Thursday, February 12, 2015

यहीं होना था अंततः

हालाँकि आज

हालांकि आज इतनी गर्मी नहीं है
पंखे के नीचे बैठा हूँ, उमस थोड़ी  है
स्मृतियाँ सज़ा-ए-मौत लेकर आती हैं

यह आवाज़ नेशनल लाइब्रेरी के टेबिल फैन से आती है
हवा देता वह पंखा वर्षों पहले के ताकों भरे ज्ञान के खजाने को
निरंतर जीवन में मालाएँ अर्थों की बन दुख आने थे जो

कदाचित ही कोई गाड़ी अंदर आती उस ज़माने में
बूढ़े बरगद की डालियों पर हम लटकते खेलते थे
अक्सर प्रेमी युगल हमसे खेलते हुए आपस में प्यार बाँटते थे
कितने मनमुटाव इसी तरह मिट जाते थे

बाद में खुद सीखा किसी से प्रेम करना
भटकना, बेमतलब चलते जाना,
इन सबके आखिर में होती जगह वही
इन दिनों वहाँ चारों ओर दीवार है ऊँची
इन दिनों अखबार में पढ़ते हैं चर्चाएँ
जो ऑडिटोरियम में हुई हैं होती
इन मीमांसाओं को  अराजक स्मृतियाँ नहीं सँजोतीं

जाओ ढूँढ आओ कहाँ गए वे प्रेमी
कितनों ने परस्पर होंठों से मदिरा पी
थाम एक दूसरे को धरती पर घात-प्रतिघात सहे
कितने हैं मेरी तरह स्मृतियों की सजा निभाते
कितने प्रवाहित उन लहरों में जो चढ़ कर हैं उतरती
कितने डूब चुके कई कई बार बौछारों में निर्दयी
कई जीवन एक ही सदी में जीते हुए
इंतज़ार सदी के अंत का हमेशा करते हुए

रंगीन यात्राओं के भ्रम में भटकता रहा
इकहरी थी मेरी व्यथाएँ सचमुच
जहाँ भी गया देखा खुद को ही निगलता मानव
भाषा के प्रपंच में फँसा प्रेम की खोज में
नफ़रत के आगोश में लिपटा फँसा गहन जाल में
महादेशों को पार करता रहा एक के बाद एक

यहीं होना था अंततः
उमस भरी इस दोपहरी
काल का प्रतिनिधि बन
मरते रहना स्मृतियों के बोध तले।

                                    (सदानीरा - 2013)

No comments: