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Showing posts from 2013

अँधेरे के बावजूद

सबको नया साल मुबारक। अँधेरे के बावजूद यह जो गाढ़ा सा अटके रहने का हिसाब है लंबे अरसे से तकरीबन उस बड़े धमाके के वक्त से चल रहा है जब हम तुम घनीभूत ऊर्जा थे यह हिसाब यह दुखों सुखों की बही में हल्के और भारी पलड़े को जानने की जद्दोजहद यह चलता चलेगा लंबे अरसे तक तकरीबन तब तक जब सभी सूरज अँधेरों में डूब जाएँगे और हम तुम बिखरे होंगे कहीं किसी अँधेरे गड्ढे में इस हिसाब में यह मत भूलना कि निरंतर बढ़ते जाते दुखों के पहाड़ के समांतर कम सही कुछ सुख भी हैं और इस तरह यह जानना कि हमारे सुख का ठहराव उन सभी अँधेरे गड्ढों के बावजूद है जो हमारे इर्द गिर्द हैं कि कोई किसी की भी जान ले सकता है बेवजह या कि कोई वजह होती होगी किसी में जाग्रत दहाड़ते दानव होने की कोई कहीं सुंदरतम क्षणों की कल्पनाओं मे डालता तेजाब चारों ओर चारों ओर ऐसी मँडराती खबरें इन्हीं के बीच बनाते जगह हम तुम पल छूने के , पल पूछने के कि तुम क्यों हँसते हो और यह जानने के कि थोड़ा सही कम नहीं है सुख परस्पर अंदर की गलियों में खिलखिला आना मूक बोलियों में कायनात के हर सपने को गाना। ...

जेंडर प्रसंग में एक बातचीत

एक रोचक बातचीत को समेट कर ढ़ंग से कुछ लिखना चाहता था , पर कर नहीं पाया। इसलिए जो बातें हुईं , उसी को थोड़े से संपादन के साथ फिलहाल पोस्ट कर रहा हूँ , ताकि किसी को कोई काम की बात लगे तो बढ़िया। एक युवा कवि आलोचक साथी ने FB पर लिखा है - ' मैत्रेयी पुष्पा मेरी अत्यंत आदरणीय और प्रिय लेखिका हैं लेकिन उनके कल के बयान से , कि पुरुष हर हाल में सहमत होता है , मैं एकदम असहमत हूँ . उनका बयान पढ़कर ऐसा लगता है कि हर पुरुष हर समय हर किसी के साथ यौन क्रिया में संलग्न होने के लिए तैयार बैठा रहता है . ठीक है , पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक और भोग्या में तब्दील करने की पूरी कोशिश की है . लेकिन इस क़दर सामान्यीकृत बयान को निजी अनुभवों भर से खारिज किया जा सकता है . क्या आपने ऐसे पुरुष नहीं देखे जिन्होंने प्रेम प्रस्ताव ठुकराए हों ? जिन्होंने सहज उपलब्ध अवसर का " उपयोग " करने से इनकार कर दिया हो ? जिनकी एकांत संगत में भी महिला सहज रही हो ? जो यौन पशु न हों ? स्त्रीवाद को लेकर मुझे हमेशा लगता है कि हिंदी साहित्य में इसका झंडा बुलंद ...

अलविदा मांडेला - हम भूलेंगे नहीं 'अमांडला अंवेतू'

आज जनसत्ता में पहले पन्ने पर   प्रकाशित स्मृति आलेख: ' अमांडला अंवेतू !' - सत्ता किसकी , जनता की ! यह नारा अस्सी और नब्बे के दशकों में दुनिया के सभी देशों में उठाया जाता था। हमारे अपने ' इंकलाब ज़िंदाबाद ' जैसा ही यह नारा अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय आवाज थी। जब नेलसन मांडेला 1 मई 1990 को जेल से छूटे , बाद के सालों में जब वे कई देशों के दौरे पर आए , हर जगह यह नारा गूँजता। कोलकाता में आए तो सिर्फ ईडेन गार्डेन में भूपेन हाजारिका के साथ ही नहीं , सड़कों पर आ कर लोगों ने ' मांडेला , मांडेला ' की गूँज के साथ यह नारा उठाया। और यह शख्स जिसने सारी दुनिया को अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ उठ खड़े होने को प्रेरित किया , 27 साल तक अमानवीय परिस्थितियों में दुनिया के सबसे खतरनाक जेलों में से माने जाने वाले रॉबेन आइलैंड में सड़ रहा था। उसी जेल में रहे दक्षिण अफ्रीकी कवि डीनस ब्रूटस ने कमीज उतार कर दिखलाया था कि कैसे सामान्य नियमों के उल्लंघन मात्र से उनको गोली मारी गई थी , जो सीने के आर पार हो गई थी। नेल्सन रोलीलाला मांडेला बीसवीं सदी का अकेला...

ऐ वे मैं चोरी चोरी

करीब पंद्रह दिनों पहले मैंने नीचे के तीन पैरा लिखे थे। पोस्ट नहीं कर पाया था। उसके बाद एक - एक कर हिंदी के दो बड़े साहित्यकार गुजर गए। विजयदान देथा और ओमप्रकाश बाल्मीकि। और फिर मेरी प्रिय लेखिका डोरिस लेसिंग। मौत तो सबकी होनी है . ये सभी बड़ी उम्र में ही गुजरे , पर इनका जाना एक वर्तमान का इतिहास बन जाना है। बापू साधारण मजदूर था। सरकारी गाड़ी चलाता था। कभी कभी दारू पीकर लौटता तो एक संदूक में पड़ी पोथियाँ निकालकर हमें हीर - राँझा , नल - दमयंती आदि गाकर सुनाता। हम उसे ' तुसीं ' यानी आप कहते थे , पर माँ को ' तू ' कहते थे। अब स्मृति में वह अपना ऐसा हिस्सा लगता है कि उसके लिए आप नहीं सोच पाता। बड़े होकर जाना था कि बापू के गाए कई गीत पंजाब के प्रसिद्ध लोकगीत हैं और इनके गानेवालों में जमला जट , आलम लोहार और रेशमा आदि हैं। विदेश में पढ़ते हुए एकबार न्यूयॉर्क के जैक्सन हाइट्स की दूकानों में हिंदुस्तानी संगीत के कैसेट ढूँढ रहा था तो किसी बुज़ुर्ग ने रेशमा का कैसेट पकड़ाया। अब भी मेरे पास है , पर अरसे से प्लेयर खराब है तो बजाया नहीं जाता। रेशमा को याद करना बापू को ...

मुक्ता दाभोलकर

पिछले एक पोस्ट में मैंने जिक्र किया था कि हमलोगों ने डॉ . नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के खिलाफ दुख और रोष प्रकट किया था। साथी भूपेंद्र ने उनकी बेटी मुक्ता के साथ संपर्क किया और 25 अक्तूबर को हमने उनका व्याख्यान रखा। साथ ही अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति की ओर से प्रशांत ने कुछ प्रयोग भी दिखलाए। मुक्ता बहुत ही अच्छा बोलती हैं। उनकी बातों में जेहनी प्रतिबद्धता झलकती है और साथ ही अपनी तकरीर में वह सहिष्णुता का अद्भुत नमूना पेश करती हैं। उस दिन हॉल खचाखच भरा हुआ था और चूँकि मैंने मंच सँभालने की जिम्मेदारी ली थी , आज तक कई साथी आ - आकर मुझे धन्यवाद कह रहे हैं कि यह कार्यक्रम आयोजित किया गया। आखिर क्या वजह है कि लोगों ने इसे इतना पसंद किया। प्रतिबद्धता और सहिष्णुता ही दो बातें हैं जो अलग से दिखती हैं। कुछ लोग दुख साझा करने के मकसद से आए होंगे और मैंने मुक्ता से आग्रह भी किया था कि वह अपने पिता के मानवीय पक्ष पर बोले। पर मुक्ता ने निजी संदर्भों के साथ आंदोलन के पहलुओं को जोड़ कर लोगों को गहराई तक प्रभावित किया। सवाल जवाब देर तक चला। एक बात कई बार आई कि स्वयं नास्तिक होते हुए भी अंधविश्वास के खिला...

उनसे मिलना अच्छा लगता था

' हंस ' में मेरी पाँच कहानियाँ और करीब पच्चीस कविताएँ प्रकाशित हुई हैं , अधिकतर नब्बे के दशक में। उस ज़माने में जब बहुत कम लोगों को जानता था , चंडीगढ़ से कहीं आते - जाते हुए दिल्ली से गुजरते हुए एक दो बार स्टेशन से ही पैदल चल कर राजेंद्र यादव से मिला था। कविताओं में उनकी रुचि कम थी , यह तो जग - जाहिर है , मेरी कहानियाँ पसंद करते थे। उनका बहुत आग्रह था कि मैं लगातार लिखूँ। स्नेह से बात करते थे। वैचारिक बात - चीत करते थे। इसलिए उनसे मिलना अच्छा लगता था। आखिरी बार मिले तीन साल से ऊपर हो गए। शायद 2010 में इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में कविता पाठ था , तब मुलाकात हुई थी। या कि उसके भी दो साल पहले आई आई सी में रज़ा अवार्ड के कार्यक्रम में मिले थे। आखिरी सालों में उनके वक्तव्यों में वैचारिक संगति का अभाव दिखता था और तरह तरह के विवादों में ही उनका नाम सामने आता रहा। पर खास तौर पर नब्बे के दशक में ' हंस ' को हिंदी की प्रमुख पत्रिका बनाने में उनका विशाल योगदान था। कॉलेज के दिनों में ' सारा आकाश ' और बाद में कहानियाँ पढ़कर ही उन्हें जाना था। मेरे प्रिय रचनाकारों में स...

हादसा और उदारवादी उलझनें

जीवन में बड़े हादसे हुए हैं। औरों के हादसों की सूची देखें तो मुझसे लंबी ही होगी। फिर भी हर नया हादसा कुछ देर के लिए तो झकझोर ही जाता है। आमतौर पर अपनी मनस्थिति के साथ समझौता करने यानी अपनी थीरेपी के लिए ही मैं चिट्ठे लिखता हूँ। यह चिट्ठा खासतौर पर एक अपेक्षाकृत छोटे हादसे में घायल मनस्थिति से उबरने के खयाल सा लिख रहा हूँ। शनिवार को महज एक स्टॉप यानी पाँच मिनट से भी कम की इलेक्ट्रॉनिक सिटी से होसा रोड की बस यात्रा में मैं पॉकेटमारी का शिकार हुआ। आमतौर पर वॉलेट में अधिक पैसे होते नहीं। कार्ड भी एक दो ही होते हैं। संयोग से उस दिन तकरीबन साढ़े बारह हजार रुपए , एक क्रेडिट कार्ड , दो ए टी एम कार्ड , ड्राइविंग लाइसेंस और कुछ पासपोर्ट साइज़ फोटोग्राफ साथ थे। सब गए। मन के घायल होने की वजह सिर्फ पैसों का नुकसान नहीं है। बेंगलूरु में नया हूँ , कब तक ठहरना है , पता नहीं , इसलिए सारे कार्ड हैदराबाद के पते के थे। उनको दुबारा बनवाने की परेशानी है। पर जो बात सबसे ज्यादा परेशान करती है , वह है कि मैं खुद को मुआफ नहीं कर पा रहा। मैंने भाँप लिया था कि जो दो लोग मुझे गेट पर धकेल कर खड़े हैं...

उसकी कविता

मैं अकेला नहीं , सभी संवेदनशील लोग कह रहे हैं कि चीखों की तो आदत हो गई है। अपने हैदराबाद के छात्रों से महीने की मुलाकात के लिए आया हूँ। कल पूर्णिमा की रात मकान के पीछे जंगल में आधी रात के बाद कुछ युवा छात्र शोर मचा रहे थे , नींद टूट गई और दिल धड़कने लगा। देर तक शोर चीत्कार सुनता रहा औऱ शोर बंद होने के बाद भी जगा रहा। सोचकर बड़ी तकलीफ हुई कि ऐसी हर आवाज जिसे सुनकर खुश होना चाहिए कि सृष्टि में प्राण है , भय क्यों पैदा कर रही है। यह हमारा समय है। इसी बीच कुछ अच्छा देख सुन लें तो क्या बात। पिछले कुछ दिनों में नूराँ बहनों को सुना - सचमुच क्या बात जुगनी टुंगटुंग चन्न कित्थे गुजारी वे पंजाब के लोकगीत हमेशा से ही एक अपार ऊर्जा के स्रोत रहे हैं , पर जिस तरह नूराँ बहनों ने इसे दिखाया है वह कमाल का है। cokestudioindia पर उनका गाया अल्ला हू वह मजा नहीं देता जो उनके मेलों में गाए गीतों में है। हिंदी में इन दिनों फिर स्त्री रचनाकार और पुरुष व्यभिचार प्रसंग पर चर्चाएँ सरगर्म हैं। मैं अक्सर सोचता हूँ कि हम पुरुष इन चर्चाओं में किस हद तक गंभीर होते हैं और हम में कितन...

छात्रों की संस्था 'क्रांति'

बेंगलूरू की राष्ट्रीय लॉ यूनीवर्सिटी ( विधि शिक्षा वि . वि .) के कुछ छात्रों की पहल से बनी संस्था ' क्रांति ' ने पिछले एक हफ्ते में शहर में जैसे जान डाल दी। पिछले हफ्ते शनिवार को रवींद्र कलाक्षेत्र के मुक्त आकाशी प्रेक्षागृह में कबीर कला मंच और तमिलनाड के एक दलित संगीत ट्रुप का अद्भुत कार्यक्रम था। सबसे अच्छी बात यह थी कि बड़ी तादाद में युवा मौजूद थे और उन्होंने लगातार नाचते हुए ऐसा समां बाँधा कि मज़ा आ गया। पर दूसरे दिन रविवार को फिल्मों के आयोजन में उनकी अनुपस्थिति उतनी ही अखरती रही। आनंद पटवर्धन स्वयं मौजूद थे और अपनी सभी फिल्मों के टुकड़े दिखलाने के अलावा ' जय भीम कामरेड ' पूरी दिखला कर आनंद ने विस्तार से अपनी फिल्मों पर चर्चा की। आज ' प्रतिरोध सम्मेलन ' का आयोजन था और युवाओं की अनुपस्थिति खास तौर पर अखर रही थी। प्रफुल्ल सामंतरा , आनंद तेलतुंबड़े , वोल्गा , गौतम मोदी , मिहिर देसाई , पराणजॉय गुहाठाकुरता , जया मेहता के भाषण के बाद गोआ से आई संस्था ' स्पेस ' ने अभिनय पेश किए। मैं डेढ़ घंटे की बस यात्रा कर सिर्फ अपना साथ देने के लिए गया था। आजकल ...

सितंबरनामा

पिछले पोस्ट में ' पुरुष पर अगली पोस्ट में ' लिखते हुए दिमाग में क्या था अब याद नहीं। इस बीच भोपाल गया और वहाँ बड़े कवियों और अन्य साहित्य - प्रेमियों के बीच कविता पाठ का मौका मिला। सोचा था वहाँ जो स्नेह मिला उस पर लिखूँगा , पर इसके पहले कि लिख पाता , मुजफ्फरनगर के दंगों की खबरें आने लगीं। पता नहीं मैं कब उम्र की वह दहलीज़ पार कर चुका हूँ कि अब गुस्सा कम और रोना ही ज्यादा आता है। यहाँ मैं हूँ कि इस बात से परेशान हूँ कि तीन कमरों वाले मकान में मेरे कमरे के साथ जो गुसलखाना है वह ऐसे बना है कि दिनभर फर्श गीला ही रहता है और उधर नफ़रत के सौदागरों के शिकार बच्चों की दिल दहलाने वाली कथाएं हैं। जाने कब से यह अतियथार्थ हमारा सच बना हुआ है। हम जीते हैं पर कब तक जिएँगे , इस तरह कौन जीना चाहता है , इस तरह कौन जीना चाह सकता है। भोपाल में ' स्पंदन ' संस्था की ओर से कविताएँ पढ़ने का आयोजन था। आयोजन ' स्पंदन ' के निर्देशक उर्मिला शिरीष के सौजन्य से हुआ , पर मुझे पता है कि इसके पीछे राजेंद्र शर्मा का स्नेह था। युवा मित्र ईश्वर दोस्त ने उनसे कहा था और इस तरह बात आगे चली...