भाषा विवाद पर आज 'दैनिक भास्कर' के 'रसरंग' में छोटी टिप्पणी आई है, जिसका मौलिक स्वरूप नीचे पेस्ट कर रहा हूँ।
एक बड़ा आलेख कल-परसो तक 'जनसत्ता' में आने की उम्मीद है।
भाषा
की लड़ाई ज़िंदा रहने की लड़ाई
है
भारतीय
मूल के अंग्रेज़ी लेखक सलमान
रश्दी को यह बात बड़ी नागवार
गुजरी है कि इस साल मराठी भाषा
में साहित्य लेखन के लिए
ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले
भालचंद्र नेमाड़े ने कहा है
कि अंग्रेज़ी की वजह से भारतीय
भाषाएँ खत्म हो रही हैं और कि
सलमान रश्दी और सर विदिया
नायपॉल अंग्रेज़ों को ध्यान
में रखते हुए साहित्य लिखते
हैं और उनके लिखे में उसमें
गुणात्मकता के नज़रिए से खास
कुछ नहीं है। रश्दी ने जवाबी
हमला करते हुए नेमाड़े
को 'ग्रंपी
ओल्ड मैन'
कहा है
और यह भी कहा कि आपने हमारी
किताब पढ़ी भी न होगी।
अंग्रेज़ी
को लेकर समस्या भाषा की नहीं,
बल्कि
अंग्रेज़ीवालों की है,
जो
खुद तो जो मर्जी कह देते हैं,
पर
उनको अगर किसी ने छू दिया तो
मचल उठते हैं। नेमाड़े को
ज्ञानपीठ पुरस्कार न मिला
होता तो रश्दी ने उनकी बात पर
ध्यान तक न दिया होता। अब वे
यह बतलाने लगे हैं कि आजीवन
कालेज विश्वविद्यालयों में
अंग्रेज़ी पढ़ाने वाले नेमाड़े
ने उनकी रचनाओं को पढ़ा न होगा।
हो सकता है,
न
पढ़ा हो। पर कितने लोगों को याद
है कि रश्दी ने आज़ादी के पचास
साल बाद दुनिया को यह 'तथ्य'
उजागर
किया था,
"भारत
की सोलह मान्य तथाकथित 'वर्नाकुलर
भाषाओं में'
जो
कुछ भी
लिखा गया है,
उसकी
तुलना में भारत
में अंग्रेज़ी गद्य लिखने
वालों ने फिक्शन और नॉन-फिक्शन-
दोनों
में कहीं महत्वपूर्ण और सशक्त
लेखन किया है। और सचमुच किताबों
की दुनिया में यह नया,
बढ़ते
जा रहा,
'इंडो-ऐंग्लियन
साहित्य'
भारत
का सबसे क़ीमती
अवदान है।"
यह
पढ़कर कई लोगों ने आपत्ति जताई
थी, पर
उस वक्त रश्दी को कोई चिंता
न थी -
आखिर
अंग्रेज़ी की दुनिया में कितने
लोगों को पता था कि भारतीय
भाषाओं में क्या लिखा जा रहा
है। आज भी स्थिति कोई बेहतर
नहीं है,
पर
अब तकनीकी
तरक्की से कई भारतीय भाषाओं
में लिखी रचनाएँ पश्चिम की
भाषाओं में पहले से ज्यादा
रफ्तार से आने लगी हैं। नेमाड़े
ने जो कहा वह रश्दी के 1997
के
बयान की तुलना में बड़ा हल्का
लगता है,
पर
आम लोगों की ज़ुबान में कहें
तो नेमाड़े के कहे से रश्दी को
ज़बर्दस्त खुजली हो गई है।
यह सही है कि
रश्दी ने
अपनी बात की व्याख्या करते
हुए हमें अनुवाद आदि की दिक्कतों
के बारे में समझाने की कोशिश
की थी,
पर
आप उनके वाक्य को फिर से पढ़िए
और देखिए कि अंग्रेज़ीवालों
का घमंड कैसे सर पर चढ़ कर बोलता
है। हकीकत यह है कि नेमाड़े या
भारतीय भाषाओं
के कई दीगर लेखक चाहें तो
अंग्रेज़ी में
उसी काबिलियत
से लिख सकते हैं,
जैसा
उनके भारतीय भाषा में लेखन
में दिखता है,
पर
रश्दी और दूसरे अंग्रेज़ीवालों
के बारे में यह नहीं कहा जा
सकता कि वे भारतीय भाषाओं में
काबिलियत के साथ लिख सकते हैं।
भारतीय
भाषाओं को बचाए रखने की लड़ाई
शायद एक हारी हुई लड़ाई है।
अंग्रेज़ी अंतर्राष्ट्रीय
भाषा बन चुकी है। विज्ञान और
दीगर तकनीकी विषयों में
अंग्रेज़ी जाने बिना आप कहीं
के नहीं रहते। भारत के अंग्रेज़ीवाले
समाज का सुविधासंपन्न वर्ग
हैं। भयंकर गैरबराबरी वाले
इस मुल्क में ये अंग्रेज़ीवाले
खुद को पश्चिमी लोकतांत्रिक
मुल्कों के मध्यवर्ग के समकक्ष
मानकर अक्सर अधिकारों और
सामाजिक न्याय की बातें करते
हैं। वे आपको अंग्रेज़ी में
यह भी बतलाएँगे कि दुनिया भर
के भाषाविद यह मानते हैं कि
आपकी भाषा ही आपका व्यक्तित्व
तय करती है कि किसी भी विदेशी
भाषा को अच्छी तरह सीखने के
लिए पहले अपनी भाषा में महारत
होना ज़रूरी है,
कि हमारे
बच्चों को अपनी भाषा में तालीम
न देकर हम उनके साथ गहरा अन्याय
कर रहे हैं। पर इतना कुछ कह कर
वे अपनी दुनिया में वापस जाएँगे
जहाँ सत्ता और संपन्नता की
स्पर्धा है। तमाम मुश्किलात
के बावजूद भारतीय भाषाओं में
जो सर्जनात्मक साहित्य लिखा
जा रहा है,
उसका
औसत स्तर भारत से अंग्रेज़ी
में लिखे से गुणात्मक और
परिमाणात्मक दोनों स्तर पर
काफी बेहतर है। यह बात नॉन-फिक्शन
या वैचारिक बहसों के लिए नहीं
लागू होती,
हालाँकि
यह हाल में ही हुआ है कि भारतीय
अंग्रेज़ी में वैचारिक बहसें
बांग्ला या मलयालम जैसी भाषाओं
के स्तर को पार करने लगी हैं।
क्या
यह संभव है कि हम अंग्रेज़ी
की जगह अपनी भाषाओं में तालीम
लें? नेमाड़े
जब अंग्रेज़ी को हटाने की बात
करते हैं उनकी चिंता देश के
बच्चों को लेकर है,
जिनसे
उनकी भाषाएँ छीनी जा रही हैं।
इस बहस में एक बात सबसे पहले
कही जानी चाहिए कि अपनी भाषा
में तालीम का मतलब यह नहीं कि
अंग्रेज़ी का विरोध करना है।
नेमाड़े ने अपने बयान में कहा
है कि वे अंग्रेज़ी का विरोध
नहीं करते। सवाल यह है कि क्या
हम देश के हर नागरिक को समर्थ
और सशक्त बनाना चाहते हैं,
अगर हाँ
तो हमें दुनिया भर के शिक्षाविदों
का कहना मानना पड़ेगा कि प्रारंभिक
तालीम अपनी भाषा में हो। जिन्हें
अंग्रेज़ी से वास्ता रखना
है, जब
तक तकनीकी ज्ञान अंग्रेज़ी
में ही मिल रहा है,
उन्हें
तो अंग्रेज़ी सीखनी ही होगी।
शिक्षाविदों का मानना है कि
अपनी भाषा में महारत पाने के
बाद ही हम किसी और भाषा को
जानने-सीखने
के काबिल हो पाते हैं। इसलिए
कम से कम प्राथमिक स्तर तक तो
अंग्रेज़ी शिक्षा का कोई मतलब
ही नहीं है।
यह
बात अंग्रेज़ी में ही खूब लिखी
गई है कि भाषा ही इन्सान की
पहचान है। भाषा का खत्म होना
इंसान का खत्म होना है। नेमाड़े
बयान देते हुए अपने जैसे उन
बहुसंख्यक लोगों के लिए लड़
रहे थे, जिनकी
भाषाएँ खत्म हो रही हैं। यह
अंग्रेज़ी वाले नहीं समझ
पाएँगे,
क्योंकि
उनकी आत्माएँ बहुत पहले बिक
चुकी हैं और वह इसलिए नहीं कि
वे अंग्रेज़ी में लिखते हैं,
बल्कि
इसलिए कि वे हिंदुस्तान के
अंग्रेज़ीवाले हैं। अंग्रेज़ी
में लिखना कोई ज़ुर्म नहीं,
पर
अंग्रेज़ीवाला एक ऐसी जमात
है, जो
भारत के आम लोगों के शोषण से
ही कायम है। हमें यह भी समझना
चाहिए कि अंग्रेज़ी का विकल्प
ऐसी कृत्रिम भाषाएँ नहीं,
जिसे
सरकारी हिंदी कहा जाता है।
हर किसी को अपनी भाषा में तालीम
पाने का और इच्छानुसार काम
करने का हक है। आज तकनोलोजी
के माध्यम से यह संभव है कि
किसी भी भाषा में पढ़ने-लिखने
की सामग्री तैयार की जा सके।
इसके लिए ज़रूरी है कि देश के
संसाधनों को पड़ोसियों को साथ
जंगों और देश के भीतर दमन तंत्र
बनाए रखने में बर्बाद न किया
जाए। यह देश के लोगों को तय
करना है कि हम कब तक अपने खून
पसीने की कमाई को अपने ही खिलाफ
इस्तेमाल होता देखते रहेंगे।
हारते हुए भी इस लड़ाई को हमें
लड़ते रहना है।
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- Kamal Jeet Choudhary