Thursday, December 26, 2013

जेंडर प्रसंग में एक बातचीत




एक रोचक बातचीत को समेट कर ढ़ंग से कुछ लिखना चाहता था, पर कर नहीं पाया। इसलिए जो बातें हुईं, उसी को थोड़े से संपादन के साथ फिलहाल पोस्ट कर रहा हूँ, ताकि किसी को कोई काम की बात लगे तो बढ़िया।
एक युवा कवि आलोचक साथी ने FB पर लिखा है -


'मैत्रेयी पुष्पा मेरी अत्यंत आदरणीय और प्रिय लेखिका हैं लेकिन उनके कल के बयान से, कि पुरुष हर हाल में सहमत होता है, मैं एकदम असहमत हूँ.


उनका बयान पढ़कर ऐसा लगता है कि हर पुरुष हर समय हर किसी के साथ यौन क्रिया में संलग्न होने के लिए तैयार बैठा रहता है. ठीक है, पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक और भोग्या में तब्दील करने की पूरी कोशिश की है. लेकिन इस क़दर सामान्यीकृत बयान को निजी अनुभवों भर से खारिज किया जा सकता है.


क्या आपने ऐसे पुरुष नहीं देखे जिन्होंने प्रेम प्रस्ताव ठुकराए हों? जिन्होंने सहज उपलब्ध अवसर का "उपयोग" करने से इनकार कर दिया हो? जिनकी एकांत संगत में भी महिला सहज रही हो? जो यौन पशु न हों?


स्त्रीवाद को लेकर मुझे हमेशा लगता है कि हिंदी साहित्य में इसका झंडा बुलंद करने वालों ने शायद इसका ककहरा भी ठीक से नहीं पढ़ा और वायवीय उग्र मर्द विरोध तथा उग्रतर शाब्दिक प्रहार के भरोसे चलने वाले इस कथित विमर्श का सबसे मजेदार पहलू यह है कि इसके अधिकतर नायक/नायिका सुखी-सफल-परिवारों के सफल एवं अनुकूलित सदस्य हैं.'
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इस पर निजी तौर पर भेजी मेरी टिप्पणी -
मैत्रेयी पुष्पा के बयान पर तुमने जो लिखा है, वह स्त्री-पुरुष के मौजूदा सामाजिक द्वंद्व को नहीं, मैत्रेयी पुष्पा को एक व्यक्ति विशेष की तरह देखते हुए लिखा है। क्या यह संभव है कि जिस प्रसंग में बात छिड़ी है, उसमें मैत्रेयी को हम सिर्फ एक व्यक्ति के रूप में देखें और 'स्त्री' की द्वंद्वात्मक अस्मिता को न देखें। साथ ही तुम कुछ 'स्त्रीवादियों' की बात कर रहे हो, यानी सामाजिकता को कुछेक सीमित संदर्भों में लाने की कोशिश कर रहे हो। सचमुच स्त्रीवादियों से क्या झगड़ा हो सकता है स्त्रीवाद एक लोकतांत्रिक और साम्य आधारित समाज के लिए संघर्ष है, जिसके विमर्ष में स्त्री-पुरुष के द्वंद्व को केंद्र में रखा जाता है।


हमलोग अपनी रेटरिक और पोलेमिक्स से न केवल आपस में एक दूसरे को चोट पहुँचाते रहते हैं, हम अक्सर उन लोगों को चोट पहुँचाते हैं, जिनको हम नितांत अपना देखना चाहते हैं।
इसी बात को समझ कर कुछ दशकों पहले हमलोग कहा करते थे कि समय आ गया है कि हम कहना शुरू करें 'Let us agree to disagree'.  पर स्थिति सुधरी नहीं है।


मैं लंबे समय से सोचता और कहता रहा हूँ कि स्त्री मुक्ति का सवाल स्त्री का कम और पुरुष मुक्ति का सवाल ज्यादा है। हम यह समझने की कोशिश कितनी करते हैं कि किसी प्रसंग पर राय बनाते हुए हम अपनी पुरुष अस्मिता से बरी नहीं होते।  मैत्रेयी के बयान पर नज़रिया और response यह भी हो सकता है - मैत्रेयी ने एक ज़रूरी बात पर ध्यान दिलाया है। स्त्री-पुरुष के मौजूदा सामाजिक द्वंद्व पर यह टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है। आपसी रिश्तों में औसतन स्त्री की अपेक्षा पुरुष की प्रतिबद्धता कम दिखती है। इससे संबंध तो टूटते ही हैं, लगातार तनाव और अवसाद का जीवन जीने के लिए दोनों मजबूर होते हैं। इसे समझे बिना किसी भी पुरुष की मुक्ति के संघर्ष की शुरूआत असंभव है।


 'औसतन' कहने से ही हम यह कह देते हैं कि अपवाद भी हैं। इतना अपने पुरुष अहं को संतुष्ट करने के लिए काफी होना चाहिेए।


बड़ा सवाल :
हम सामाजिक बदलाव चाहते हैं या यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हमें ही सारे सच मालूम हैं - इस पर गंभीरता से सोचना पड़ेगा। थोड़ा सा self-doubt और ढाई आखर प्रेम का साथ रख कर चलना वाम  का नारा होना चाहिए।


किसी भी संकट के रिश्ते में लोकतांत्रिक सोच और समझ के व्यक्ति को खुद को उस पक्ष में खड़े करने की कोशिश करनी चाहिए जो पीड़ित का पक्ष है।अक्सर लगता है कि हमने पीड़ितों के पक्ष में खड़े होना सही सही सीखा ही नहीं। अपनी पोलेमिक्स में हम बौद्धिक तलवारें भाँजते रहते हैं - इससे गले कटते नहीं; दोस्त कटते हैं।


हममें से हर कोई मार्क्स नहीं है, न ही हमसे थोड़ा पहुत मतभेद रखने वाले दोस्त प्रूधों हैं कि हम हर बातचीत अपनी 'वैज्ञानिक' कसौटी पर तौल कर ही करें (हाँ, 'वैज्ञानिक' कसौटियाँ भी अक्सर अपनी-अपनी होती हैं)


बहरहाल इसी बहाने मेरी तीन पुरानी कविताएँ -


अर्थ खोना ज़मीन का
मेरा है सिर्फ मेरा
सोचते सोचते उसे दे दिए
उँगलियों के नाखून
रोओं में बहती नदियाँ
स्तनों की थिरकन
उसके पैर मेरी नाभि पर थे
धीरे-धीरे पसलियों से फिसले
पिण्डलियों को मथा-परखा
और एक दिन छलाँग लगा चुके थे
सागर-महासागरों में तैर तैर
लौट लौट आते उसके पैर
मैं बिछ जाती
मेरा नाम सिर्फ ज़मीन था
मेरी सोच थी सिर्फ उसके मेरे होने की
एक दिन वह लेटा हुआ
बहुत बेखबर कि उसके बदन से है टपकता कीचड़
सिर्फ मैं देखती लगातार अपना 
कीचड़ बनना अर्थ खोना ज़मीन का.
(
हंस — 1998; मुक्तिबोध - 1998; 'लोग ही चुनेंगे रंग' (शिल्पायन 2010) में शामिल)

डरती हूँ

जब तुम बाहर से लौटते हो
और देख लेते हो एकबार फिर घर
जब तुम अन्दर से बाहर जाते हो
और खुली हवा से अधिक खुली होती तुम्हारी स्वास
अन्दर बाहर के किसी सतह पर होते जब
डरती हूँ
डरती हूँ जब अकेले होते हो
जब होते हो भीड़
जब होते हो बाप
जब होते हो पति आप
सबसे अधिक डरती हूँ
जब देखती तुम्हारी आँखो में
बढ़ते हुए डर का एक हिस्सा
मेरी अपनी तस्वीर.
(
हंस -  1998; 'लोग ही चुनेंगे रंग' (शिल्पायन 2010) में शामिल)
तीसरी कविता (शीर्षक 'उसकी कविता') पहले कभी पोस्ट कर चुका हूँ, इसलिए यहाँ नहीं डाल रहा।
साथी ने फिर इसका जवाब दिया -
'ज़ाहिर है कि मैं मैत्रेयी जी से असहमत था. इसे मैंने यथासंभव आदर और सम्मान के साथ ही दर्ज़ कराया. आगे एक कमेन्ट में भी लिखा कि नारीवाद से मेरा कोई झगडा नहीं, मैं उसका बहुत सम्मान करता हूँ और कई स्तर पर ख़ुद को उसके साथ पाता हूँ. सवाल यह है कि मैत्रेयी जी ने जो लिखा क्या वह स्त्रीवाद की कसौटी पर एक सही वक्तव्य है? दुर्भाग्य से नहीं. यह इस अराजक लेकिन सहज स्त्रीवाद की नारी बनाम पुरुष वाली मानसिकता से पैदा हुआ है जिसे अब अपनी चौथी लहर आते आते खुद नारीवाद तिरोहित कर चुका है.
कामना कोई पुरुषवाचक शब्द नहीं है, न ही सहमति कोई स्त्रीवाचक. मैत्रेयी जी ने तो खैर औसतन वाले कवच का उपयोग भी नहीं किया था, लेकिन मेरा मानना यह है कि अपवाद वे पुरुष हैं जो कभी भी, कहीं भी, किसी के साथ भी सेक्स के लिए तैयार होते हैं. यह एक मानसिक बीमारी है, विचलन है..सामान्य नियम नहीं और दुर्भाग्य से यह भी पुरुषवाचक नहीं.


उसी थ्रेड पर एक सहभागी ने कहा -


आगे यह बयान जो मैत्रेयी जी ने दिया है , उनका व्यक्तिगत मत है जो बहुत हद तक उनके व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित होगा। सम्भवतः उनके समय में अधिकाश मध्यवर्गी - सामंतवादी पुरुषों के लिए सत्य। परन्तु आज के समाज में यह बात ऐसे सामान्यीकरण के साथ नही कही जा सकती। 
दूसरी बात "हर समय सहमत होने" में भी कोई बुराई नही है। ।जब तक वह दूसरों कि सहमति/असहमति को स्थान देता रहे। हाँ जबर्दस्ती हर स्थिति में बुरी है। तो सहमत होना और जबर्दस्ती करने में फर्क है। इसलिए इसे इतने सरल तरीके से नही देखा जा सकता। 


जिसके भी जीवन में दैहिक सुख कि कमी होगी। वह अगर समाने वाले पर विश्वाश करता हो सहमत होगा। समझ नही आया इसमें गलत क्या है। शेष फिर कभी।
तो बात वहां नहीं है साथी, जहाँ से आप देख रहे हैं. विमर्श के नाम पर "कुछ भी" को बर्दाश्त करना, इस हद तक अपोलोजेटिक होना दूसरे विचलनों को जन्म देता है. दृढ़ता और सौजन्यता विरोधी शब्द नहीं हैं.'


फिर मैंने लिखा -


मेरे खयाल से 'स्त्रीवाद का ककहरा भी नहीं पढ़ा'  (अभी सामने नहीं है, पर ऐसा कुछ तुमने लिखा है)- ऐसी बातों से हमें बचना चाहिए।


 'नारी बनाम पुरुष वाली मानसिकता' वाला कोई सहज स्त्रीवाद कभी भी नहीं रहा। यह स्त्री-विरोधी प्रचार है कि ऐसा कुछ था।


 जैसा हर आंदोलन में होता है, कुछ लोग उग्रता से अपनी बात रखते हैं (ऐसा ही वह 'सहज स्त्रीवाद' रहा है, प्रखर अंदाज़ में 'पुरुष मानसिकता' के खिलाफ बात कहनी जो दूसरों को 'पुरुष विरोधी' लगती है)


स्त्रीवाद में बुनियादी स्तर पर विविधता नहीं, स्त्रीवादियों में संघर्ष के रास्ते और प्रमुख सवालों  के चुनाव की विविधताएँ रही हैं। किसी भी चरण पर स्त्रीवाद के बुनियादी सिद्धांतों में कभी कोई बदलाव नहीं आया। पहली लहर में ही सहमति के आधार पर यौन-संबंधों की छूट पर जोर था, बाद के चरणों में इस मुद्दे पर जोर कम हुआ और मेहनताना में बराबरी, नस्ल और वर्ग के सवाल, सुरक्षा के सवाल, इन पर जोर बढ़ा। बेटी फ्रीडन ने अस्सी के शुरूआती सालों में एक आलेख में पहले चरणों के खुलेपन पर सवाल उठाया। फायरस्टोन शुलामिथ ने स्त्रीवाद को द्वंद्वात्मक आधार देते हुए किताब लिखी। अमेरिका की काली औरतों और तीसरी दुनिया की औरतों ने यौन से इतर नस्ल और वर्ग संबंधी दूसरे सवालों को मुख्य मुद्दे बनाने का संघर्ष शुरू किया।


किसी साथी का जो कमेंट तुमने उद्धृत किया है, उसी से एक बात और - 'सम्भवतः उनके समय में अधिकाश मध्यवर्गी - सामंतवादी पुरुषों के लिए सत्य। परन्तु आज के समाज में यह बात ऐसे सामान्यीकरण के साथ नही कही जा सकती। '
क्या आज का मध्य-वर्ग सामंती नहीं है?


आगे साथी ने लिखा है कि 'समझ में नहीं आया'
उत्पीड़न की अभिव्यक्ति शब्दों में इस तरह हो जो हमेशा साफ-साफ समझ में आए, ऐसी 'तर्कशीलता' सच जानने में बाधा पैदा करती है। ऐसा बहुत कुछ है जो कहा नहीं जाता, इसलिए हम कुछ कह बैठते हैं जो 'विमर्श के नाम पर "कुछ भी" लगता है। मैंने अपनी पुरानी कविताएँ इसलिए साझा कीं कि शायद उनमें ऐसी कुछ बातों की ओर इशारा है।
मेरा सुझाव यह है कि इस "कुछ भी" लगती बातों को सहानुभूति से न केवल 'बर्दाश्त करना', बल्कि इससे भी आगे, उस "कुछ भी" में से 'कुछ' ढूँढना, इस प्रक्रिया को हमने अपनी सोच में पुख्ता नहीं किया है। 


बर्दाश्त करना अपोलोजेटिक होना नहीं है। बात तो बर्दाश्त करने से भी आगे की है।


 मुझे कुमार विकल की ये पंक्तियाँ बहुत पसंद हैं -
मार्क्स और लेनिन भी रोए थे, पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोए थे।


मैं इसको उलट कर पढ़ना चाहता हूँ - मार्क्स और लेनिन जब नहीं सोए थे, उसके पहले वे रोए थे।
रोना विचलन नहीं होता। यह हमारे आगे जागते रहने के लिए ज़रूरी है।


मैं मानता हूँ कि बातें जटिल हैं - यही कहना भी चाहता हूँ।




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