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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Tuesday, February 02, 2016

मुझे दिखते बादल मटमैले


संवाद

मुझे दिखते बादल मटमैले

आप कहते हैं कि अब तूफान नहीं आएगा

मैं देखता हूँ कि हवा थमी ही नहीं


आप विरक्त हैं

आपके अंदाज़ में दया है

मेरे पास दो रास्ते हैं

एक कोना है जहाँ मैं सिमट सकता हूँ

दूसरा यह कि मैं आप की आँखों की सर्जरी करूँ

कि वे देख सकें जो चारों ओर है


आप समझाते हैं

कि मुझे बैठ जाना चाहिए

नहीं देखना चाहिए जो दिखता है


मैं कोने में सिमटने से पहले

उछलना चाहता हूँ

आप हैं जितने शिथिल

टाँगें बेजान, मुट्ठियाँ बंद

मेरा शरीर उतना ही है बेचैन

मुझे बदली में दिखती है धूप

हवा के कण परस्पर दूर भागते

दीवारें पारदर्शी

प्रकाश के साथ ताप का एहसास
 
ज़मीं से आस्मां तक धधकती फिजां

आप को लगता है कि

इन दिनों धरती रहने लायक नहीं रही

मैं धरती को चूमता हूँ

उन्मत्त नहीं, सधे ताल पर नाचता हूँ।      (वागर्थ 2016) 

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1 Comments:

Blogger  डॉ. मोनिका शर्मा said...

बेहतरीन कविता

1:58 PM, February 02, 2016  

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