Saturday, December 07, 2013

अलविदा मांडेला - हम भूलेंगे नहीं 'अमांडला अंवेतू'


आज जनसत्ता में पहले पन्ने पर  प्रकाशित स्मृति आलेख:

'अमांडला अंवेतू!' - सत्ता किसकी, जनता की! यह नारा अस्सी और नब्बे के दशकों में दुनिया के सभी देशों में उठाया जाता था। हमारे अपने 'इंकलाब ज़िंदाबाद' जैसा ही यह नारा अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय आवाज थी।
जब नेलसन मांडेला 1 मई 1990 को जेल से छूटे, बाद के सालों में जब वे कई देशों के दौरे पर आए, हर जगह यह नारा गूँजता। कोलकाता में आए तो सिर्फ ईडेन गार्डेन में भूपेन हाजारिका के साथ ही नहीं, सड़कों पर आ कर लोगों ने 'मांडेला, मांडेला' की गूँज के साथ यह नारा उठाया। और यह शख्स जिसने सारी दुनिया को अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ उठ खड़े होने को प्रेरित किया, 27 साल तक अमानवीय परिस्थितियों में दुनिया के सबसे खतरनाक जेलों में से माने जाने वाले रॉबेन आइलैंड में सड़ रहा था। उसी जेल में रहे दक्षिण अफ्रीकी कवि डीनस ब्रूटस ने कमीज उतार कर दिखलाया था कि कैसे सामान्य नियमों के उल्लंघन मात्र से उनको गोली मारी गई थी, जो सीने के आर पार हो गई थी।

नेल्सन रोलीलाला मांडेला बीसवीं सदी का अकेला ऐसा व्यक्ति था, जिसने अपने जीवन काल में समूची धरती पर अन्याय के खिलाफ लोगों को, खास कर युवाओं को सड़कों पर उतर आने को प्रेरित किया था। गाँधी जी ने 1894 में दक्षिण अफ्रीका के भारतीय व्यापारियों को संगठित कर नेटाल इंडियन कांग्रेस बनाई। इसी से प्रेरित होकर सभी अश्वेतों के अधिकारों की रक्षा के लिए आफ्रीकन नेटिव नैशनल कॉंग्रेस 1912 में बनी, जो बाद में आफ्रीकन नैशनल कॉंग्रेस (ए एन सी) बन गई। सदी के आखिरी दशकों तक मांडेला और ए एन सी एक दूसरे के पर्याय बन गए। इसके पीछे 1962 में आजीवन कारावास में जाने से पहले दो दशकों तक उनका ज़मीनी काम था। 1944 में ए एन सी में शामिल होने के बाद वकालती करते हुए अपने साथी वकील ऑलिवर तांबो के साथ मिलकर वे बर्त्तानवी उपनिवेशवाद से ताज़ा आज़ाद हुए अपने मुल्क में नस्लवादी व्यवस्थाओं के खिलाफ जनांदोलनों में पार्टी के झंडे तले जी जान से काम करते रहे। वे युवाओं के लिए पार्टी की शाखा उमखोंतो वे सिजवे (राष्ट्र की बरछी) के प्रमुख संस्थापकों में थे। 1948 में जब नस्लभेदी व्यवस्था 'अपार्थीड' औपचारिक रूप से देश की शासन-व्यवस्था बन गई और अलग-अलग नस्ल के लोगों के लिए भिन्न कानून बना दिए गए, ए एन सी और दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी ने मिलकर जोरों से विरोध शुरू किया। जल्दी ही मांडेला और साथी पकड़े गए और उन पर देशद्रोह का मामला चला। चार सालों के बाद निकले, पर तभी कुछ समय बाद ही शार्पविले में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की गई और 69 लोग मारे गए। इसके बाद मांडेला के नेतृत्व में ए एन सी ने 'अपार्थीड' के खिलाफ युद्ध की घोषणा की। मांडेला जल्दी ही पकड़े गए और पहले मौत की सजा की संभावना होने के बावजूद आखिरकार उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली। ए एन सी को विश्व स्तर पर सभी लोकतांत्रिक ताकतों से समर्थन मिलता था। गुट निरपेक्ष आंदोलन की सदस्यता उन्हें मिली थी। भारत जैसे कई देशों ने अपने नागरिकों को उस जघन्य देश दक्षिण अफ्रीका में जाने से रोक लगा दी थी जहाँ वे अपनी पहचान के साथ नहीं, बल्कि 'ऑनररी ह्वाईट' बन कर ही जा सकते थे। वहाँ 11 नस्लें परिभाषित थीं। सत्तर के दशक में ए एन सी ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार को कमजोर बनाने के लिए सभी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से आग्रह किया कि वे उस देश पर आर्थिक प्रतिबंध (एंबार्गो) लगाएँ। हर साल भारत और अन्य देश संयुक्त राष्ट्र संघ में आर्थिक नाकेबंदी का प्रस्ताव लाते और सोवियत रूस के समर्थन के बावजूद सुरक्षा परिषद में यू एस ए, यू के और फ्रांस जैसे देश वीटो का इस्तेमाल कर इसे रद कर देते। इन मुल्कों की सरकारों पर उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबाव था, जो दक्षिण अफ्रीका के साथ व्यापार कर करोड़ों कमा रहे थे। पर धीरे- धीरे अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ता गया और खास कर यू एस ए के अफ्रीकी मूल के नागरिकों और दूसरे प्रगतिशील लोगों के पुरजोर विरोध के सामने उनकी न चली। यूनिवर्सिटियों में छात्रों ने, शहरों की पौर-सभाओं में कर्मचारियों ने लगातार विरोध करना शुरू किया और अंतत: पश्चिमी सरकारों ने दक्षिण अफ्रीका में व्यवस्था परिवर्तन के लिए दबाव डालना शुरू किया। 1 मई 1990 में मांडेला जोल से छूटे। 1994 में दक्षिण अफ्रीका में पहली सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती लोकतांत्रिक सरकार बनी। 1999 तक सरकार में राष्ट्रपति के पद पर रह कर मांडेला ने राजनीति से सन्यास ले लिया। इसके बाद से उन्होंने अपना पूरा वक्त विश्व-शांति के लिए लगा दिया। साल भर वे गुट निरपेक्ष आंदोलन के मुख्य सचिव भी रहे।

आखिरी वर्षों में मांडेला का दुनिया को सबसे अनोखा उपहार नोबेल शांति विजेता रेवरेंड डेसमंड टूटू के साथ मिलकर सोचा गया 'ट्रुथ ऐंड रीकंसीलिएशन कमीशन (सत्य और समझौता समति)' है। पुरानी बीमार मानसिकता वाली नस्लवादी व्यवस्था के अधिकारियों को सजा न देकर उनको अपना अपराध मान लेने को कहा गया। पुलिस की गोली खाकर मरे बच्चों की माँओं के साथ उन पुलिस अधिकारियों को बैठाया गया जिन्होंने गोलीबारी के आदेश दिए थे। दोषियों ने सच्चे दिल से अपना अपराध कबूल किया और पीड़ितों को राहत दी गई। मानवता का ऐसा आदर्श संसार के इतिहास में पहली बार देखा गया। मानव अधिकारों के हनन से जूझने का यह तरीका दूसरे विश्व-युद्ध के बाद हुए न्यूरेंबर्ग पेशियों की तुलना में अधिक सफल माना गया और कई देशों में ऐसे ही प्रयास होने लगे। इसके अलावा अंतर्रष्ट्रीय स्तर पर गरीबी दूर करने और एड्स के बारे में जागरुकता फैलाने और उसके उपचार के लिए व्यापक कोशिशों को बढ़ावा देने के लिए मांडेला ने काफी काम किया।


उन्हें कम्युनिस्ट कह कर खारिज करने वालों की कमी नहीं रही, पर अपनी ईमानदारी और निष्ठा के बल पर उन्हें एक के बाद एक कोई 250 अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले, जिनमें 1993 का नोबेल शांति पुरस्कार भी शामिल है। निजी तौर पर वे बड़े विनोदी स्वभाव के व्यक्ति थे। ब्रिटेन की महारानी के न केवल उनके नाम 'एलिजाबेथ' से पुकारने वाले वे अकेले शख्सियत थे, उन्होंने मजाक में यहाँ तक कहा कि 'एलिजाबेथ, लगता है आप कमजोर हो गई हैं' - आखिर इसी रानी के साथ काम करने वाली 'लोकतांत्रिक' सरकार ने कभी कई दशकों तक नस्लवादी अपार्थीड सरकार को बचाए करने में भूमिका निभाई थी। कहीं और उन्होंने कहा कि मौत के बाद भी वे जहाँ भी जाएँ, ए एन सी का दफ्तर ढूँढेंगे।
ऐसे महान शख्सियत को अलविदा कहते हुए हम कभी न भूलें कि अभी हमें 'अमांडला अंवेतू!' कहते रहना है। अपनी ज़मीन पर खड़े जहाँ भी धरती पर बराबरी के संघर्षों में हम शामिल हैं, उनकी याद हमारे साथ होगी।


1984-1985 में मैं प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी, यू एस ए, में अपार्थीड सरकार के साथ व्यवसाय में लगाए पैसे को वापस लाने और मांडेला की रिहाई के लिए हुए आंदोलन में शामिल था। इससे जुड़ी कुछ बातें यहाँ।








2 comments:

वरुण said...

अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी का कल का 1घण्टे का पैनल डिस्कशन यूनिवर्सिटी का पिछले 5 महीनों का सबसे अच्छा डिस्कशन था।
शायद ऐसा सिर्फ हमारी यूनिवर्सिटी ही कर सकती थी।
पर अभी भी मेरे मन में ये सवाल है कि वो क्या था जिसने नेल्सन मंडेला को 27 साल तक टूटने नहीं दिया और एक नये और निखरे व्यक्तित्व के रूप में विकसित किया।
क्या उस दौरान उनकी लिखी हुई लेखन सामग्री है ??

लाल्टू said...

प्रिय वरुण,
रिहा होने के कुछ साल पहले मांडेला ने अपनी आत्मकथा 'Long Walk to Freedom' लिखी थी.