनगुनाने लगा। पर थोड़ी देर में मैं वापस उसी धुन पर था।

इस घटना के बाद कई महीने बीत गए। इसी बीच शहर की उस कॉलोनी में बाबा का आश्रम बढ़ता चला। अलग-अलग राजनैतिक दलों के नेता वहाँ आते और बाबा सिरीधर से आशीर्वाद माँगते। बाबा का बढ़ता प्रभाव उसके भक्तों पर नशे की तरह काम कर रहा था। वे आपस में बातें करते कि बाबा ने देश और धर्म के लिए जो कष्ट सहे हैं, उससे बड़े-बड़े नेता, साइंटिस्ट, डॉक्टर और समाज के कई वर्गों के लोग उनसे प्रभावित हैं।

साल गुजरने के बाद पता चला कि बाबा के आश्रम में कुछ पैसों का घपला हुआ है और भक्तों के दो गुटों में संघर्ष छिड़ गया। पराजित गुट में से एक ने दावा किया है कि बाबा सिरीधर के करीब रहे कुछ लोग अनैतिक कामों में लिप्त हैं और यहाँ तक कि वे हाल में हुए किसी हत्याकांड से भी जुड़े हैं। उसके बारे में सोचने की कोई वजह मेरे पास नहीं थी, पर एक बार जब विभाग में वार्षिक सिंपोज़ियम के लिए कुलपति के न आ पाने पर किसी अध्यापक ने सुझाव रखा कि सिरीधर बाबा को बुलाया जाए तो मैंने मुखर होकर विरोध किया।

दूसरे पक्ष का तर्क था कि बाबा सिरीधर ने प्राचीन भारतीय विज्ञान पर बहुत काम किया है और कई पत्रिकाओं मे उसके लेख आते रहे हैं। यह सुनकर मैं अचंभे के अहसास से खुद को सँभाल ही रहा था कि किसी ने कह दिया कि सिरीधर बाबा ने अक्सर अपनी सभाओं में मेरा नाम लिया है और अपने तर्कों के समर्थन में मेरे साथ हुई चर्चाओं का ज़िक्र किया है। गुस्से के मारे मुझसे कुछ कहा नहीं जा रहा था। आखिरकार उसे नहीं बुलाया गया, पर मैं इस अनुभव से बहुत परेशान हो गया। मैंने सपने में देखा कि मैं उसे डाँट रहा हूँ और वह गुस्से में मेरी ओर लाल आँखें कर ताक रहा है। घबराकर मैं जाग जाता। ऐसा दो चार रात होता रहा। फिर धीरे-धीरे वह मेरे दिमाग से उतर गया।

आज जब शबनम ने मुझे बतलाया कि बाबा सिरीधर की साँप के काटने पर मौत हो गई तो सबसे पहले मुझे वही घटना याद आई कि कैसे मैं उस भजन की धुन से छूट न पा रहा था। खैर, हुआ यह कि राजिंदर उर्फ बाबा सिरीधर साँप के दूध पीने का कोई तर्क दे रहा था, जब किसी ने कह दिया कि साँप तो दूध पीता ही नहीं। यह सुनकर उसने किसी से कहकर साँप मँगवाया और उसे दूध पिलाने की कोशिश की। जब साँप ने दूध पिया नहीं तो उसने ज़बरन साँप की गर्दन पकड़ कर उसे पिलाने की कोशिश की। वह साँप को डाँट फटकार कर समझा रहा था कि उसे दूध पी लेना चाहिए। जो सपेरा साँप लेकर आया वह चीखता रह गया कि साँप के अभी ताज़ा नए दाँत निकल आए हैं और वह ज़हरीला हो सकता है। पर भीड़ के शोर में सपेरे की आवाज़ दब गई। लोगों को लगा कि बाबा चमत्कार दिखा रहे हैं और जब तक किसी ने स्थिति को समझकर ऐंबुलेंस बुलाई, राजिंदर मर चुका था। शबनम का कहना था कि कॉलोनी में भीड़ पर नियंत्रण करना मुश्किल हो गया है और लोगों में बहस जारी है कि सिरीधर बाबा ने जानबूझकर नाग देवता से मशविरा करते हुए देह त्यागा था या कि अंजाने में वह ग़लती कर बैठा था।

रात को जब पत्नी ने मुझे झकझोरते हुए जगाकर पूछा कि मैं नींद में चीख क्यों रहा था, तो मुझे हल्का सा याद आया कि राजिंदर ने मेरी गर्दन पकड़ी हुई थी और वह पूरी भीड़ के सामने मुझसे तगाड़ी में रखे दूध को पीने को कह रहा था। संयोग से शनिवार की रात थी, फिर भी मैं नींद पूरी नहीं कर पाया और सुबह उठ गया। सुबह अखबार में रविवारी पत्रिका में एक युवा कवि की कविता थी जिसमें यह कहा गया था कि ये जो अंधविश्वासों को विज्ञान कहने वाले लोग अचानक चारों ओर दिखलाई पड़ने लगे हैं ये युगों से वंचित रहे हैं और हमें नई संस्कृति बनाने में उनका साथ देना पड़ेगा। यह वही अखबार था जिसमें शबनम काम करती थी। एकबारगी मुझे ध्यान आया कि हाल में कुछ वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि ब्रह्मांड में ब्लैक होल यानी समस्त भौतिक जगत को खा जा सकने वाले अंधकूप सचमुच हैं नहीं। मुझे कहना पड़ेगा कि अंधकूप हैं - वे हमारे आसपास ही हैं। इसके पहले कि हम सब इसमें समा जाएँ मुझे कहना ही पड़ेगा। दिनभर मैं यह सोचता रहा। रविवार की रात को मैंने सपना देखा कि मैं मोहनदास करमचंद गाँधी से बातें कर रहा हूँ। हमारे बीच तगाड़ी में दूध है। अचानक मैंने गाँधी की गर्दन पकड़ ली और उसे तगाड़ी तक दबाकर कहने लगा कि पी दूध पी। फिर एक झटके से मैं जाग उठा। पड़ोस में किसी घर में कोई जोर से हँस रहा था। मुझे लगा रात के सन्नाटे में युवा कवि हँस रहा है और मुझे बधाई दे रहा है कि नई संस्कृति बनाने में मैं उसके साथ हो गया हूँ।

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