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उसकी कविता


मैं अकेला नहीं, सभी संवेदनशील लोग कह रहे हैं कि चीखों की तो आदत हो गई है। अपने हैदराबाद के छात्रों से महीने की मुलाकात के लिए आया हूँ। कल पूर्णिमा की रात मकान के पीछे जंगल में आधी रात के बाद कुछ युवा छात्र शोर मचा रहे थे, नींद टूट गई और दिल धड़कने लगा। देर तक शोर चीत्कार सुनता रहा औऱ शोर बंद होने के बाद भी जगा रहा। सोचकर बड़ी तकलीफ हुई कि ऐसी हर आवाज जिसे सुनकर खुश होना चाहिए कि सृष्टि में प्राण है, भय क्यों पैदा कर रही है। यह हमारा समय है।

इसी बीच कुछ अच्छा देख सुन लें तो क्या बात। पिछले कुछ दिनों में नूराँ बहनों को सुना - सचमुच क्या बात




पंजाब के लोकगीत हमेशा से ही एक अपार ऊर्जा के स्रोत रहे हैं, पर जिस तरह नूराँ बहनों ने इसे दिखाया है वह कमाल का है। cokestudioindia पर उनका गाया अल्ला हू वह मजा नहीं देता जो उनके मेलों में गाए गीतों में है।


हिंदी में इन दिनों फिर स्त्री रचनाकार और पुरुष व्यभिचार प्रसंग पर चर्चाएँ सरगर्म हैं। मैं अक्सर सोचता हूँ कि हम पुरुष इन चर्चाओं में किस हद तक गंभीर होते हैं और हम में कितना सिर्फ चटखारे लेने वाला कोई शख्स काम कर रहा होता है। मेरी एक पुरानी कविता पेस्ट कर रहा हूँ जो उन दिनों जब 'हंस' में ठीक ठाक कविताएँ भी आती थीं, तब छपी थी।



उसकी कविता


उसकी कविता में है प्यार पागलपन विद्रोह
देह जुगुप्सा अध्यात्म की खिचड़ी के आरोह अवरोह


उसकी हूँ मैं उसका घर मेरा घर
मेरे घर में जमा होते उसके साथी कविवर
मैं चाय बनाती वे पीते हैं उसकी कविता
रसोई से सुनती हूँ छिटपुट शब्द वाह-वाह


वक्ष गहन वेदांत के श्लोक
अग्निगिरि काँपते किसी और कवि से उधार
आगे नितंब अथाह थल-नभ एकाकार
और भी आगे और-और अनहद परंपार


पकौड़ों का बेसन हाथों में लिपटे होती हूँ जब चलती शराब
शब्दों में खुलता शरीर उसकी कविता का बनता है ख़्वाब


समय समय पर बदलती कविता, बदलता वर्ण, मुक्त है वह
वैसे भी मुझे क्या, मैं रह गई जो मौलिक वही एक, गृहिणी


गृहिणी, तुम्हारे बाल पकने लगे हैं
अब तुम भी नहीं जानती कि कभी कभार तुम रोती हो
उसकी कविता के लिए होती हो नफ़रत
जब कभी प्यार तुम होती हो।



(हंस 1997; 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' में संकलित)) 

Comments

Niraj Pal said…
इस पोस्ट की चर्चा आज सोमवार, दिनांक : 21/10/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -31पर.
आप भी पधारें, सादर ....नीरज पाल।

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