Tuesday, October 27, 2015

शिथिल सफेद तारे धीमे चलते रहे


सेरा टीसडेल फिर फिर -

Summer Night, Riverside

In the wild soft summer darkness 
How many and many a night we two together 
Sat in the park and watched the Hudson 
Wearing her lights like golden spangles 
Glinting on black satin. 
The rail along the curving pathway 
Was low in a happy place to let us cross, 
And down the hill a tree that dripped with bloom 
Sheltered us, 
While your kisses and the flowers, 
Falling, falling, Tangled in my hair.... 


The frail white stars moved slowly over the sky. 


And now, far off 
In the fragrant darkness 
The tree is tremulous again with bloom 
For June comes back. 


To-night what girl 
Dreamily before her mirror shakes from her hair 
This year’s blossoms, clinging to its coils?
नदी के तट पर, बसंत की शाम


ग़र्मियों के पागल मुलायम अँधेरे में
कितनी रातें
तट पर बाग़ में बैठ
रोशनियों को काले साटन पर झिलमिलाते चमकियों सा पहनी नदिया को 
हम दोनों साथ देखा किए।
मुड़ती पगडंडी पर उस ख़ुश जगह जंगले की छड़ नीचे
झुकी थी कि हम अंदर घुस जाएँ 
और ढलान पार उस पेड़ ने जो फूलों से लदा था हमें पनाह दी,
तुम्हारे बोसे और फूलों की बौछारें मेरे बालों में फँसती रहीं...


आस्मां में शिथिल सफेद तारे धीमे चलते रहे।


अब दूर खुशबू भरे अँधेरे में
फूलों से लदा पेड़ फिर काँप रहा है कि
बसंत वापस आ रहा है।


कौन है यह लड़की जो आज की रात
आईने के सामने अपनी ज़ुल्फों में फँसे
इस साल के फूलों को झटक कर गिरा रही है?



I Love You



When April bends above me
And finds me fast asleep,
Dust need not keep the secret
A live heart died to keep.


When April tells the thrushes,
The meadow-larks will know,
And pipe the three words lightly
To all the winds that blow.


Above his roof the swallows,
In notes like far-blown rain,
Will tell the little sparrow
Beside his window-pane.


O sparrow, little sparrow,
When I am fast asleep,
Then tell my love the secret
That I have died to keep.

तुमसे प्यार है
जब बसंत मुझ पर झुक कर देखे
कि मैं हूँ गहरी नींद में खोई,
ज़िंदा दिल जो छिपाए रख गुज़र गया
क्यों न उजागर करे ख़ाक कोई ।


जब बसंत तूतियों से कह देगा,
फिर बुलबुलों से भला क्या छिपना,
मद्धिम सुर में गाएँगी जो वे लफ्ज़
सुनते हुए हवाओं को उनको बहना।


अबाबीलें उसकी छत के ऊपर 
दूर कहीं बरसात की धुन में,
उसकी खिड़की के शीशे के पास
कहेंगी छोटी गौरैया के मन में।


ऐ गौरैया,ऐ नन्ही गौरैया,
मैं अब गहरी नींद में जब हूँ,
जो बात छिपाती मैं चली आई,
मेरे प्रिय से जा कह दे तू।            (सदानीरा 2015)


Monday, October 19, 2015

अक्स खुली हवा चाहता है


कोई लकीर सच नहीं होती



कोई कहे कि आईने में शक्ल तुम्हारे दुश्मन की है, तो क्या मान लूँ?

अक्स खुली हवा चाहता है। उसके जीवन में हैं प्रेम और दुःख जिनको वह भोगता है अकेले क्षणों में।



लकीरें बनाई जाती हैं जैसे बनाए जाते हैं बम हथियार।

कुकुरमुत्ता बादलों की तरह वे उगती हैं प्यार के खिलाफ।

हम पढ़ते हैं मनुष्य के खूंखार जानवर बनने की कथाएं। बनते हैं इतिहास जो हम बनना नहीं चाहते।

इसलिए उठो ऐ शरीफ इंसानों। अँधेरे आकाश में चमक रहा नक्षत्र अरुंधती। उठो कि मतवालों की टोली में जगह बनानी है।



अक्स खुली हवा चाहता है।
                                                             (जलसा -4: 2015)

Sunday, October 18, 2015

पहले तो जीवन है


नफ़रत की संस्कृति का विरोध ज़िंदगी की पहचान है 

- अखबार में आखिरी पैरा नहीं आया है।



देश भर में तकरीबन पचीस साहित्यकारों ने अपने अर्जित पुरस्कार लौटाते हुए मौजूदा हालात पर अपनी चिंता दिखलाई है। जब सबसे पहले हिंदी के कथाकार उदय प्रकाश ने पुरस्कार लौटाया तो यह चर्चा शुरू हुई कि इसका क्या मतलब है। क्या एक लेखक महज सुर्खियों में रहने के लिए ऐसा कर रहा है। और दीगर पेशों की तरह अदब की दुनिया में भी तरह-तरह की स्पर्धा और ईर्ष्या हैं। इसलिए हर तरह के कयास सामने आ रहे थे। उस वक्त भी ऐसा लगता था कि अगर देश के सभी रचनाकार सामूहिक रूप से कोई वक्तव्य दें तो उसका कोई मतलब बन सकता है, पर अकेले एक लेखक के ऐसा करने का कोई खास तात्पर्य नहीं है। अब जब इतने लोगों ने पुरस्कार लौटाए हैं, यह चर्चा तो रुकी नहीं है कि सचमुच ऐसे विरोध से कुछ निकला है या नहीं, पर साहित्यकारों को अपने मकसद में इतनी कामयाबी तो मिली है कि केंद्रीय संस्कृति मंत्री सार्वजनिक रूप से अपनी बौखलाहट दिखला गए। तो क्या ये अदीब बस इतना भर चाहते थे या इसके पीछे कोई और भी बात है।



आम तौर पर कई अच्छे रचनाकार सीधे-सीधे ऐसा कोई कदम लेने से कतराते हैं जिसमें सियासत की बू आती हो। खास तौर पर साहित्य अकादमी जैसी संस्था को जो स्वायत्तता मिली हुई है, उसे बनाए रखना और राजनीति से उसे दूर रखना ज़रूरी है। पर सियासत की जैसी समझ अदब की दुनिया के लोगों को होती है, वैसी आम लोगों में नहीं होती। सियासत में उतार-चढ़ाव से इंसानी रिश्तों में कैसे फेरबदल आते हैं, इसकी समझ किसी भी अच्छी साहित्यिक कृति को पढ़ने से मिल सकती है। यहाँ तक कि प्राचीन महाकाव्यों में भी यही खासीयत होती थी कि उनमें समकालीन सियासी दाँव-पेंच के बीच पिसते इंसानियत की तस्वीर होती थी। महाभारत को तो इसका आदर्श माना जा सकता है। इसलिए जब इतने सारे अदीब एक साथ ऐसा कदम ले रहे हैं तो वह महज सुर्खियों में रहने के लिए उठाया गया कदम नहीं है। जब रवींद्रनाथ ठाकुर ने नाइट की उपाधि वापस कर दी थी तो वह एक ऐतिहासिक कदम था। कुछ ऐसा ही आज के साहित्यकार कर रहे हैं। कोई कह सकता है कि रवींद्र तो जालियाँवाला बाग हत्याकांड के विरोध में ऐसा कर रहे थे। क्या ऐसा कुछ हुआ है जिसे उस हत्याकांड के बराबर माना जा सकता है? यह वाजिब सवाल है और इसका जवाब यह है कि हाँ, आज ऐसा ही एक ऐतिहासिक समय है। मुजफ्फरनगर से लेकर दादरी तक हमारे सामने एक के बाद एक भयंकर घटनाएँ होती जा रही हैं। चुनावों में बुनियादी समस्याओं की जगह इस पर बात होती है कि आप का खान-पान क्या है। राजनैतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं में भाषा से लेकर व्यवहार के हर पहलू में हिंसा बढ़ती जा रही है। अदीब इस बात को समझ रहे हैं कि उनकी ऐतिहासिक भूमिका है कि वे इस देश को तबाह होने से बचाएँ।



एक सामान्य किसान या कामगार को भड़काना आसान होता है। देश, धर्म, जाति आदि कई हथियार हैं जिनसे एक आम आदमी को उसके शांत सामान्य जीवन से भटकाकर उसे हत्यारी संस्कृति में धकेल देना संभव है। ऐसा होता रहा है। जब तक यह सीमित स्तर तक होता है, उदारवादी लोग इसे दूर से देखते हैं और कुछ कह सुनकर बैठ जाते हैं। हमारे ज्यादातर लेखक कवि ऐसे ही हैं। पर जब बात यहाँ तक आ जाती है कि आस-पास समूची इंसानियत खतरे में दिखती हो तो यह लाजिम है कि साहित्यकारों को सोचना पड़े। सही है, 1984 में सब ने पुरस्कार नहीं लौटाए, 2002 में भी नहीं लौटाए। यह पुरस्कृत रचनाकारों की सीमा थी। शायद तब इतना साहस नहीं था जितना आज वे दिखला पा रहे हैं। यह भी है कि इनमें से अधिकतर को तब पुरस्कार मिले नहीं थे। वे इसे अलग-अलग तर्क देकर ठीक ठहराते होंगे। पर ये बातें कोई मायना नहीं रखतीं। आज सांप्रदायिक ताकतों का राक्षस हर अमनपसंद इंसान को निगलता आ रहा है। ऐसे में हमारे अदीब उठ खड़े हुए हैं और उन्होंने अपनी ऐतिहासिक भूमिका को समझा है, यह महत्वपूर्ण बात है।



जो लोग भाजपा के समर्थक हैं या जो संघ परिवार की गतिविधियों को देश के हित में मानते हैं, उन्हें तकलीफ होती है कि उनके विरोध में इतनी आवाजें उठ रही हैं। कल्पना करें कि अफ्रीका के किसी मुल्क में बिना किसी तख्तापलट के देश के गृह मंत्री को अल्पसंख्यकों का कत्लेआम करवाने के लिए सज़ा--मौत हो जाती है। ऊपर की अदालत इसे आजीवन कारावास में बदल देता है और देश की सरकार कुछ वक्त तक अपने ही मंत्री को मृत्युदंड देने के लिए अदालत में पैरवी करती है। इस सरकार के साथ काम कर रहे पुलिस प्रमुख और दीगर अधिकारियों को फर्जी मुठभेड़ों के लिए कई सालों की कैद होती है। हमारी नस्लवादी सोच के लोग यही कहेंगे कि अरे ये अफ्रीकी ऐसे ही होते हैं, साले मारकाट करते रहते हैं। यही बात जब आज़ादी के बाद पहली बार हमारे देश में एक राज्य की सरकार के साथ होता है, और हमें इससे ज्यादा परेशानी नहीं होती तो यह गहरी चिंता की बात है। उल्टे सांप्रदायिक नफ़रत की संस्कृति बढ़ती चली है। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि देश की सारी समस्याएँ अल्पसंख्यकों की वजह से हैं, जो कुल जनसंख्या का पाँचवाँ हिस्सा हैं। विज्ञान और तर्कशीलता से दूर पोंगापंथी सोच को लगातार बढ़ाया जा रहा है। रचनाकारों का विरोध संघ परिवार के साथ जुड़े काडर को और आम लोगों को यह सोचने को मजबूर करेगा कि क्या वे सही रास्ते पर हैं।



आज़ादी के बाद पहली बार हम ऐसी स्थिति में हैं कि पाकिस्तान जैसे ग़लत माने जाने वाली विचारधारा के मुल्क के लोग खुद को हमारे नागरिकों से बेहतर मान सकते हैं। न केवल दानिशमंद अदीबों की हत्याएँ हुई हैं, महज इस अफवाह पर कि एक जानवर को मारा गया है, एक इंसान का कत्ल हुआ। बेशक गाय महज जानवर नहीं है, इसके साथ आस्थाएँ जुड़ी हुई हैं, पर जब भीड़ कानून को अपने हाथ ले लेती है और यह आम बात बनती जा रही है तो सोचना लाजिम है कि हम कहाँ जा रहे हैं। ऐसी घटनाओं पर जो भी कारवाई हो रही है, उस पर किसी को यकीन नहीं है। सरकार पर आम आदमी का कोई भरोसा नहीं रह गया है। ऐसे में अगर पढ़ने लिखने वाले लोग विरोध के तरीके न ढूँढें तो कोई उन्हें ज़िंदा कैसे कहे! सृजन बाद में आता है, पहले तो जीवन है। नफ़रत और हत्या की संस्कृति का विरोध ज़िंदगी की पहचान है। इसलिए हमारे अदीब विरोध में सामने आ रहे हैं। 1905 में बंगभंग के विरोध में रवींद्रनाथ साथी रचनाकारों के साथ सड़क पर उतर आए थे। बंगाल की अखंडता को लेकर तब उन्होंने कविताएँ और गीत लिखे थे जो आज तक पढ़े गाए जाते हैं। आज वक्त है कि हमारे कवि लेखकों को सड़क पर उतरना होगा। लोगों तक संवेदना के जरिए यह पैगाम ले जाना होगा कि इंसानियत को बचाए रखना है। विविधताओं भरी हमारी साझी विरासत को बचाए रखना है। तर्कशील तरक्कीपसंद भारत को बचाए रखना है।




Friday, October 16, 2015

जो भी पास है दे दो

जो मारे गए

क्या वे चुप हो गए हैं?


नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं

पत्तों फूलों में गा रहे हैं

देखो, हर ओर उल्लास है। 


 और और और सेरा टीसडेल -

The Kiss

Before you kissed me only winds of heaven
Had kissed me, and the tenderness of rain—
Now you have come, how can I care for kisses
Like theirs again?

I sought the sea, she sent her winds to meet me,
They surged about me singing of the south—
I turned my head away to keep still holy
Your kiss upon my mouth.

And swift sweet rains of shining April weather
Found not my lips where living kisses are;
I bowed my head lest they put out my glory
As rain puts out a star.

I am my love’s and he is mine forever,
Sealed with a seal and safe forevermore—
Think you that I could let a beggar enter
Where a king stood before?


बोसा

 
चूमा तुमने मुझे
पेशतर इसके
सिर्फ जन्नत की हवाओं और बारिश की नाज़ुकी ने मुझे चूमा था,
अब जो आ गए हो तुम,उनके बोसों की मुझे क्या परवाह?

मैंने समंदर को तलाशा,उसने अपनी हवाएँ मेरी ओर भेज दीं,
वे दक्खिन के गीत गाती उमड़ती रहीं चारों ओर मेरे -
मैंने माथा घुमा लिया कि तुम्हारे
चुंबन की पवित्रता बनी रहे थिर होंठों पर मेरे।

अप्रैल के चौंधियाते मौसम की मीठी बौछारों को
नहीं मिल पाए मेरे होंठ
जहाँ मौजूद हैं अब तक ज़िंदा बोसे;
मैंने सिर झुका लिया कि वे मेरी दमक बुझा न दें
जैसे बारिश में बुझ जाते हैं तारे।

मैं अपने प्रिय की हूँ और वह सदा के लिए मेरा है,
मुहरबंद और सुरक्षित हमेशा मेरा -
जहाँ राजा बैठा था वहाँ कैसे सोचते हो तुम
आने दूँ भिखमंगे को मैं?
 

Barter

Life has loveliness to sell,
All beautiful and splendid things,
Blue waves whitened on a cliff,
Soaring fire that sways and sings,
And childrens’s faces looking up
Holding wonder in a cup.

Life has loveliness to sell,
Music like a curve of gold,
Scent of pine trees in the rain,
Eyes that love you, arms that hold,
And for your spirit’s still delight,
Holy thoughts that star the night.


Spend all you have for loveliness,
Buy it and never count the cost;
For one white singing hour of peace
Count many a year of strife well lost,
And for a breath of ecstacy
Give all you have been, or could be.

लेनदेन

ज़िंदगी के पास देने को प्यारी चीज़ें हैं
चीज़ें ख़ूबसूरत और लाजवाब ,
चट्टान से टकराती सफेद होतीं नीली लहरें,
गाती-बलखाती धधकती आग,
और प्यालों में अचंभे थामे
ऊपर को झाँकते बच्चों के चेहरे।

ज़िंदगी के पास देने को प्यारी चीज़ें हैं
संगीत सोने जैसा बलखाता,
बारिश में देवदार की गंध,
निगाहें प्यार में डूबी, बाँहें जोे थाम लेती हैं,
और आत्मा की स्थाई ख़ुशी की ख़ातिर,
पवित्र खयाल जो सजाते हैं रात।

जो भी पास है दे दो और रमणीयता ले लो,
जिस भी मोल मिलती हो;
कई सारे कलह भरे जीवन से बेहतर है,
सुकूँ भरे संगीत का वह लम्हा भी,
भूल जाओ जो भी तुम हो या हो सकते,
पल भर उल्लास का जी लो।           - (सदानीरा - 2015)