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हम मिट्ठू का साथ देंगे कब

विज्ञान की बात हो तो आशंकाएँ साथ चलती हैं। मैंने चार दिन पहले श्री अणु 
कविता पोस्ट की तो  Pragnya Joshi ने फेबु पर लिखा - 'और उस 
परमाणु के विस्फोट में बिखर जाती लाखों हड्डियां ...'
इसलिए 'भैया ज़िंदाबाद' से ही यह एक और कविता पोस्ट कर रहा हूँ,  
जिसमें आधुनिक सभ्यता पर सवाल है। यह शायद बीस साल पहले 'चकमक' 
में आई थी और दिल्ली से प्रकाशित आठवीं की एक पाठ्य-पुस्तक में भी 
शामिल हुई।

 
मिट्ठू

मिट्ठू अब पेड़ों पर कम

तस्वीरों में अधिक दिखता है

अधकटे पेड़

नंगे पहाड़

सूखी ज़मीन

तस्वीरों के मिट्ठू जैसे बेजान हैं

ये हमेशा ऐसे तो न थे!


जहरीली गैसें

गंदगी सड़कों नालों की

नदियों में रासायनिक विष

आज हर ओर

कहाँ गए जंगल

साफ हवा-पानी

किस सभ्यता में खो गए

मिट्ठू और हमारे सरल जीवन!


मिट्ठू तंग आ गया है

पहाड़ों की नंगी दीवारें
 
बचे-खुचे पेड़

चाहते हैं, हम पूछें

हम सोचें

हम मिट्ठू का साथ देंगे कब?

Comments

वर्षा said…
कागज पर सबसे आसान होता है मिठ्ठू की तस्वीर बनाना। इस सरल जीव को बचाना कितना दुश्कर हो गया है। जिम्मेदार हम सब हैं कहीं न कहीं।

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