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Showing posts from 2009

तीन महीने की जेल और सात दिनों की फाँसी

मैं चाहता था कि साथ साथ सुकुमार राय के बनाए स्केच भी पोस्ट करता जाऊँ। पहली किस्त में बिल्ले का स्केच उन्हीं का बनाया है। चलो, स्केच के साथ फिर कभी। पिछली किस्त से आगेः ... "धर्मावतार हुजूर! यह मानहानि का मुकदमा है। इसलिए पहले यह समझना होगा कि मान किसे कहते हैं। अरबी जाति की जड़ वाली सब्जियों को मान कहते हैं। अरबी बड़ी पौष्टिक चीज है। कई प्रकार की अरबी होती है, देशी अरबी, विदेशी अरबी, जंगली अरबी, पानी की अरबी इत्यादि। अरबी के पौधे की जड़ ही तो अरबी है, इसलिए हमें इस विषय की जड़ तक जाना चाहिए।" इतना कहते ही एक सियार जिसके सिर पर नकली वालों की एक टोपी सी थी, झट से कूद कर बोला, "हुजूर, अरबी बड़ी बेकार चीज है। अरबी खाकर गले में खुजली होती है। "जा, जली अरबी खा" कहने पर लोग बिगड़ जाते हैं। अरबी खाते कौन हैं? अरबी खाते हैं सूअर और साही। आऽ.. थूः" साही फिर फूँफूँत फूँत कर रोने ही वाला था, पर मगर ने उस बड़ी किताब से उसके सिर पर मारा और पूछा, "कागज़ात दलील, साक्षी सबूत कुछ हैं?" साही ने सिरमुँड़े की ओर देखकर कहा, "उसके हाथ में सभी कागज़ा...

प्यारे बच्चों और मित्र अंट संट वंट

पता चला कि शिबू सोरेन ने कुछ नक्सलपंथी उम्मीदवारों की सफलता के सिर पर 18 सीटें जीत लीं। अब भाजपा की मदद से सरकार बनेगी। उधर झाड़खंड राज्य की सीमा की दूसरी ओर माओवादियों और तृणमूल कांग्रेस का साथ है। यह भी सुना कि सी पी एम के गुंडे अब लाल रंग छोड़ कर ममता के प्रेम में बमबाजी कर रहे हैं। हमलोग जो वनवासियों के खिलाफ सरकार की अन्यायपूर्ण जंग के खिलाफ हैं, हमें कई लोग माओवादियों का समर्थक ही मानते हैं। हम माओ द्ज़े दोंग को बीसवीं सदी के महानतम व्यक्तित्वों में से एक मानते भी हैं। पर इस वक्त समझना मुश्किल होता जा रहा है कौन किस तरफ है और कौन किस तरफ नहीं; सब कुछ ह य व र ल ही है। इस बीच सरकार की और समझौतापरस्तों की मार से पिट मर रहे हैं लोग। तो पिछली किस्त से आगेः ...उस पशु ने कहा, "क्यों हँस रहा था सुनोगी? मान लो धरती अगर चपटी होती और सारा पानी फैल कर ज़मीं पर आ जाता और ज़मीन की मिट्टी सब घुल कर चप चप कीचड़ हो जाती और लोग सभी उसमें धपा धप फिसल फिसल गिरते रहते तो....., हो, हो, हा, हा - " इतना कह कर फिर हँसते हँसते गिर पड़ा। मैं बोली, "अजीब बात है! इसी बात पर तुम ऐसी ...

मान लो धरती अगर चपटी होती

( पिछले पोस्ट से आगे) ... मैंने देखा अंत में मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है - सात दूनी चौदह, उम्र २६ इंच, जन्म २½ सेर, खर्च ३७ वर्ष। कौवा बोला, "देख कर पता चल ही रहा है कि यह हिसाब न तो एल सी एम या लघुतम अपवर्त्य है न जी सी एम या महत्तम गुणक। इसलिए यह या तो ऐकिक नियम से आया है या फिर कोई भिन्न है। मैंने गौर किया तो पाया कि ढाई सेर भिन्न है। तो बाकी तीन ऐकिक नियम से निकलेंगे। अब मुझे यह पता लगाना है कि तुम्हें ऐकिक नियम चाहिए या भिन्न।" बुड्ढा बोला,"अच्छा ठहरो। मुझे एक बार पूछना पड़ेगा।" ऐसा कह कर उसने सिर झुकाया और पेड़ की जड़ पर मुँह लगाकर बुलाना शुरु किया, "अरे बुधवा! बुधवा रे!" थोड़ी देर बाद लगा जैसे कोई पेड़ में से गुस्से में बोल उठा, "क्यों बुला रहा है?" बुड्ढा बोला,"कौव्वेश्वर क्या कह रहा है, सुन।" फिर उसी तरह की आवाज हुई, "क्या बोल रहा है?" बुड्ढा बोला,"कह रहा है ऐकिक नियम या भिन्न?" जोर से जवाब आया, "किसको भिन्न कह रहा है, तुझे या मुझे?" बुड्ढा बोला,"नहीं यार। कह रहा है क...

तीसरी किस्त

जितना भी मान लें , तिब्बत तो यह है नहीं । यह हैदराबाद है और कल यहाँ कुछ इलाकों में आगजनी मारपीट जम कर हुई है। ह य व र ल की तीसरी किस्त हाजिर हैः ************************************* ... कहीं से एक पुराना दर्जी की माप का फीता निकालकर वह मुझे नापने लगा और बोलने लगा , " खड़ी छब्बीस इंच , बाँह छब्बीस इंच , आस्तीन छब्बीस इंच , सीना छब्बीस इंच , गर्दन छब्बीस इंच। " मैंने जोरों से विरोध करते हुए कहा , " यह हो ही नहीं सकता , सीने का नाप भी छब्बीस इंच , गर्दन भी छब्बीस इंच ? मैं क्या कोई सूअर हूँ ?" बुड्ढे ने कहा , " यकीन नहीं होता तो देखो। " मैंने देखा कि उस फीते पर लगे पैमाने के चिह्न गायब हो चुके थे , बस २६ जरा सा पढ़ा जा रहा है , इसलिए बुड्ढा जो भी नापे वह सब छब्बीस इंच हो जाता है। इसके बाद बुड्ढे ने पूछा , " वजन कितना है ?" मैंने कहा , " नहीं जानती !" बुड्ढे ने दो उँगलियों से मुझे जरा सा इधर उधर दबाया और कहा , " अढ़ाई सेर !" मैं बोली , " अरे पटलू का ही वजन इक्कीस सेर ...

मान लो कि यहाँ तिब्बत है

मूल रचना में कथा वाचक एक लड़का है , लड़की नहीं। चूँकि बांग्ला में क्रिया पदों में लिंग निर्णय नहीं है और कहानी में कहीं भी कथावाचक का नाम नहीं है , मैंने सत्यजित राय को लिखा कि मैं कथावाचक को लड़की रखना चाहता हूँ। उन्होंने आपत्ति की , पर मैंने फिर भी अपने मन की की। उनके पास पिता की रचना का कापीराइट नहीं था चूँकि सुकुमार की मृत्यु को पचास साल से ऊपर हो गया था। बाद में कई बार सोचने पर लगा है कि मुझे उनकी बात माननी चाहिए थी। मैंने बांग्लाभाषी दोस्तों से पूछा कि आखिर पूरी कहानी पढ़कर हम कहाँ समझ लेते हैं कि यह लड़का है। एक दोस्त ने बतलाया कि अंत में मामा बच्चे का कान पकड़ खींचता है , ऐसा लड़की के साथ नहीं हो सकता। यानी यह सांस्कृतिक मुद्दा है। बहरहाल , यह दूसरी किस्तः ( पिछली किस्त यहाँ ) ********************** ... उसने घास पर एक काठी से एक लंबी लकीर खींची और कहा , " मान लो यह झाड़मभैया है। " इतना कहकर वह थोड़ी देर गंभीरता से चुप होकर बैठा रहा। उसके बाद फिर उसी तरह का एक दाग खींचा , " मान लो कि यह तुम हो ", कहकर फिर गर्दन मोड़कर चुप होकर ...

ह य व र ल

सचमुच कमाल ही है। पता ही नहीं चलता कि कैसे वक्त बीतता है। इस बीच चंडीगढ़ , कोलकाता और अब कुछ दिनों के लिए वापस हैदराबाद। इस दौरान हर कहीं गड़बड़झाला। दिसंबर की शुरुआत में लुधियाना में दंगे , फिर हैदराबाद और आस पास तेलंगाना के पक्ष विपक्ष में लड़ाई और कोलकाता में कालेजों और सड़कों में ईंट पत्थर , सोडा वाटर बोतलों , घरेलू बमों और टीयर गैस की मारपीट। अलग अलग जगहें और अलग अलग तरह के संघर्ष। हर जगह भ्रष्ट राजनैतिक ताकतों का नंगा नाच। बीच में इन सब विषयों पर लिखने की कोशिश भी की , पर पूरा कर ही नहीं पाता। चंडीगढ़ में एक रीफ्रेशर कोर्स में साहित्य और संघर्ष पर बोलत हुए संघर्ष की धारणा पर नए ढंग से सोचने का मौका मिला। बहरहाल कोलकाता में एक अंतर्राष्ट्रीय समम्लन में अपने वैज्ञानिक शोधकार्य पर पर्चा पढ़ने गया था , पर उसी दौरान मौका निकाल कर एक बहुत ज़रुरी काम कर डाला। १९८८ में सुकुमार राय के ' ह य व र ल ' का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद किया था। अशोक अग्रवाल ने संभावना या पुनर्नवा प्रकाशन से प्रकाशित किया था। मध्य प्रदेश के ' आपरेशन ब्लैकबोर्ड ' प्रोग्राम को टार्गेट ...

वहीं रख आया मन

उन्हीं इलाकों से वापस मुड़ना है वहीं से गुजरते हुए देखना है वही पेड़, वही गुफाएँ * * आँखें बूढ़ी हुईं पेट बूढ़ा हुआ रह गया अभागा मन तलाशता वहीं जीवन * * चार दिनों में कोई लिखता हरे मटर की कविता मैं बार बार ढूँढता शब्द देखता हर बार छवि तुम्हारी * * उन गुजरते पड़ावों पर अब सवारी नहीं रुकती बहुत दूर आ चुका हूँ वहीं रख आया मन वही ढूँढता चाहता मगन।

मेमेंटो बाँटो, फोटू खिंचवाओ

परसों एक स्थानीय राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में सईद आलम लिखित, निर्देशित और टाम आल्टर अभिनीत मौलाना आज़ाद पर मोनोलाग देखने गया था। टाम आल्टर पद्मश्री से सम्मानित कलाकार है। आम तौर से सरकारी किस्म के कार्यक्रमों में ऐसे सम्मानित व्यक्तियों का औपचारिक आदर औरों की तुलना में अधिक होता है। पर मैंने इतने बदतमीज़ दर्शक बहुत कम देखे हैं। टाम ने खुद अभिनय के दौरान गुस्सा दिखलाया और बाद में सईद आलम ने भी नाराज़गी व्यक्त की। बार बार सेल फ़ोन बजना, लगातार लोगों का स्टेज के साथ लगे दरवाजों से आना जाना। स्वयं वायस चांसलर या ऐसे ही किसी अधिकारी का पहले रो में बैठकर दफ्तरी कागज़ात देखना और कर्मचारी से बात करना, पता नहीं इन लोगों ने कार्यक्रम रखा क्यों था। हिंदुस्तान में कलाकारों का ऐसा अनुभव आम बात है। लोग नाटक देखने या संगीत का कार्यक्रम देखने नहीं जाते, मेला समझ कर जाते हैं। वक्त पर नहीं आएँगे, सेलफ़ोन पर फूहड़ बाजे वाली रिंग सुनेंगे, साथ दूध पीते या उससे थोड़े बड़े बच्चों को लाएँगे कि चल बच्चू देख नौटंकी देख। कलाओं के प्रति पढ़े लिखे लोगों में ऐसा संकीर्ण और असभ्य रवैया क्यों है? पुराने मित्र...

अधूरे चिट्ठे

अक्सर मैं चिट्ठा लिखने की सोचते ही रहता हूँ। पूरा नहीं कर पाता। यह कोई महीने भर पहले लिखा था। अधूरा ही रह गया: द हिंदू में तनवीर अहमद का अपनी नानी के भाई बहन के साथ मिलन पर मार्मिक आलेख पढ़ा। ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ पढ़ते सुनते रहे हैं, कितनी कितनी बार मन दहाड़ें मार कर रोने को होता है, पर दुनिया जैसी है, वैसी है और हम अवसाद के बवंडर में अगले दिनों की ओर चलते रहते हैं। तनवीर ने कहा है कि हालांकि काश्मीर के लोग अब एक साथ होने को तैयार हैं, पर पंजाब के लोग अभी भी ऐसा नहीं होने देंगे। इससे मुझे एक तो जरा असहमति है, साथ ही कई पुरानी बातें याद आ गईं। पोखरन-कहूटा परमाणु विस्फोट और कारगिल युद्ध के बाद हम लोगों ने चंडीगढ़ में साइंस ऐंड टेक्नोलोजी अवेयरनेस ग्रुप के नाम से हिरोशिमा नागासाकी पर तैयार किया एक स्लाइड शो दिखाना शुरु किया था। इसका प्रत्यक्ष उद्देश्य नाभिकीय युद्ध से होने वाले ध्वंस के बारे में लोगों को जागरुक करना था। पर इस मुहिम में शामिल हर कोई जानता था कि बी जे पी सरकार के शुरुआती दिनों में के पाकिस्तान के प्रति नफरत फैलाना सांप्रदायिक ताकतों के एजेंडे में था और हम इसके ख...