Skip to main content

कम सही ताकत भर उठाओ मुट्ठियाँ


आखिर सेमेस्टर के कोर्स खत्म हुए। बस कल एक मानव-मूल्यों वाली क्लास 

बची है। हाँ, विज्ञान के अलावा मानविकी की खुराफातों से अलग यह भी एक 

जिम्मेदारी सर पर है। इस बार सचमुच थक गया हूँ। एक तो अब मूल्यांकन का 

सिलसिला शुरू होगा, जिसमें सबसे दर्दनाक उन टर्म पेपर्स को देखना है,  

जिनमें से कुछ चुराई सामग्री से भरे होंगे। पर इस बार की थकान एक और 

कारण से भी है। इस सेमेस्टर पहली बार मैंने अटेंडेंस न लेने का निर्णय लिया 

था, और नतीज़तन विज्ञान और मानविकी दोनों कोर्स में अधिकतर छात्रों की 

शक्ल नहीं देख पाया। इससे क्लास बेहतर रही, पर अब करें क्या कि 

ईमानदारी का ठेका जो ले रखा है। सोचते ही अवसाद घेर लेता है कि ये जो 

ऊँची जाति, संपन्न वर्गों वाले युवा हैं, जो आपको सोशल मीडिया में हर तरह 

की बहस में उलझा सकते हैं, उनको यह नहीं रास आता कि पढ़ने आए हैं तो 

नियमित क्लास आया करें। पर यह भी कहना होगा कि कुछ हैं जो नियमित 

आते रहे और मन लगाकर सुनते देखते रहे कि मैं क्या कहता दिखलाता हूँ। यह 

सुख है।


बहरहाल मुक्ति तो अभी नहीं मिली, पर इतनी छूट का अहसास तो है कि कुछ 

कविताएँ पोस्ट कर दें। लंबे समय से 'संवेद' पत्रिका में धरती से जुड़ी कुछ 

कविताएँ अटकी पड़ी थीं; जो पिछले साल के अंत में प्रकाशित हो गईं। उन्हीं 

में से पोस्ट कर रहा हूँ। प्रियंकर पालीवाल का कहना है कि इन पर रावींद्रिक 

प्रभाव है। हो ही सकता है, आखिर मैं बंगाल में जन्मा पला हूँ।

1. अधिकार है मेरा

नहीं जाऊँगा तुझे छोड़ कर


तेरी साँझ-बेला में यह मेरा प्रण



वे लाखों बार तुझे तबाह कर लें


साथ मिट कर उतारूँगा ऋण


तेरी ऊबड़-खाबड़ देह पर जिया


हर कोमल अहसास अपना तुझ से ही लिया



जितना भी किया प्यार है वह तेरा


नहीं जाऊँगा


तेरी गोद में पड़ा तड़पूँगा तेरे साथ

साथ चीखूँगा कि विलुप्त हो गए पाखी सब



कि रसायन जिनको होना था प्राण


जहर बनते चले पहाड़ समंदर देह पर घाव पीप

सहलाता रहूँगा



यह अधिकार है मेरा।




2. तो क्या


बारिश कम हुई है तो क्या

धरती प्रांजल हुई है फिर से


यादें हरी-भरी

प्रीत भरी नदियाँ उमड़ रहीं


हवाएँ विभीषिकाओं की सूचनाएँ हैं तो क्या

आओ


थोड़ा सही बाँट लो प्यार आपस में

सारे कपड़े उतार लो

देह प्रांजल होना चाहती


कम सही ताकत भर उठाओ मुट्ठियाँ

ढँक लो धरती को आस्माँ को

खालिस प्यार से।

*********

इसी बीच पूना गया था, फिर जाना है 4 मई को। इस बार चार दिन ठहरना है।




Comments

Popular posts from this blog

मृत्यु-नाद

('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख) ' मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती ' - मिर्ज़ा ग़ालिब ' काल , तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। /  इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ ' - शमशेर बहादुर सिंह ; हिन्दी कवि ' मैं जा सकता हूं / जिस किसी सिम्त जा सकता हूं / लेकिन क्यों जाऊं ?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय , बांग्ला कवि ' लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर  हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए  तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी हमारी हर सोच जीवन - केंद्रिक है , पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों - कलाकारों ने जितना सृजन किया है , उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति - सापेक्ष होती हैं , यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है , देर - सबेर हम सब को मौत का सामना करना है , और मरने पर हम निष्क्रिय...

फताड़ू के नबारुण

('अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित) 'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण! 1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हू...

 स्त्री-दर्पण

 स्त्री-दर्पण ने फेसबुक में पुरुष कवियों की स्त्री विषयक कविताएं इकट्टी करने की मुहिम चलाई है। इसी सिलसिले में मेरी कविताएँ भी आई हैं। नीचे उनका पोस्ट डाल रहा हूँ।  “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” ----------------- मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपन...