नफ़रत
की संस्कृति का विरोध ज़िंदगी
की पहचान है
(18 अक्तूबर 2015 के 'दैनिक भास्कर' के 'रसरंग' पंजाब-चंडीगढ़ संस्करण और 22 अक्तूबर 2015 को रविवार वेब मैगज़ीन में प्रकाशित)
- अखबार में आखिरी पैरा नहीं आया है।
देश
भर में तकरीबन पचीस साहित्यकारों
ने अपने अर्जित पुरस्कार
लौटाते हुए मौजूदा हालात पर
अपनी चिंता दिखलाई है। जब सबसे
पहले हिंदी के कथाकार उदय
प्रकाश ने पुरस्कार लौटाया
तो यह चर्चा शुरू हुई कि इसका
क्या मतलब है। क्या एक लेखक
महज सुर्खियों में रहने के
लिए ऐसा कर रहा है। और दीगर
पेशों की तरह अदब की दुनिया
में भी तरह-तरह
की स्पर्धा और ईर्ष्या हैं।
इसलिए हर तरह के कयास सामने
आ रहे थे। उस वक्त भी ऐसा लगता
था कि अगर देश के सभी रचनाकार
सामूहिक रूप से कोई वक्तव्य
दें तो उसका कोई मतलब बन सकता
है, पर
अकेले एक लेखक के ऐसा करने का
कोई खास तात्पर्य नहीं है।
अब जब इतने लोगों ने पुरस्कार
लौटाए हैं,
यह चर्चा
तो रुकी नहीं है कि सचमुच ऐसे
विरोध से कुछ निकला है या नहीं,
पर
साहित्यकारों को अपने मकसद
में इतनी कामयाबी तो मिली है
कि केंद्रीय संस्कृति मंत्री
सार्वजनिक रूप से अपनी बौखलाहट
दिखला गए। तो क्या ये अदीब बस
इतना भर चाहते थे या इसके पीछे
कोई और भी बात है।
आम
तौर पर कई अच्छे रचनाकार
सीधे-सीधे
ऐसा कोई कदम लेने से कतराते
हैं जिसमें सियासत की बू आती
हो। खास तौर पर साहित्य अकादमी
जैसी संस्था को जो स्वायत्तता
मिली हुई है,
उसे
बनाए रखना और राजनीति से उसे
दूर रखना ज़रूरी है। पर सियासत
की जैसी समझ अदब की दुनिया के
लोगों को होती है,
वैसी
आम लोगों में नहीं होती। सियासत
में उतार-चढ़ाव
से इंसानी रिश्तों में कैसे
फेरबदल आते हैं,
इसकी
समझ किसी भी अच्छी साहित्यिक
कृति को पढ़ने से मिल सकती है।
यहाँ तक कि प्राचीन महाकाव्यों
में भी यही खासीयत होती थी कि
उनमें समकालीन सियासी दाँव-पेंच
के बीच पिसते इंसानियत की
तस्वीर होती थी। महाभारत को
तो इसका आदर्श माना जा सकता
है। इसलिए जब इतने सारे अदीब
एक साथ ऐसा कदम ले रहे हैं तो
वह महज सुर्खियों में रहने
के लिए उठाया गया कदम नहीं है।
जब रवींद्रनाथ ठाकुर ने नाइट
की उपाधि वापस कर दी थी तो वह
एक ऐतिहासिक कदम था। कुछ ऐसा
ही आज के साहित्यकार कर रहे
हैं। कोई कह सकता है कि रवींद्र
तो जालियाँवाला बाग हत्याकांड
के विरोध में ऐसा कर रहे थे।
क्या ऐसा कुछ हुआ है जिसे उस
हत्याकांड के बराबर माना जा
सकता है? यह
वाजिब सवाल है और इसका जवाब
यह है कि हाँ,
आज ऐसा
ही एक ऐतिहासिक समय है। मुजफ्फरनगर
से लेकर दादरी तक हमारे सामने
एक के बाद एक भयंकर घटनाएँ
होती जा रही हैं। चुनावों में
बुनियादी समस्याओं की जगह इस
पर बात होती है कि आप का खान-पान
क्या है। राजनैतिक नेताओं और
कार्यकर्ताओं में भाषा से
लेकर व्यवहार के हर पहलू में
हिंसा बढ़ती जा रही है। अदीब
इस बात को समझ रहे हैं कि उनकी
ऐतिहासिक भूमिका है कि वे इस
देश को तबाह होने से बचाएँ।
एक
सामान्य किसान या कामगार को
भड़काना आसान होता है। देश,
धर्म,
जाति
आदि कई हथियार हैं जिनसे एक
आम आदमी को उसके शांत सामान्य
जीवन से भटकाकर उसे हत्यारी
संस्कृति में धकेल देना संभव
है। ऐसा होता रहा है। जब तक यह
सीमित स्तर तक होता है,
उदारवादी
लोग इसे दूर से देखते हैं और
कुछ कह सुनकर बैठ जाते हैं।
हमारे ज्यादातर लेखक कवि ऐसे
ही हैं। पर जब बात यहाँ तक आ
जाती है कि आस-पास
समूची इंसानियत खतरे में दिखती
हो तो यह लाजिम है कि साहित्यकारों
को सोचना पड़े। सही है,
1984 में
सब ने पुरस्कार नहीं लौटाए,
2002 में
भी नहीं लौटाए। यह पुरस्कृत
रचनाकारों की सीमा थी। शायद
तब इतना साहस नहीं था जितना
आज वे दिखला पा रहे हैं। यह भी
है कि इनमें से अधिकतर को तब
पुरस्कार मिले नहीं थे। वे
इसे अलग-अलग
तर्क देकर ठीक ठहराते होंगे।
पर ये बातें कोई मायना नहीं
रखतीं। आज सांप्रदायिक ताकतों
का राक्षस हर अमनपसंद इंसान
को निगलता आ रहा है। ऐसे में
हमारे अदीब उठ खड़े हुए हैं और
उन्होंने अपनी ऐतिहासिक भूमिका
को समझा है,
यह
महत्वपूर्ण बात है।
जो
लोग भाजपा के समर्थक हैं या
जो संघ परिवार की गतिविधियों
को देश के हित में मानते हैं,
उन्हें
तकलीफ होती है कि उनके विरोध
में इतनी आवाजें उठ रही हैं।
कल्पना करें कि अफ्रीका के
किसी मुल्क में बिना किसी
तख्तापलट के देश के गृह मंत्री
को अल्पसंख्यकों का कत्लेआम
करवाने के लिए सज़ा-ए-मौत
हो जाती है। ऊपर की अदालत इसे
आजीवन कारावास में बदल देता
है और देश की सरकार कुछ वक्त
तक अपने ही मंत्री को मृत्युदंड
देने के लिए अदालत में पैरवी
करती है। इस सरकार के साथ काम
कर रहे पुलिस प्रमुख और दीगर
अधिकारियों को फर्जी मुठभेड़ों
के लिए कई सालों की कैद होती
है। हमारी नस्लवादी सोच के
लोग यही कहेंगे कि अरे ये
अफ्रीकी ऐसे ही होते हैं,
साले
मारकाट करते रहते हैं। यही
बात जब आज़ादी के बाद पहली बार
हमारे देश में एक राज्य की
सरकार के साथ होता है,
और हमें
इससे ज्यादा परेशानी नहीं
होती तो यह गहरी चिंता की बात
है। उल्टे सांप्रदायिक नफ़रत
की संस्कृति बढ़ती चली है। ऐसा
माहौल बनाया जा रहा है कि देश
की सारी समस्याएँ अल्पसंख्यकों
की वजह से हैं,
जो कुल
जनसंख्या का पाँचवाँ हिस्सा
हैं। विज्ञान और तर्कशीलता
से दूर पोंगापंथी सोच को लगातार
बढ़ाया जा रहा है। रचनाकारों
का विरोध संघ परिवार के साथ
जुड़े काडर को और आम लोगों को
यह सोचने को मजबूर करेगा कि
क्या वे सही रास्ते पर हैं।
आज़ादी
के बाद पहली बार हम ऐसी स्थिति
में हैं कि पाकिस्तान जैसे
ग़लत माने जाने वाली विचारधारा
के मुल्क के लोग खुद को हमारे
नागरिकों से बेहतर मान सकते
हैं। न केवल दानिशमंद अदीबों
की हत्याएँ हुई हैं,
महज इस
अफवाह पर कि एक जानवर को मारा
गया है, एक
इंसान का कत्ल हुआ। बेशक गाय
महज जानवर नहीं है,
इसके
साथ आस्थाएँ जुड़ी हुई हैं,
पर जब
भीड़ कानून को अपने हाथ ले लेती
है और यह आम बात बनती जा रही
है तो सोचना लाजिम है कि हम
कहाँ जा रहे हैं। ऐसी घटनाओं
पर जो भी कारवाई हो रही है,
उस पर
किसी को यकीन नहीं है। सरकार
पर आम आदमी का कोई भरोसा नहीं
रह गया है। ऐसे में अगर पढ़ने
लिखने वाले लोग विरोध के तरीके
न ढूँढें तो कोई उन्हें ज़िंदा
कैसे कहे!
सृजन
बाद में आता है,
पहले
तो जीवन है। नफ़रत और हत्या की
संस्कृति का विरोध ज़िंदगी
की पहचान है। इसलिए हमारे अदीब
विरोध में सामने आ रहे हैं।
1905 में
बंगभंग के विरोध में रवींद्रनाथ
साथी रचनाकारों के साथ सड़क
पर उतर आए थे। बंगाल की अखंडता
को लेकर तब उन्होंने कविताएँ
और गीत लिखे थे जो आज तक पढ़े
गाए जाते हैं। आज वक्त है कि
हमारे कवि लेखकों को सड़क पर
उतरना होगा। लोगों तक संवेदना
के जरिए यह पैगाम ले जाना होगा
कि इंसानियत को बचाए रखना है।
विविधताओं भरी हमारी साझी
विरासत को बचाए रखना है। तर्कशील
तरक्कीपसंद भारत को बचाए रखना
है।
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