'हंस'
में मेरी
पाँच कहानियाँ और करीब पच्चीस
कविताएँ प्रकाशित हुई हैं,
अधिकतर नब्बे
के दशक में। उस ज़माने में जब
बहुत कम लोगों को जानता था,
चंडीगढ़ से
कहीं आते-जाते
हुए दिल्ली से गुजरते हुए एक
दो बार स्टेशन से ही पैदल चल
कर राजेंद्र यादव से मिला था।
कविताओं में उनकी रुचि कम थी,
यह तो जग-जाहिर
है, मेरी
कहानियाँ पसंद करते थे। उनका
बहुत आग्रह था कि मैं लगातार
लिखूँ। स्नेह से बात करते थे।
वैचारिक बात-चीत
करते थे। इसलिए उनसे मिलना
अच्छा लगता था। आखिरी बार मिले
तीन साल से ऊपर हो गए। शायद
2010 में
इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी
में कविता पाठ था, तब
मुलाकात हुई थी। या कि उसके
भी दो साल पहले आई आई सी में
रज़ा अवार्ड के कार्यक्रम
में मिले थे।
आखिरी
सालों में उनके वक्तव्यों
में वैचारिक संगति का अभाव
दिखता था और तरह तरह के विवादों
में ही उनका नाम सामने आता
रहा। पर खास तौर पर नब्बे के
दशक में 'हंस'
को हिंदी की
प्रमुख पत्रिका बनाने में
उनका विशाल योगदान था। कॉलेज
के दिनों में 'सारा
आकाश' और
बाद में कहानियाँ पढ़कर ही
उन्हें जाना था। मेरे प्रिय
रचनाकारों में से थे। हरि
नारायण जो बाद में 'कथादेश'
का संपादन
करने लगे और बीना उनियाल जैसे
वे लोग जिन्होंने लंबे अरसे
तक उनके साथ काम किया,
उन्हें कैसा
लग रहा होगा यही सोच रहा हूँ।
संजीव भी कई वर्षों तक उनके
साथ थे, उनके
संस्मरण सुनने का मन करता है।
शायद ये सभी साथी लिखेंगे और
हमलोग राजेंद्र जी के बारे
में और जानेंगे, और
बहसें करेंगे।
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