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ऐ वे मैं चोरी चोरी


करीब पंद्रह दिनों पहले मैंने नीचे के तीन पैरा लिखे थे। पोस्ट नहीं कर पाया था। उसके बाद एक-एक कर हिंदी के दो बड़े साहित्यकार गुजर गए। विजयदान देथा और ओमप्रकाश बाल्मीकि। और फिर मेरी प्रिय लेखिका डोरिस लेसिंग। मौत तो सबकी होनी है. ये सभी बड़ी उम्र में ही गुजरे, पर इनका जाना एक वर्तमान का इतिहास बन जाना है।

बापू साधारण मजदूर था। सरकारी गाड़ी चलाता था। कभी कभी दारू पीकर लौटता तो एक संदूक में पड़ी पोथियाँ निकालकर हमें हीर-राँझा, नल-दमयंती आदि गाकर सुनाता। हम उसे 'तुसीं' यानी आप कहते थे, पर माँ को 'तू' कहते थे। अब स्मृति में वह अपना ऐसा हिस्सा लगता है कि उसके लिए आप नहीं सोच पाता। बड़े होकर जाना था कि बापू के गाए कई गीत पंजाब के प्रसिद्ध लोकगीत हैं और इनके गानेवालों में जमला जट, आलम लोहार और रेशमा आदि हैं। विदेश में पढ़ते हुए एकबार न्यूयॉर्क के जैक्सन हाइट्स की दूकानों में हिंदुस्तानी संगीत के कैसेट ढूँढ रहा था तो किसी बुज़ुर्ग ने रेशमा का कैसेट पकड़ाया। अब भी मेरे पास है, पर अरसे से प्लेयर खराब है तो बजाया नहीं जाता। रेशमा को याद करना बापू को याद करना है, उससे सीखी पंजाबी भाषा को याद करना है।

तीनेक साल पहले जब कोक-स्टूडियो पाकिस्तान के गीतों को सुनने की खुशी में यू-ट्यूब से और संगीत ढूँढता रहा, तो मीशा सफी का गाया 'ऐ वे मैं चोरी चोरी' के कई गायन ढूँढ निकाले। तभी यू-ट्यूब पर ही रेशमा को लंदन के एक प्रोग्राम में यह गाते देखा। नम्रता के साथ यह कहते हुए कि लता बहन ने भी इसी सुर का गाना गाया, उसने पहले 'यारा सिल्ली सिल्ली' के दो लाइन सुनाए, फिर 'ऐ वे मैं चोरी चोरी'

तब से कई बार मुड़ मुड़ कर रेशमा के गीत यू-ट्यूब पर सुने और औरों को सुनाए। रेशमा को जाना तो था ही; अरसे से बीमार थी; सब को कभी न कभी जाना है ही। पर मुझे लगा जैसे कि एक बार फिर बापू की मौत हो गई। रेशमा अपनी पीढ़ी के उन गायकों में थी, जिन्होंने फ्यूज़न नहीं गाया - गाया हो तो मुझे नहीं मालूम। शायद लंबी बीमारी से वह इस फितूर में शामिल नहीं हो सकी। इसलिए उसका गाया खालिस पुराने किस्म का लोकगायन रह गया। और वह क्या खूब है, यह तो जो जानते हैं वे जानते हैं।

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