मूल
रचना में कथा वाचक एक लड़का
है, लड़की
नहीं। चूँकि बांग्ला में
क्रिया पदों में लिंग निर्णय
नहीं है और कहानी में कहीं भी
कथावाचक का नाम नहीं है,
मैंने
सत्यजित राय को लिखा कि मैं
कथावाचक को लड़की रखना चाहता
हूँ। उन्होंने आपत्ति की,
पर मैंने
फिर भी अपने मन की की। उनके
पास पिता की रचना का कापीराइट
नहीं था चूँकि सुकुमार की
मृत्यु को पचास साल से ऊपर हो
गया था। बाद में कई बार सोचने
पर लगा है कि मुझे उनकी बात
माननी चाहिए थी। मैंने बांग्लाभाषी
दोस्तों से पूछा कि आखिर पूरी
कहानी पढ़कर हम कहाँ समझ लेते
हैं कि यह लड़का है। एक दोस्त
ने बतलाया कि अंत में मामा
बच्चे का कान पकड़ खींचता है,
ऐसा लड़की
के साथ नहीं हो सकता। यानी यह
सांस्कृतिक मुद्दा है।
बहरहाल, यह दूसरी किस्तः (पिछली किस्त यहाँ)
**********************
...उसने घास पर एक काठी से एक लंबी लकीर खींची और कहा, "मान लो यह झाड़मभैया है।" इतना कहकर वह थोड़ी देर गंभीरता से चुप होकर बैठा रहा।
उसके बाद फिर उसी तरह का एक दाग खींचा, "मान लो कि यह तुम हो", कहकर फिर गर्दन मोड़कर चुप होकर बैठा रहा।
इसके बाद और एक दाग बना कर कहा, "और मान लो कि यह है चंद्रबिंदु।"
इसी तरह वह क्षण भर कुछ सोचता रहा और फिर एक लंबी लकीर खींच कर बोलता रहा, "मान लो कि यहाँ तिब्बत है......" यहाँ मान लो कि झाड़मभाभी खाना पका रही है..... यह मान लो कि झाड़ के तने पर एक खोंड़र......"
यह सब सुनते हुए आखिर में मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा, "धत् तेरे की! अंट संट क्या बकते जा रहा है, बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा।"
बिल्ला बोला, चलो सारी बातें जरा आसान कर दूँ। आँखें मींचो, मैं जो भी कहूँ उसका हिसाब लगाओ।" मैंने आँखें बंद कर लीं।
आंखें मींचे हुए हूँ, मींचे हुए हूँ, बिल्ले का कुछ अता पता नहीं। अचानक मुझे शक हुआ, आँखें खोलीं तो देखा वह बिल्ला पूँछ उठाए बगीचे का बेड़ा पार कर रहा है और लगातार खी खी कर हँसता जा रहा है।
करती क्या, पेड़ के नीचे एक पत्थर पर बैठ गई। जैसे ही बैठी, टूटे से स्वर में एक मोटे गले की आवाज आई, "सात दूनी कितना होता है?"
मैंने सोचा, अब यह कौन आ गया? इधर उधर देख ही रही थी, तभी वह आवाज फिर आई, "क्यों जवाब नहीं दिया अभी तक? सात दूनी कितना होता है?" अब ऊपर झाँक कर देखा, एक जंगली कौवा स्लेट पेंसिल लेकर पता नहीं क्या क्या लिख रहा है और बीच बीच में गर्दन टेढ़ी कर मेरी ओर देख रहा है।
मैंने कहा, "सात दूने चौदह।"
तुरंत कौवा हिल हिल कर सिर दाएँ बाएँ करते हुए बोला, "नहीं हुआ, नहीं हुआ, फेल।"
मुझे बड़ा गुस्सा आया। बोली, "बिल्कुल ठीक कहा है, सात एक्कम सात, सात दूनी चौदह, सात तिएँ इक्कीस।"
कौए ने कोई जवाब नहीं दिया, बस पेंसिल मुँह में लिए थोड़ी देर जाने क्या सोचा। फिर कहा, "सात दूने चौदह के चार और हाथ में रही पेंसिल!"
मैं बोली, "पर तुमने तो कहा था कि सात दूने चौदह नहीं होते, अब कैसे हो गया?"
कौवा बोला, "जब तुमने कहा था तब पूरे चौदह हुए नहीं थे। तब तेरह रुपए चौदह आने तीन पाई थे। अगर मैंने ठीक वक्त पर झट से १४ लिख नहीं दिया होता तो अब तक चौदह रुपए एक आना नौ पाई हो गए होते।"
मैं बोली, "ऐसी अनाड़ी बात तो कभी नहीं सुनी। सात दूनी अगर चौदह हुए तो वह तो हमेशा ही चौदह होगा। एक घंटे पहले जो था, दस दिन बाद भी वही होगा।"
कौवे ने बड़े आश्चर्य से कहा, "तुम्हारे देश में वक्त की कोई कीमत नहीं है क्या?"
मैंने कहा, "वक्त की कीमत क्या?"
कौवा बोला, "अगर कुछ दिन यहाँ रह जाती तो बात समझ में आ जाती। हमारे बाजार में इन दिनों समय बड़ा महँगा है, जरा भी बेकार खर्च करने की गुंजाइश नहीं है। अरे कुछ दिनों तक कड़ी मेहनत कर कुछ समय बचाया था, तुम्हें समझाने में उसका भी आधा खर्च हो गया," कह कर वह फिर से हिसाब लगाने लगा। मैं अटपटा सा महसूस करती बैठी रही।
तभी पेड़ के एक खोंड़र से सुर्र सा फिसलता जाने क्या नीचे गिरा। देखा तो डेढ़ हाथ लंबा एक बुड्ढा, उसके पैरों तक हरे रंग की दाढ़ी है, हाथ में हुक्का है जिसमें कोई नली वली नहीं और उसकी खोपड़ी बिल्कुल गंजी है। और गंजी चाँद पर खड़िया मिट्टी से जाने क्या क्या लिखा है।
आते ही बुड्ढे ने हुक्के के दो एक कश खींच परेशान सा होते कहा, "क्यों, हो गया हिसाब?"
कौवा जरा इधर उधर देख कर बोला, "बस हो ही गया।"
बुड्ढा बोला, "अजीब बात है, उन्नीस दिन हो गए, अभी तक हिसाब नहीं कर पाए?"
कौवे ने दो चार मिनट बड़ी गंभीरता से पेंसिल चूसी और फिर पूछा, "कितने दिन कहा तुमने?"
बुड्ढा बोला, "उन्नीस।"
कौवे ने तुरंत ऊँची आवाज में कहा, "लग जा, लग जा - बीस।"
बुड्ढा बोला, "इक्कीस।" कौवा बोला, "बाईस।" बुड्ढा बोला, "तेईस।" कौवा बोला, "साढ़े तेईस।" जैसे नीलाम की बोलियाँ चल रही हों।
ऐसे बोलते हुए कौवे ने अचानक मेरी ओर देखकर कहा, "तुम क्यों नहीं बोल रही?"
मैं बोली, "मैं ख़ामख़ाह क्यों बोलूँ?"
बुड्ढे ने अब तक मुझे देखा नहीं था। अचानक मेरी आवाज सुनते ही सन् ननन् कर आठ दस चक्कर लगाकर मेरी ओर चेहरा कर वह खड़ा हो गया।
उसके बाद वह हुक्के को दूरबीन की तरह आँखों के सामने रख काफी देर तक मेरी ओर देखता रहा। उसके बाद जेब से कुछ रंगीन काँच निकाल कर उनमें से मुझे बार बार देखने लगा। उसके बाद कही से एक पुराना दर्जी की माप का फीता निकालकर वह मुझे नापने लगा और बोलने लगा, "खड़ी छब्बीस इंच, बाँह छब्बीस इंच, आस्तीन छब्बीस इंच, सीना छब्बीस इंच, गर्दन छब्बीस इंच।"
1 comment:
दिलचस्प !
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