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एक दिन में कितने दुःख

एक दिन में कितने दुःख मुझे सहला सकते हैं
मैं शहर के व्यस्त चौराहे पर देखता हूँ
अदृश्य मानव संतान खेल रहे हैं
गिर रहे हैं मोपेड स्कूटरों पर पीछे बैठी सुंदर युवतियों पर
चवन्नी अठन्नी के लिए
मैं नहीं देखता कि मेरे ही बच्चे हैं वह
डाँटता हूँ कहता हूँ हटो
नहीं उतरता सड़क पर सरकार से करने गुहार
कि मेरे बच्चों को बचाओ
मैं बीच रात सुनता हूँ यंत्रों में एक नारी की आवाज
अकेली है वह बहुत अकेली
कोई नहीं है दोस्त उसका
कहता हूँ उसे कि मैं हूँ
भरोसा दिलाता हूँ दूसरों की तरफ से
पर वह है कि न रोती हुई भी रोती चली है
इतनी अकेली इतनी सुंदर वह औरत
रात की रानी सी महकती बिलखती वह औरत
औरत का रोना काफी नहीं है
यह जताने रोता है एक मर्द
जवान मर्द रोता है जीवन की निरर्थकता पर कुछ कहते हुए
भरोसा देता हूँ उसे पढ़ता हूँ वाल्ट ह्विटमैन
'आय सेलीब्रेट माईसेल्फ....'

मुग्ध सुनता है वह एक बच्चे के कवि बनने की कहानी
एक पक्षी का रोना एक प्रेमी का बिछुड़ना
पढ़ते हुए मेरी आँखों से बहते हैं आँसू
हल्की फिसफिसाहट में शुक्रिया अदा करता हूँ कविता का
चलता हूँ निस्तब्ध रात को सड़क पर
कवि का जीवन जीते
बहुत सारे दुःखों को साथ ले जाते हुए। (उद्भावना 2009)

Comments

विवेक said…
औरत का रोना काफी नहीं...यह जताने रोता है एक मर्द...सचमुच। यह कविता कब की है सर?
मैं नहीं देखता कि मेरे ही बच्चे हैं वह
डाँटता हूँ कहता हूँ हटो
नहीं उतरता सड़क पर सरकार से करने गुहार
कि मेरे बच्चों को बचाओ

आखिर इस व्यवस्था के लिये भी तो ह्मी दोषी हैं
azdak said…
पढ़े. खड़े-खड़े.

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