प्रसिद्ध अमेरिकी कवि फिलिप लेवीन का कल देहांत हो गया। भारतभूषण
तिवारी ने उनकी एक कविता का अनुवाद किया था जो वेब पत्रिका 'अनुनाद'
में आया था और एक आलेख का अनुवाद किया था जो 'प्रतिलिपि' में आया था।
मैंने कल भाषा पर जो पोस्ट डाला था, उसमें जनसत्ता में आने वाले जिस लेख का जिक्र किया था, वह आज 'भाषाई मानवाधिकार का मसला' शीर्षक से आ गया है। उसे यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ।
तिवारी ने उनकी एक कविता का अनुवाद किया था जो वेब पत्रिका 'अनुनाद'
में आया था और एक आलेख का अनुवाद किया था जो 'प्रतिलिपि' में आया था।
मैंने कल भाषा पर जो पोस्ट डाला था, उसमें जनसत्ता में आने वाले जिस लेख का जिक्र किया था, वह आज 'भाषाई मानवाधिकार का मसला' शीर्षक से आ गया है। उसे यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ।
भाषा
का मुद्दा आखिर क्या है
इस
साल मराठी भाषा में साहित्य
लेखन के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार
पाने वाले भालचंद्र नेमाड़े
ने कहा है कि अंग्रेज़ी की वजह
से भारतीय भाषाएँ खत्म हो रही
हैं। वे इससे भी आगे बढ़कर यहाँ
तक कह गए हैं कि हमें अंग्रेज़ी
को हटाने के लिए प्रभावी कदम
लेने चाहिए। सलमान रश्दी और
सर विदिया नायपॉल का जिक्र
करते हुए उन्होंने कहा कि उनका
लेखन भारतीय साहित्य में जो
कुछ लिखा जा रहा है,
उसके
मुकाबले कहीं भी नहीं है।
अंग्रेज़ी की पैरवी करने वालों
ने उनकी मूल बात को नज़रअंदाज़
करते हुए रश्दी के साथ उनकी
झड़प का नोटिस लिया। रश्दी ने
नेमाड़े को 'ग्रंपी
ओल्ड मैन'
कहा और
अब हम इंतज़ार में हैं कि पंद्रह
साल पहले भारतीय साहित्य पर
संकलन की भूमिका लिखते हुए
जब रश्दी ने भारतीय भाषाओं
में साहित्य को सिरे तक नकार
दिया था, उसे
याद करते हुए उन्हें कोई अनपढ़
अंग्रेज़ीपरस्त कब कहने वाला
है।
अंग्रेज़ी
को लेकर आखिर क्या समस्या है?
आजकल
कई लोग यह सवाल उठाते हैं।
इसके वाजिब कारण हैं। आखिर
अंग्रेज़ी अंतर्राष्ट्रीय
भाषा बन चुकी है। विज्ञान और
दीगर तकनीकी विषयों में
अंग्रेज़ी जाने बिना आप कहीं
के नहीं रहते। कुछ दलित
बुद्धिजीवियों का मानना है
कि अंग्रेज़ी ही दलितों की
मुक्ति का रास्ता है। अंग्रेज़ी
के खिलाफ बोलने वाले अक्सर
संघी टाइप के सीनापीटू स्वघोषित
राष्ट्रभक्त होते हैं,
जिनसे
देश और समाज को खतरा बढ़ता जा
रहा है। कई तो
यह सपना देखते रहते हैं कि
संस्कृतनिष्ठ जिस भाषा को
सरकारी हिंदी कहा जाता था,
वह
कभी विश्व-भाषा
बन जाएगी। पर
नेमाड़े की मूल बात कुछ और है,
जिसको
समझना ज़रूरी है। यह ध्यान
रहे कि नेमाड़े खुद आजीवन
अलग-अलग
स्तर पर अंग्रेज़ी पढ़ाते रहे
हैं। इसलिए
उनको अंग्रेज़ी का विरोधी
मानना ग़लत है।
अंग्रेज़ी
को लेकर समस्या
भाषा की नहीं,
बल्कि
अंग्रेज़ीवालों
की है, जो
इस समाज का सुविधासंपन्न वर्ग
हैं। भारत दुनिया
का सबसे बड़ा लोकतंत्र है,
पर
हम जब देश की बात करते हैं तो
अक्सर उसमें से लोक गायब रहता
है। भाषा की
समस्या लोक से जुड़ी है। पिछले
दो सौ सालों से तालीम की भाषा
का संदर्भ महत्वपूर्ण होता
चला है,
क्योंकि
पिछले ज़मानों की तुलना में
आधुनिक अर्थ में साक्षरता
में बढ़त होती रही है। ऐसा नहीं
कि पहले साक्षरता कम थी,
पर
उस साक्षरता का मतलब कुछ और
था। आज हम मानते हैं कि दूर
दराज इलाकों में भी नागरिकों
में सरकारी
तंत्र और लोकतंत्र
की समझ होनी चाहिए। न केवल
स्थानीय बल्कि राष्ट्रीय
स्तर तक के प्रशासन
में परोक्ष रूप से सभी नागरिकों
की भागीदारी को हम लोकतंत्र
की नींव मानते हैं। इसके लिए
जैसी साक्षरता चाहिए,
वह
हमारे समाज में आज भी एक तिहाई
जनता के पास नहीं है। पर कामगार
अपने काम पारंपरिक ढंग से
सीखते हैं और
उसमें एक दर्ज़े की गहराई होती
है, जिसे
हम
लोकविद्या कह सकते
हैं - ऐसी
साक्षरता हमेशा ही रही है और
इसी के बल पर यह देश आगे बढ़ता
रहा है।
दो
सौ साल पहले तत्कालीन चिंतकों
ने इस बात को समझा कि यूरोप
में विज्ञान-तक्नोलोजी
और सामाजिक-राजनीतिक
विचारों में
बड़ी तेज़ी से बदलाव आए हैं।
भारतीय
उपमहाद्वीप में गंभीर बौद्धिक
चर्चाएँ जिन भाषाओं में होती
थी, जैसे
संस्कृत और फारसी,
उन्हें
समझने वाले लोग संख्या में
बहुत कम थे। इसके अलावा इन
भाषाओं में महारत रखने वाले
लोग कुलीन पूर्वग्रहों से
ग्रस्त थे। संस्कृत ब्राह्मणवादियों
के, तो
फारसी इस्लामी अमीरात के जकड़
में थी। आधुनिक भाषाओं
में, जैसे
उत्तर भारत (आज
हिंदी और अन्य
भाषाओं का
व्यापक भूखंड -
जिसे
हिंदी क्षेत्र कहा
जाता है)
में
ब्रज,
अवधी,
आदि
में पुराने ग्रंथ लिखे जा रहे
थे; रामायण,
महाभारत
से लेकर रसशास्त्र तक लिखा
जा चुका था,
पर
विज्ञान,
तक्नोलोजी
आदि का कुछ भी
मौजूद नहीं था। इसका एक ही
अपवाद था -
उर्दू।
दिल्ली कॉलेज के अध्यापकों
और शोधकर्त्ताओं की टीम लगन
के साथ आधुनिक यूरोपी ज्ञान
को अनुवाद कर रही थी। ऐसी कोशिश
बांग्ला जैसी भाषाओं में भी
बाद में हुई। जो भी हो,
उन्नीसवीं
सदी के समाज सुधारकों ने
बर्तानिया की सरकार से पैरवी
की कि हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी
में तालीम का इंतज़ाम किया
जाए। ये ऐसे लोग थे जिन्हें
उर्दू में लिखी जा रही आधुनिक
बौद्धिक सामग्री का कुछ पता
न था - या
यों कह सकते हैं कि उर्दू वालों
को उन्नीसवीं सदी के आखिर में
ही समझ में आया कि हम अंग्रेज़ों
के गुलाम हो गए हैं। ब्रिटिश
संसद में लंबी बहस के बाद और
लॉर्ड मैकॉले के प्रभावी
हस्तक्षेप के बाद 1835
में
यह निर्णय लिया गया कि सीमित
लागत के साथ अंग्रेज़ी में
तालीम शुरू की जाएगी। प्रशासनिक
कारणों से और संसाधनों की कमी
दिखलाते हुए यह तय पाया गया
कि अंग्रेज़ी तालीम कुछ तबकों
तक ही सीमित रहेगी। भारत में
अंग्रेज़ीवालों की एक जमात
तब से बनना शुरू हुई। इन
अंग्रेज़ीवालों की ही समझ थी
कि देश को धर्म के आधार पर बाँटा
जाए और ये बहसें हिंदुस्तान
में होने से पहले इंग्लैंड
के कालेजों विश्वविद्यालयों
में पढ़ते हिंदुस्तानी
संपन्न वर्गों
के लोगों में हुईं। उस जमाने
में साक्षरता इतनी कम थी कि
यह संभव न था कि हर आधुनिक
भारतीय भाषा में आधुनिक ज्ञान
आसानी से उपलब्ध करवाया जा
सके। नतीज़ा यह रहा कि कई
पीढ़ियाँ औपचारिक स्कूली तालीम
अपनी भाषाओं से हटकर और भाषाओं
में पाती रहीं। इसका सबसे
ज्यादा नुकसान हिंदी क्षेत्र
में हुआ,
क्योंकि
राष्ट्र निर्माण की अजीब धारणा
यहाँ पनपी,
जिसके
अनुसार एक कृत्रिम संस्कृतनिष्ठ
भाषा बनाई गई,
जिसे
पूरे हिंदी
क्षेत्र में कोई
नहीं बोलता
था। विड़ंबना
यह थी कि स्कूली तालीम आज भी
आधी जनता को नसीब नहीं है,
इसलिए
उस अन्याय से वे बचे रह गए। पर
जो स्कूलों में पढ़ने गए,
उनमें
से अधिकतर अंग्रेज़ी और कृत्रिम
हिंदी जैसी भाषाओं में जद्दोजहद
में असफल रहकर प्राथमिक स्तर
से भी ऊपर न आ पाए।
अंग्रेज़ीवालों
को तो अंग्रेज़ी परस्त होना
ही था,
बाकी
लोगों में
भी अंग्रेज़ी के खौफ की वजह
से यह समझ घर
कर गई कि बिना अंग्रेज़ी के
काम चल नहीं सकता।
अंग्रेज़ीवाले अंग्रेज़ी
में बहस करते रहे कि भाषा का
व्यक्तित्व निर्माण में बड़ा
महत्व है,
पर
उन्हीं की मेहरबानी से अपनी
भाषा में तालीम धीरे-धीरे
गायब होता चला।
अंग्रेज़ीवालों की
चालाकी के कई पहलू है,
जिनमें
से एक यह तर्क है कि आप मातृ-भाषा
में तालीम कैसे देंगे,
आखिर
कई कबीलाई
लोगों की भाषा में तो कुछ
सामग्री है ही नहीं। जनता
की समस्याओं पर उदारवादी
नज़रिए का ढोंग दिखलाते हुए
ऐसे लोग न तो कबीलाई लोगों की
भाषाओं पर कोई काम करते हैं
और न उनके इलाकों के आस-पास
की भाषाओं में तालीम को चलने
देना चाहते हैं। इसके विपरीत
गंभीर समर्पित भाषाविद ऐसी
बहुभाषीय तालीम की लड़ाई
लड़ रहे हैं,
जिसमें
प्रारंभिक स्तर पर तालीम बच्चे
की अपनी भाषा के अलावा आस-पास
की सबसे करीब की भाषा में दी
जाए।
पहले
यह संभावना दिखती नहीं थी कि
अपनी भाषाओं में सब कुछ पढ़ा
लिखा जा सकता है,
हालाँकि
चीन, जापान,
इस्राएल
जैसे कई देशों ने बिना किसी
दुविधा के यह कर दिखलाया था।
अब यह
कठिनाई भी काफी हद तक दूर हो
चुकी है,
बशर्ते
इस पर काम करने की मंशा हो। आज
मशीनों की मदद से एक भाषा से
दूसरी भाषा में अनुवाद बहुत
आसान हो गया है। बची-खुची
जो दिक्कतें हैं,
उनकी
बड़ी वजह यह है
कि इसको अपनाने वाले लोग कम
हैं, इसलिए
ज़रूरी तकनीकी विकास भी धीमी
गति से हो रहा है।
इस
पूरी बहस में एक बात सबसे पहले
कही जानी चाहिए कि अपनी भाषा
में तालीम का मतलब यह नहीं कि
अंग्रेज़ी का विरोध करना है।
अंग्रेज़ी परस्त लोग इसी बात
को पहले रखते हैं कि अंग्रेज़ी
का विरोध हो रहा है और यह भारी
अन्याय है। नेमाड़े ने अपने
बयान में कहा है कि वे अंग्रेज़ी
का विरोध नहीं करते। सवाल
यह है कि क्या हम देश के हर
नागरिक को समर्थ और सशक्त
बनाना चाहते हैं,
अगर
हाँ तो हमें दुनिया भर के
शिक्षाविदों का कहना मानना
पड़ेगा कि प्रारंभिक तालीम
अपनी भाषा में हो। जिन्हें
अंग्रेज़ी से वास्ता रखना
है, जब
तक तकनीकी ज्ञान अंग्रेज़ी
में ही मिल रहा है,
उन्हें
तो अंग्रेज़ी सीखनी ही होगी।
शिक्षाविदों का मानना है कि
अपनी भाषा में महारत पाने के
बाद ही हम किसी और भाषा को
जानने-सीखने
के काबिल हो पाते हैं। इसलिए
कम से कम प्राथमिक स्तर तक तो
अंग्रेज़ी शिक्षा का कोई मतलब
ही नहीं है। दलित
बुद्धिजीवियों की लड़ाई जातिप्रथा
और मनुवादियों के खिलाफ है,
उन्हें
यह बात समझनी होगी कि अंग्रेज़ी
को अपनाने में उन्हें कोई
फायदा नहीं है।
नेमाड़े
जब साहित्य के स्तर की बात
करते हैं तो वह सही कह रहे हैं।
जिन्होंने अंग्रेज़ी में
उपलब्ध विश्व साहित्य के साथ
भारतीय भाषाओं में लिखे जा
रहे साहित्य को पढ़ा है,
वे जानते
हैं कि भारतीय अंग्रेज़ी में
लिखा गया साहित्य अभी बहुत
पीछे है। अंग्रेज़ीवालों के
पास सत्ता और ताकत है तो उनकी
चलती है। इसलिए शोरगुल में
वे आगे हैं। पर अदब सिर्फ शोरगुल
का मामला नहीं है। तमाम मुश्किलात
के बावजूद भारतीय भाषाओं में
जो सर्जनात्मक साहित्य लिखा
जा रहा है, उसका
औसत स्तर भारत से अंग्रेज़ी
में लिखे से गुणात्मक और
परिमाणात्मक दोनों स्तर पर
काफी बेहतर है। अरुंधती रॉय
भारतीय भाषा में लिखतीं तो
सिर्फ एक उपन्यास लिखकर उनको
वह जगह न मिलती जहाँ वह आज हैं।
यह ज़रूर मानना होगा कि यह बात
नॉन-फिक्शन
या वैचारिक बहसों के लिए नहीं
लागू होती, हालाँकि
यह हाल में ही हुआ है कि भारतीय
अंग्रेज़ी में वैचारिक बहसें
बांग्ला या मलयालम जैसी भाषाओं
के स्तर को पार करने लगी हैं।
भारतीय भाषाओं में लिखने वाले
ऐसे कई लेखक हैं जो अंग्रेज़ी
में एक जैसी काबिलियत से लिख
सकते हैं, पर
भारतीय अंग्रेज़ी लिखने वाले
वे लोग हैं जो भारतीय भाषाओं
में नहीं लिख सकते। रश्दी ने
जब भारतीय भाषाओं में साहित्य
को नकारा था, उसकी
वजह सिर्फ यही थी कि वे वाकई
भारतीय भाषाओं में अनपढ़ हैं।
हर अंग्रेज़ीपरस्त हमें
अंग्रेज़ी लिखत के उद्धरण
सुनाने को आतुर होता है,
जबकि उतनी
ही या अधिक महत्वपूर्ण बात
अपनी भाषा में कही जाए तो उसे
वह अनसुना करता है।
आखिरी
बात यह कि भाषा का मुद्दा
राष्ट्रवाद का नहीं,
इंसानियत
का मुद्दा है। आज यह संभव है
कि हर भाषा में तालीम दी जा
सके, हर
किसी भाषा को बोलने वाले को
सुविधा हो कि वह राष्ट्रीय
अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों में
भागीदारी कर सके। मुल्कों
में आपसी जंगों और जनता पर दमन
जारी रखने के लिए सरकारें जो
खर्च किया करती हैं, उससे
कहीं कम लागत में भाषाओं की
विविधता को बचाए रखना संभव
है। यही भाषा का असली मुद्दा
है। यही असली ख़लिश है। अंग्रेज़ीवाले
समझते रहें कि ख़लिश क्या होती
है।
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