Skip to main content

मान लो धरती अगर चपटी होती

(पिछले पोस्ट से आगे)

... मैंने देखा अंत में मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है -

सात दूनी चौदह, उम्र २६ इंच, जन्म २½ सेर, खर्च ३७ वर्ष।

कौवा बोला, "देख कर पता चल ही रहा है कि यह हिसाब न तो एल सी एम या लघुतम अपवर्त्य है न जी सी एम या महत्तम गुणक। इसलिए यह या तो ऐकिक नियम से आया है या फिर कोई भिन्न है। मैंने गौर किया तो पाया कि ढाई सेर भिन्न है। तो बाकी तीन ऐकिक नियम से निकलेंगे। अब मुझे यह पता लगाना है कि तुम्हें ऐकिक नियम चाहिए या भिन्न।"

बुड्ढा बोला,"अच्छा ठहरो। मुझे एक बार पूछना पड़ेगा।" ऐसा कह कर उसने सिर झुकाया और पेड़ की जड़ पर मुँह लगाकर बुलाना शुरु किया, "अरे बुधवा! बुधवा रे!"

थोड़ी देर बाद लगा जैसे कोई पेड़ में से गुस्से में बोल उठा, "क्यों बुला रहा है?"

बुड्ढा बोला,"कौव्वेश्वर क्या कह रहा है, सुन।"

फिर उसी तरह की आवाज हुई, "क्या बोल रहा है?"

बुड्ढा बोला,"कह रहा है ऐकिक नियम या भिन्न?"

जोर से जवाब आया, "किसको भिन्न कह रहा है, तुझे या मुझे?"

बुड्ढा बोला,"नहीं यार। कह रहा है कैसा हिसाब चाहिए, भिन्न या तीन के गुणज।"

थोड़ी देर बाद जवाब सुनाई पड़ा, "अच्छा ऐकिक नियम कह दो।"

बुड्ढा थोड़ी देर गंभीरता से दाढ़ी पर हाथ मारता रहा और फिर सिर हिलाकर बोला, "बुधवा तो बुद्धू ही ठहरा! ऐकिक नियम क्यों कहूँ? भिन्न् में क्या खामी है? नहीं भई कौव्वेश्वर, तुम भिन्न ही दो।"

कौवा बोला, "तो ढाई सेर से दो सेर निकाल फेंकने पर बाकी बचा भिन्न आधा सेर। आधा सेर हिसाब की कीमत है - खालिस हो तो दो रुपए चौदह आने, और पानी मिला हो तो छः पैसे।"

बुड्ढा बोला,"मैं जब रो रहा था, तब तीन बूँद पानी हिसाब में गिर गया था। यह लो तुम्हारी स्लेट और और ये लो छः पैसे।"

पैसे मिले तो कौवा बड़ा खुश हुआ। वह 'झंजा गंजा, गंजा मंझा' कहता स्लेट बजाकर नाचने लगा।

तुरंत बुड्ढे ने चीखकर कहा, "फिर गंजा गंजा कहा? ठहर, अरे बुधवा, रे बुधवा! जल्दी आ, फिर गंजा कहा। " कहते न कहते ही पेड़ के खोंड़र से एक बड़ी पोटली जैसा हड़बड़ करता हुआ कुछ मिट्टी में रेंगता गिर पड़ा। झाँककर देखा, एक बूढ़ा आदमी एक बहुत बड़ी पोटली के नीचे दबा हुआ परेशान होकर हाथ पैर हिला रहा है! बूढ़ा देखने में बिल्कुल हुक्के वाले बुड्ढे जैसा था। हुक्के वाले ने उसे खींच कर खड़ा तो किया ही नहीं, खुद ही उस पोटली पर चढ़ कर बैठ गया।

"उठ, मैं कह रहा हूँ उठ, जल्दी उठ," कह कर धड़ाम धड़ाम उसे हुक्के से मारने लगा। कौवे ने मेरी ओर देख कर आँख मार कर कहा, "बात समझ में नहीं आई न? उधवा का बोझ बुधवा की पीठ पर। इसका बोझ उसकी पीठ पर डाल दिया है, अब वह इस बोझ को छोड़ना क्यों चाहे? इसी बात पर रोज झगड़ा होता है।"

इस बात के दौरान मैंने देखा, बुधवा अपनी पोटली समेत खड़ा हो गया। खड़ा होते ही पोटली ऊँची कर दाँत कटकटाता हुआ बोला, "यह बात है, स्टूपिड उधवा।"

उधवा ने भी आस्तीन चढ़ा कर हुक्का तान कर हुंकार भरा, "अबे तू बेहया! बुधवा।"

कौवा बोला, "लड़ जा, लड़ जा, नारद! नारद!"

बस झट झट, खटा खट, धमा धम, छपा छप! क्षण भर में मैंने देखा कि उधवा जमीन पर गिरा हाँफ रहा है और बुधवा तड़प तड़प कर गंजे सिर पर हाथ फेर रहा है।

बुधवा ने रोना शुरु किया, "अरे भाई उधवा रे, तू कहाँ गया रे?"

उधवा ने रोते हुए कहा, "अरे हाय हाय! हमारे बुधवा को क्या हुआ रे!"

उसके बाद दोनों उठकर थोड़ी देर भरी आवाज में रोकर और थोड़ी देर जरा गले मिल कर बड़े खुश मिजाज पेड़ के खोंड़र में घुस गए। यह देखकर कौवा भी दूकान बंद कर जाने कहाँ चला गया।

मैं सोच ही रही थी कि अब राह ढूँढू और घर लौटूँ, तभी पास ही एक झाड़ी से अजीब सी आवाज आई, जैसे कोई हँसते हँसते अपनी हँसी सँभाल न पा रहा था। झाँक कर देखा, एक जानवर – मनुष्य है या बंदर, उल्लू है या भूत, ठीक पता नहीं चला - बस हाथ पैर उछाले हँसते जा रहा है और कह रहा है, "अरे, अब नहीं बचते - नाड़ियाँ, अंतड़ियाँ सब फट रही हैं।"

अचानक मुझे देख कर उसे साँस मिली और उठकर उसने कहा, "शुक्र है, तुम आ गए, नहीं तो हँसते हँसते थोड़ी देर में मेरा तो पेट फट जाना था।"

मैं बोली, "तुम ऐसी भयंकर हँसी क्यों हँस रहे थे?"

उस पशु ने कहा, "क्यों हँस रहा था सुनोगी? मान लो धरती अगर चपटी होती और सारा पानी फैल कर ज़मीं पर आ जाता और ज़मीन की मिट्टी सब घुल कर चप चप कीचड़ हो जाती और लोग सभी उसमें धपा धप फिसल फिसल गिरते रहते तो....., हो, हो, हा, हा - "

इतना कह कर फिर हँसते हँसते गिर पड़ा।
(बाकी अगले पोस्ट्स में)

Comments

Popular posts from this blog

फताड़ू के नबारुण

('अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित) 'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण! 1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हू...

मृत्यु-नाद

('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख) ' मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती ' - मिर्ज़ा ग़ालिब ' काल , तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। /  इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ ' - शमशेर बहादुर सिंह ; हिन्दी कवि ' मैं जा सकता हूं / जिस किसी सिम्त जा सकता हूं / लेकिन क्यों जाऊं ?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय , बांग्ला कवि ' लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर  हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए  तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी हमारी हर सोच जीवन - केंद्रिक है , पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों - कलाकारों ने जितना सृजन किया है , उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति - सापेक्ष होती हैं , यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है , देर - सबेर हम सब को मौत का सामना करना है , और मरने पर हम निष्क्रिय...

 स्त्री-दर्पण

 स्त्री-दर्पण ने फेसबुक में पुरुष कवियों की स्त्री विषयक कविताएं इकट्टी करने की मुहिम चलाई है। इसी सिलसिले में मेरी कविताएँ भी आई हैं। नीचे उनका पोस्ट डाल रहा हूँ।  “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” ----------------- मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपन...