जब तक यह नहीं जानोगे कि तुम खुद कितना नीचे गिर सकते हो, तब तक तुम्हारी समझ कमजोर ही रहेगी। जब मैं इक्कीस साल का था, यह बात मुझे सुमित मजुमदार ने कही थी, जो मुझसे चार साल सीनीयर था और एक समय मुझे जिसका protege समझा जाता था। सुमित अब अमरीका में भौतिक शास्त्र का अध्यापक है।
मैं कभी उदय प्रकाश से मिला नहीं। १९८८ में हावर्ड ज़िन की पुस्तक 'People's History of the United States' के पहले अध्याय का अनुवाद पहल में प्रकाशित हुआ था, तो उदय ने प्रशंसा में चार पृष्ठ लंबा ख़त लिखा था। एक बात मुझे काफी अच्छी लगी थी, उदय ने लिखा था कि काश कभी भारत का इतिहास भी इस तरह लिखा जाता। मैंने धन्यवाद का जवाबी ख़त भेजा और कुछ ही दिनों के बाद उदय का जवाब आया था कि उसके कोई अमरीकी इतिहासविद मित्र ने बतलाया है कि हावर्ड ज़िन को अमरीका में कोई खास महत्त्व नहीं दिया जाता है। मुझे रंजिश थी, खास तौर पर इसलिए कि मैंने पहले अध्याय का अनुवाद एकलव्य संस्था के साथियों पर चिढ़ कर लिखा था, क्योंकि वे सामाजिक अध्ययन की पुस्तक में अमरीका पर तैयार किए गए अध्याय पर हमारी प्रतिक्रिया को गंभीरता से नहीं ले रहे थे। बहरहाल मैंने पुस्तक के बारह अध्यायों का अनुवाद किया जिनमें से दस अलग अलग पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। कोई दस साल पहले चोम्स्की दिल्ली आए थे तो उनका भाषण सुनने मैं चंडीगढ़ से पहुँचा। चोम्स्की ने ज़िन का जिक्र किया तो में सोचता रहा कि उदय प्रकाश कहाँ है। फिर मैं ही थक गया और अनुवाद पूरा न कर पाया।
बाद में 'तिरिछ' पढ़कर प्रभावित होकर मैंने उसे लिखा था। कोई जवाब नहीं आया था। कुछ समय बाद मैंने दरियाई घोड़ा वाले संग्रह की कहानियाँ पढ़ीं। रामसजीवन की प्रेम कथा पढ़ी और बहुत तड़पा। गोरख पांडे से दो बार ख़तों में बात हुई थी और पार्टी में काम करनेवाला तेजिंदर नाम का एक लड़का मुझे उसके बारे में बतलाता था। गोरख पांडे कि मृत्यु से हमलोग मर्माहत थे। दुर्भाग्य से उसके कोई साल भर बाद मैंने वह कहानी पढ़ी, पढ़ते ही समझ गया कि यह गोरख के बारे में है। तब से मन में उदय को लेकर एक पूर्वाग्रह बैठ गया, जो कभी निकला नहीं। इससे उसकी कहानियों के प्रति कोई मन में कोई विराग हुआ हो, ऐसा नहीं है। पिछले साल पहली बार हिंदी साहित्य पर कुछ पढ़ाने का मौका मिला तो 'टेपचू' पढ़ाई। छात्रों ने गालियों के प्रयोग पर सवाल उठाए तो उदय के पक्ष में और अश्लीलता पर सामान्य चर्चा भी की।
हाल में उदय के योगी आदित्यनाथ से पुरस्कार लेने पर विवाद खड़ा हुआ तो मुझे छः साल पहले की घटना याद आई। भूपेन हाजारिका ने बीजेपी की ओर से लोकसभा का चुनाव लड़ा। दुःखी मन से मैंने कविता लिखी थी, जो पश्यंती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
भू भू हा हा
दिन ऐसे आ रहे हैं
सूरज से शिकवा करते भी डर लगता है
किसी को कत्ल होने से बचाने जो चले थे
सिर झुकाये खड़े हैं
दिन ऐसे आ रहे हैं
कोयल की आवाज़ सुन टीस उठती
फिर कोई गीत बेसुरा हो चला
दिन ऐसे आ रहे हैं
भू भू हा हा ।
(पश्यंती- २००४)
बाद में एक लेख भी लिखा था, जिसमें हंगेरियन निर्देशक इस्तवान स्जावो की फिल्म मेफिस्टो का जिक्र किया था, जो हिटलर के समय हंगरी के एक ऐसे संस्कृतिकर्मी पर लिखी कहानी है, जिसमें गोएठे के मेफिस्टो की तरह शैतान और हैवान का द्वंद्व छिड़ा हुआ है और जो नात्सी प्रताड़कों के साथ समझौता करते हुए यहाँ तक पहुँच जाता है कि वापस लौटने का कोई रास्ता उसे नहीं दिखता। वह लेख अधूरा ही रहा और कहीं प्रकाशित नहीं किया। अभी भी किसी फाइल में पड़ा है।
उम्र और अनुभव के साथ मुझमें भी सहिष्णुता बढ़ी है और अपनी मजबूरियों और समझौतों को समझते हुए अपने साथ दूसरों को भी स्वीकार करना मैंने सीखा है।
इस प्रसंग में मुझे जो बात बहुत महत्त्वपूर्ण लगती है, वह है हिंदी की गुटबाजी से भरी, व्यक्तिकेंद्रिक, संकीर्ण एक दुनिया का होना जो केवल हताश कर सकती है। अगर कबाड़खाना पर चली बहस को पढ़ें तो ऐसा लगता है कि गाँधी या आइन्स्टाइन जैसे किसी व्यक्ति पर बहस हो रही है। कई बार लगता है पूछूँ कि किसी को याद है कि प्रेमचंद ने कितने उपन्यास, कितनी कहानियाँ लिखी थीं। क्या आज के लेखक तमाम सुविधाओं के बावजूद इतना लिख रहे हैं। दूसरी भाषाओं की ओर भी जरा देखें। ताराशंकर ने पचपन उपन्यास लिखे थे। बांग्ला में हर प्रतिष्ठित रचनाकार आम वयस्कों के अलावा बच्चों के लिए भी लिखता है। महाश्वेता देवी के बराबर हिंदी में कोई है क्या? सच यह है कि हिंदी में बहुत कम लिखकर बहुत ज्यादा शोर के केंद्र में पहुँचने की प्रवृत्ति आम है।
अशोक बाजपेयी के बारे में अकसर कहा जाता है कि वे हिंदी के लेखकों की अनपढ़ता की ओर संकेत करते हैं। यह तो खतरनाक है ही, पर उससे भी ज्यादा चिंता का विषय है कि जो लोग सही जगहों पर होने की वजह से थोड़ा बहुत पढ़ लेते हैं, वे जब विदेशी फार्म या शैली को बिना आत्मसात किए हिंदी में ढाल लेते हैं, अधिकतर लोगों को पता भी नहीं चलता और बहुत हो हल्ला होता है कि भयंकर शिल्प रचा गया। सही है लोग मुझसे पूछेंगे कि यह तो आक्षेप है बिना उदाहरण दिए यह मैं कैसे कह सकता हूँ। पर मैं इस बहस में नहीं पड़ने वाला।
हमलोगों ने जब ब्लागिंग शुरु की थी, हिंदी में ब्लाग लिखने वाले बहुत कम लोग थे। सहिष्णुता के साथ संघी मानसिकता के लोगों के साथ बहस करते थे। अचानक युवाओं की यह भीड़ आई जिसे यह पता नहीं कि ब्लाग कोई लघु पत्रिका नहीं जिसे कुछ लोग पढ़ते हैं और जिनमें खास किस्म की बहसें चलती हैं। ब्लागिंग हिंदी में व्यापक पाठक समुदाय को साहित्य और समकालीन अन्य समस्याओं के प्रति जागरुक करने का अच्छा माध्यम हो सकता है और है भी। पर इस तरह की गाली गलौज की भाषा में बहसें - इससे ब्लाग पाठक हिंदी से विमुख ही होंगे। हर कोई एक दूसरे से आगे बढ़ कर खुद को सचेत और जागरुक पेश करने में लगा है। अगर आपने गुजरात कहा तो चौरासी क्यों नहीं कहा, अगर लालगढ़ कहा तो शिक्षा बिल पर क्यों नहीं कहा।
इसका मतलब यह नहीं कि बहस हो ही नहीं। जो मुद्दा चर्चा में है वह महत्त्वपूर्ण है, सवाल यह है कि हम कैसे इस पर बात करते हैं।
एक बात और। लेखकों के संदर्भ में सांप्रदायिकता और जातिवाद को लेकर बातचीत खूब होती है। इसमें भी आत्मकेंद्रिक या अधिक से अधिक कुछ लोगों तक सीमित बातें होती हैं। सांप्रदायिकता और जातिवाद से लड़ने के लिए सिर्फ कहानी कविता में बात करने से अलग जीवन में कुछ करने की ज़रुरत ज्यादा है। और सिर्फ नामी गरामी लेखक हो जाना ही तरक्कीपसंद होने की कसौटी नहीं है। न ही तरक्कीपसंद लेबल लग जाना निजी जीवन में तरक्कीपसंद होने का प्रमाण।
मैं शायद और भी बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ पर वह सब फिर कभी। युवाओं से इतना ही कहना है कि दुनिया बहुत बड़ी है - वह न तो उदय प्रकाश से शुरु होती है न उस पर खत्म। वह तो गाँधी, मार्क्स या आइन्स्टाइन पर भी खत्म नहीं होती।
अफलातून ने शमीम मोदी पर हुए निर्मम हमले की बात अपने ब्लाग में लिखी है। इस निंदनीय घटना के लिए जितना भी प्रतिवाद हो, कम है। युवा इस पर एकजुट हों। हाँ, हाँ, लालगढ़ पर भी। हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष.......सिर्फ नारा ही नहीं, जो जितना कर सके जो जितना कह सके।
मैं कभी उदय प्रकाश से मिला नहीं। १९८८ में हावर्ड ज़िन की पुस्तक 'People's History of the United States' के पहले अध्याय का अनुवाद पहल में प्रकाशित हुआ था, तो उदय ने प्रशंसा में चार पृष्ठ लंबा ख़त लिखा था। एक बात मुझे काफी अच्छी लगी थी, उदय ने लिखा था कि काश कभी भारत का इतिहास भी इस तरह लिखा जाता। मैंने धन्यवाद का जवाबी ख़त भेजा और कुछ ही दिनों के बाद उदय का जवाब आया था कि उसके कोई अमरीकी इतिहासविद मित्र ने बतलाया है कि हावर्ड ज़िन को अमरीका में कोई खास महत्त्व नहीं दिया जाता है। मुझे रंजिश थी, खास तौर पर इसलिए कि मैंने पहले अध्याय का अनुवाद एकलव्य संस्था के साथियों पर चिढ़ कर लिखा था, क्योंकि वे सामाजिक अध्ययन की पुस्तक में अमरीका पर तैयार किए गए अध्याय पर हमारी प्रतिक्रिया को गंभीरता से नहीं ले रहे थे। बहरहाल मैंने पुस्तक के बारह अध्यायों का अनुवाद किया जिनमें से दस अलग अलग पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। कोई दस साल पहले चोम्स्की दिल्ली आए थे तो उनका भाषण सुनने मैं चंडीगढ़ से पहुँचा। चोम्स्की ने ज़िन का जिक्र किया तो में सोचता रहा कि उदय प्रकाश कहाँ है। फिर मैं ही थक गया और अनुवाद पूरा न कर पाया।
बाद में 'तिरिछ' पढ़कर प्रभावित होकर मैंने उसे लिखा था। कोई जवाब नहीं आया था। कुछ समय बाद मैंने दरियाई घोड़ा वाले संग्रह की कहानियाँ पढ़ीं। रामसजीवन की प्रेम कथा पढ़ी और बहुत तड़पा। गोरख पांडे से दो बार ख़तों में बात हुई थी और पार्टी में काम करनेवाला तेजिंदर नाम का एक लड़का मुझे उसके बारे में बतलाता था। गोरख पांडे कि मृत्यु से हमलोग मर्माहत थे। दुर्भाग्य से उसके कोई साल भर बाद मैंने वह कहानी पढ़ी, पढ़ते ही समझ गया कि यह गोरख के बारे में है। तब से मन में उदय को लेकर एक पूर्वाग्रह बैठ गया, जो कभी निकला नहीं। इससे उसकी कहानियों के प्रति कोई मन में कोई विराग हुआ हो, ऐसा नहीं है। पिछले साल पहली बार हिंदी साहित्य पर कुछ पढ़ाने का मौका मिला तो 'टेपचू' पढ़ाई। छात्रों ने गालियों के प्रयोग पर सवाल उठाए तो उदय के पक्ष में और अश्लीलता पर सामान्य चर्चा भी की।
हाल में उदय के योगी आदित्यनाथ से पुरस्कार लेने पर विवाद खड़ा हुआ तो मुझे छः साल पहले की घटना याद आई। भूपेन हाजारिका ने बीजेपी की ओर से लोकसभा का चुनाव लड़ा। दुःखी मन से मैंने कविता लिखी थी, जो पश्यंती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
भू भू हा हा
दिन ऐसे आ रहे हैं
सूरज से शिकवा करते भी डर लगता है
किसी को कत्ल होने से बचाने जो चले थे
सिर झुकाये खड़े हैं
दिन ऐसे आ रहे हैं
कोयल की आवाज़ सुन टीस उठती
फिर कोई गीत बेसुरा हो चला
दिन ऐसे आ रहे हैं
भू भू हा हा ।
(पश्यंती- २००४)
बाद में एक लेख भी लिखा था, जिसमें हंगेरियन निर्देशक इस्तवान स्जावो की फिल्म मेफिस्टो का जिक्र किया था, जो हिटलर के समय हंगरी के एक ऐसे संस्कृतिकर्मी पर लिखी कहानी है, जिसमें गोएठे के मेफिस्टो की तरह शैतान और हैवान का द्वंद्व छिड़ा हुआ है और जो नात्सी प्रताड़कों के साथ समझौता करते हुए यहाँ तक पहुँच जाता है कि वापस लौटने का कोई रास्ता उसे नहीं दिखता। वह लेख अधूरा ही रहा और कहीं प्रकाशित नहीं किया। अभी भी किसी फाइल में पड़ा है।
उम्र और अनुभव के साथ मुझमें भी सहिष्णुता बढ़ी है और अपनी मजबूरियों और समझौतों को समझते हुए अपने साथ दूसरों को भी स्वीकार करना मैंने सीखा है।
इस प्रसंग में मुझे जो बात बहुत महत्त्वपूर्ण लगती है, वह है हिंदी की गुटबाजी से भरी, व्यक्तिकेंद्रिक, संकीर्ण एक दुनिया का होना जो केवल हताश कर सकती है। अगर कबाड़खाना पर चली बहस को पढ़ें तो ऐसा लगता है कि गाँधी या आइन्स्टाइन जैसे किसी व्यक्ति पर बहस हो रही है। कई बार लगता है पूछूँ कि किसी को याद है कि प्रेमचंद ने कितने उपन्यास, कितनी कहानियाँ लिखी थीं। क्या आज के लेखक तमाम सुविधाओं के बावजूद इतना लिख रहे हैं। दूसरी भाषाओं की ओर भी जरा देखें। ताराशंकर ने पचपन उपन्यास लिखे थे। बांग्ला में हर प्रतिष्ठित रचनाकार आम वयस्कों के अलावा बच्चों के लिए भी लिखता है। महाश्वेता देवी के बराबर हिंदी में कोई है क्या? सच यह है कि हिंदी में बहुत कम लिखकर बहुत ज्यादा शोर के केंद्र में पहुँचने की प्रवृत्ति आम है।
अशोक बाजपेयी के बारे में अकसर कहा जाता है कि वे हिंदी के लेखकों की अनपढ़ता की ओर संकेत करते हैं। यह तो खतरनाक है ही, पर उससे भी ज्यादा चिंता का विषय है कि जो लोग सही जगहों पर होने की वजह से थोड़ा बहुत पढ़ लेते हैं, वे जब विदेशी फार्म या शैली को बिना आत्मसात किए हिंदी में ढाल लेते हैं, अधिकतर लोगों को पता भी नहीं चलता और बहुत हो हल्ला होता है कि भयंकर शिल्प रचा गया। सही है लोग मुझसे पूछेंगे कि यह तो आक्षेप है बिना उदाहरण दिए यह मैं कैसे कह सकता हूँ। पर मैं इस बहस में नहीं पड़ने वाला।
हमलोगों ने जब ब्लागिंग शुरु की थी, हिंदी में ब्लाग लिखने वाले बहुत कम लोग थे। सहिष्णुता के साथ संघी मानसिकता के लोगों के साथ बहस करते थे। अचानक युवाओं की यह भीड़ आई जिसे यह पता नहीं कि ब्लाग कोई लघु पत्रिका नहीं जिसे कुछ लोग पढ़ते हैं और जिनमें खास किस्म की बहसें चलती हैं। ब्लागिंग हिंदी में व्यापक पाठक समुदाय को साहित्य और समकालीन अन्य समस्याओं के प्रति जागरुक करने का अच्छा माध्यम हो सकता है और है भी। पर इस तरह की गाली गलौज की भाषा में बहसें - इससे ब्लाग पाठक हिंदी से विमुख ही होंगे। हर कोई एक दूसरे से आगे बढ़ कर खुद को सचेत और जागरुक पेश करने में लगा है। अगर आपने गुजरात कहा तो चौरासी क्यों नहीं कहा, अगर लालगढ़ कहा तो शिक्षा बिल पर क्यों नहीं कहा।
इसका मतलब यह नहीं कि बहस हो ही नहीं। जो मुद्दा चर्चा में है वह महत्त्वपूर्ण है, सवाल यह है कि हम कैसे इस पर बात करते हैं।
एक बात और। लेखकों के संदर्भ में सांप्रदायिकता और जातिवाद को लेकर बातचीत खूब होती है। इसमें भी आत्मकेंद्रिक या अधिक से अधिक कुछ लोगों तक सीमित बातें होती हैं। सांप्रदायिकता और जातिवाद से लड़ने के लिए सिर्फ कहानी कविता में बात करने से अलग जीवन में कुछ करने की ज़रुरत ज्यादा है। और सिर्फ नामी गरामी लेखक हो जाना ही तरक्कीपसंद होने की कसौटी नहीं है। न ही तरक्कीपसंद लेबल लग जाना निजी जीवन में तरक्कीपसंद होने का प्रमाण।
मैं शायद और भी बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ पर वह सब फिर कभी। युवाओं से इतना ही कहना है कि दुनिया बहुत बड़ी है - वह न तो उदय प्रकाश से शुरु होती है न उस पर खत्म। वह तो गाँधी, मार्क्स या आइन्स्टाइन पर भी खत्म नहीं होती।
अफलातून ने शमीम मोदी पर हुए निर्मम हमले की बात अपने ब्लाग में लिखी है। इस निंदनीय घटना के लिए जितना भी प्रतिवाद हो, कम है। युवा इस पर एकजुट हों। हाँ, हाँ, लालगढ़ पर भी। हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष.......सिर्फ नारा ही नहीं, जो जितना कर सके जो जितना कह सके।
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