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Showing posts from December, 2005

शुभ नववर्ष

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते शुभ नववर्ष

दिखना

दिखना आप कहाँ ज्यादा दिखते हैं? अगर कोई कमरे के अंदर आपको खाता हुआ देख ले तो? बाहर खाता हुआ दिखने और अंदर खाता हुआ दिखने में कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप? कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज्यादा दिखता है जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है इंसान खाते हुए दिखता है आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ वैसे आदम किस को दिखता है ! देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है मुझे कहना है दिखने के बारे में यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं जब आप सबसे कम दिख रहे हों। --पहल-७६ (२००४) ********************************* मेरी मित्र बंगलौर के बाहर अकेली रहती है। क्या वह सुरक्षित है? क्या इस धरती पर कहीं भी महिलाएँ और बच्चे सुरक्षित हैं? अगर महिलाएँ और बच्चे सुरक्षित न हों तो क्या आदमी सुरक्षित है? ********************************* हाँ मसिजीवी , ठंड से भी, गर्मी से भी, ऐसे मरते हैं लोग मेरे देश में, कहीं भगदड़ में, कहीं आग में जलकर, कभी दंगों में, कभी कभी त्सुनामी ...

जैसे

जैसे जैसे हर क्षण अँधेरा बढ़ता तुम शाम बन बरामदे पर बालों को फैलाओ खड़ी क्षितिज के बैगनी संतरी सी उतरती मेरी हथेलियों तक जैसे मैं कविताएँ ढोता रास्ते के अंतिम छोर पर अचानक कहीं तुम बादल बन उठ बैठो सुलगती अँगड़ाई बन मेरी आँखों के अंदर कहीं। --१९८७ (आदमी १९८८; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित) ********************************** चंडीगढ़ के एक स्कूल में पढ़ाने आए युवा अमरीकी दंपति ने रोजाना अनुभवों पर खूबसूरत साइट बनाई है। उनसे मिले पूछे बिना ही सबसे कह रहा हूँ कि ज़रुर देखिए: jimmyandjen.blogspot.com चूँकि चिट्ठाकारी सार्वजनिक गतिविधि है, इसलिए मान कर चल रहा हूँ कि अनुमति की आवश्यकता नहीं है।

इंदौर बैंक की जय ! बोलो हे !

भास्कर अखबार में लिखे आलेख का पारिश्रमिक। मेरे बैंक (SBIndia) ने इसे वापस भेजा क्योंकि उचित अधिकारियों के हस्ताक्षर नहीं हैं। भास्कर दफ्तर खबर भिजवाई, उन्होंने फोटोकापी रख ली और कहा हो जाएगा। दस दिन हो गए, कुछ हुआ नहीं तो मैंने नेट से इंदौर बैंक का अतापता ढूँढा। शाहपुर, भोपाल शाखा को ई-मेल के साथ ऊपर वाली तस्वीर भेजी। कोई जवाब नहीं। दो दिन बाद उनके चंडीगढ़ शाखा का नंबर ढूँढा। फोन किया तो वह मैनेजर साहब का घर का नंबर निकला। दफ्तर का नंबर पता कर फोन किया। दस मिनट बाद फोन करो की हिदायत आई। किया। डीलिंग व्यक्ति ने साफ मना कर दिया कि वह मदद नहीं कर सकता। कल जाकर भास्कर के दफ्तर लौटा ही आया - सोचा इसको दिमाग से निकालें। चेतन डाँट रहा है कि कंज़्यूमर फोरम को चिट्ठी भेजो। पर मुझे लगता है कि अगर मैं चिट्ठाकारी से छुट्टी माँग रहा हूँ तो अदालतबाजी का वक्त कहाँ से निकालूँ। फिलहाल पूरी बात पर हँसता रहता हूँ और गाता हूँ - जय, भारतीय पूँजीवाद की जय। भारत के सफेद कालर पेशेवरों की जय। बोलो हे!

इसमें क्या?

मैंने कुछ भ्रष्ट काम किए हैं, जिनके लिए मुझे जेल तो नहीं, पर जुर्माने ज़रुर हो सकते हैं। जैसे हमारे यहाँ अॉडिट का नियम है कि कागज़ात की बाइंडिंग का खर्च आप रिसर्च ग्रांट से नहीं ले सकते। हमें अक्सर शोध पत्र या विद्यार्थियों द्वारा बार बार इस्तेमाल की गई (फोटोकापी करवाई गई) किताबें या दूसरे कागज़ात बँधवाने पड़ते हैं। पैसे निकलवाने का आसान तरीका है कि आप दूकानदार से कहें कि वह आपको फोटोकापी का बिल बनवा दे। बात छोटी सी लगती है, पर इसके दो नतीजे हैं - एक तो यह कि हमारी कुढ़न कभी इतनी तीखी नहीं हो पाती कि हम इस निहायत ही बेहूदा नियम को बदलवाने के लिए हाथ पैर उछालें; दूसरी बात यह कि लकीर कहाँ खींचें, हम इतनी सी बेईमानी करते हैं तो कोई और संसद में सवाल उठाने के लिए पैसे लेने को तैयार होता है। यह बात एक युवा पत्रकार मित्र से बतलाई तो उसने कहा - ऐसी बातें तो हर कोई करता है, जैसे मुझे साल में मेडिकल अलावेंस मिलता है, हम सब लोग जाली बिल बनवाते हैं कि पूरा पैसा ले सकें। यानी इसमें क्या? मेरी लकीर अगर यहाँ तक है कि जो पैसा मैंने वाकई काम के लिए खर्च किया है, वह मुझे मिलना चाहिए, तो उसकी लकीर उन ...

इधर वाला गेट बंद हो गया होगा

चूँकि मैं किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करता, इसलिए कह सकता हूँ - हे ईश्वर! मेरी इच्छा शक्ति को क्या हो गया। छुट्टी की घोषणा कर दी और फिर बेहया से वापस लौट आए। बहरहाल भाई ने गरियाया तो औरों को, पर मुझे इतना हिलाया कि मैं वापस आ गया। चिट्ठा चर्चा में यह तो लिख दिया कि मैंने छुट्टी की घोषणा कर दी (पुरानी कविताओं का तर्क देकर!) पर यह नहीं लिखा कि कुछ बातें और भी कह गया हूँ - साधारण सी ही, जैसे शिक्षा व्यवस्था पर और शिक्षकों के मूल्यांकन पर। पर महज इतना हिलने भर से हम कहाँ इस अवसाद से लबालब आठ ही बजे पाँच डिग्री सेल्सियस पहुँची रात को एक किलोमीटर चल के दफ्तर पहुँचते कि चिट्ठा लिखें। सच यह है कि मुझे हिन्दी चिट्ठाकारों से प्यार हो गया है। भले लोग हैं। भाई मनोज, सच है कि अनुनाद सिंह ने आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... जैसा कुछ लिखा था, जो ई-मेल नैशनलिस्टों की मुहावरेबाजी का हल्का सा नमूना था, पर यह भी तो है न कि उसने लिखा तो। अब हम हैं कि रोते रहते हैं यार टाइम नहीं, टाइम नहीं, किसी का पढ़ा तो टिप्पणी नहीं छोड़ी, बदतमीज़ तो हम ही हुए न? वैसे इस आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... एपिसोड से एक पुराना चुटकुला याद...

महीने भर की छुट्टी

'लाल्टूजी अपना सारा पुराना स्टाक छापे दे रहे हैं नेट पर भी।' - चिट्ठा चर्चा चिट्ठे में नई कविताएँ इसलिए नहीं डाल सकते कि कहीं प्रकाशन के लिए भेजनी होनी होती हैं। अधिकतर जो कविताएँ डाली थीं, वे प्रासंगिक थीं और ज्यादातर चिट्ठाकारों के लिए तो नई ही होंगी। पुराने होने का विवरण साथ में देते हैं कि जिसने प्रकाशित किया उनका भी जिक्र होना चाहिए। कुछेक पुरानी कविताएँ पहले से कंप्यूटर पर पड़ी हैं,.... अब महीने भर की छुट्टी ले रहा हूँ। दस दिनों के बाद बंगलौर के भारतीय विज्ञान संस्थान जाना है, वहाँ ढाई हफ्ते। जाने से ठीक पहले यहाँ विभाग में एक अंतर्राष्ट्रीय सिंपोज़ियम में भाषण देना है। ************************************** पहली तारीख को हमारे एक साथी के अवकाशनिवृत्त होने पर हमलोगों ने उच्च शिक्षा पर एक गोष्ठी आयोजित की। उसी प्रसंग में बातें जो दिमाग में हैं (भारत को महान बनाने और बताने वालो, कुछ इस पर भी सोचो) - भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की समस्याओं के बारे में दो सबसे बड़े सचः- १) सरकार ने अपने ही संवैधानिक जिम्मेवारियों के तहत बनाई समितिओं की राय अनुसार न्यूनतम धन निवेश नह...

सूरज सोच सकने को लेकर

मसिजीवी ने सच ही शक जाहिर किया। ************************************************* सूरज सोच सकने को लेकर सूरज सोच सकने को लेकर मैंने पहले भी कभी लिखा है इन दिनों लड़ता हूँ इस शक से कि सूरज सोचना शायद धीरे-धीरे असंभव हो रहा है सूरज सोच सकने के पूर्ववर्ती क्षणों में वह बूढ़ा भर लेगा उन सभी जगहों को अपने बच्चे की राख से जहाँ मेरे पैर हैं फिलहाल उसे सूरज नहीं सिर्फ एक रुपया चाहिए या महज कुछ पैसे मुझे लगता है मैं अभी भी सूरज सोच सकता हूँ शक है उस बूढ़े का असंभव ही हो सूरज सोच सकना 1994 (पश्यंती-1995; 'डायरी में तेईस अक्तूबर में' संकलित)

सारी दुनिया सूरज सोच सके

कल मानव अधिकार दिवस है। अपने पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में से यह कविता - *************************************************************** सारी दुनिया सूरज सोच सके हर रोज जब सूरज उगता है मैं खिड़की से मजदूरों को देखता हूँ जो सड़क पार मकान बना रहे हैं सूरज मेरी खिड़की पर सुबह सुबह नहीं आता कल्पना करता हूँ कितना बढ़िया है सूरज रात के अभिसार से थकी पृथ्वी को आकाश हर रोज एक नया शिशु देता है नंगी पृथ्वी अँगड़ाई लेती शरीर फैलाती है उसकी शर्म रखने अलसुबह उग आते पेड़ पौधे, घास पात पूरब जंघाएँ प्रसव से लाल हो जाती हैं ऐसा मैं सोचता हूँ सूरज कल्पना कर कभी कभी मैंने मजदूरों की ओर से सोचने की कोशिश की है मेरे जागने तक टट्टी पानी कर चुके होते हैं अपने काम में लग चुके होते हैं एक एक कप चाय के सहारे मैंने चाहा वे सूरज को कोसें शिकवा करें क्यों वह रोज उग आता इतनी जल्दी बार बार थक गया हूँ अगर वे कभी सूरज सोच सकें सूरज नहीं दुनिया सोचेंगे षड़यंत्र करेंगे सारी दुनिया सूरज सोच सके। १९८८ (पहल -१९८९)

जैसे खिलता है आसमान

"प्रेम सुधा में विष घुलेगा जब मन हो नहाया पाप से मेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से" - मानसी पाप ? पाप ? ********************************** जैसे खिलता है आसमान जैसे खिलता है आसमान सीने में उल्लास की चीत्कार भर दौड़ो प्यार जब चाहिए तो चोटी पर बाँहें फैला सरगम गाओ हो सकता है साथ आ बैठें दढ़ियल रवींद्रनाथ हू हू बह निकले गंगा महादेवी की जाने किन कविताओं से प्यार जब चाहिए तो होंठों को स्तब्ध न रखो जिन आँखों को छूना है जीवन की तहें वहाँ फैलाओ साँस सिसकियाँ आवाज़ें जिस्म रूह कविताएँ होंठों की बाँसुरी में बजाओ बाँसुरी नहीं चिरंतन फरीद वह ईसा का सपना खिलो जैसे खिलता है आसमान। 1994 (पश्यंती - 1995; 'डायरी में २३ अक्तूबर')

हालाँकि लिखना था पेड़

हालाँकि लिखना था पेड़ हालाँकि लिखना था पेड़ पेड़ पर दिनों की बारिश की गंध लिखा पसीना हवा में उड़ता सूक्ष्म-सूक्ष्म लिखा पसीना जो अपनी सत्ता देश से उधार लिए बहता दिमाग़ में स्पष्ट कर दूँ यह कोई मजदूर का नहीं महज उस देश का पसीना जिस पर तमाम बेईमानियों के ऊपर मीठी सी हँसी का लबादा हमारी एकता का हिस्स... ... हमारी हें-हें हें समवेत हँसी का फिस्स... ... हालाँकि लिखना था पेड़ पेड़ पर बंदर आसपास थे घर और बंदर में घर नहीं हो सकता लिखा वीरानी जो चेहरे के भीतर बैठी टुकड़े-टुकड़े लिखा महाजन वरिष्ठ लिखा राजन विशिष्ट मेरे इष्ट जिन्हें इस बात का गुमान कि पढ़े लिखों को यूँ करते मेहरबान जैसे नाले में कै लिखा कै के उपादान पीलिया ग्रस्त देश के विधान हालाँकि लिखना था पेड़ लिखी बातें लगीं संस्कृत असंस्कृत। १९९४ (पश्यंती १९९५; 'डायरी में तेईस अक्तूबर' में संकलित)

सात दिसंबर 1992

यहाँ नहीं कहीं औरः सात दिसंबर1992 १ कहना दोधी से कम न दे दूध नहीं जा सकती इंदौर कर दूँगा फ़ोन दफ्तर से मीरा को अनु को तुम नहीं जा सकती इंदौर अब मेसेज भेजा लक्ष्मी को मत करो चिंता नहीं आएगी स्टेशन मरे हैं चार दिल्ली में कर्फ्यू भी है एक पत्थर और पत्थर पर पत्थर गिरे गुंबदों से समय अक्ष बन रहा अविराम समूह पत्थरों का २ सभी हिंदुओं को बधाई सिखों, मुसलमानों, ईसाइयों, यहूदियों, दुनिया के तमाम मजहबियों को बधाई बधाई दे रहा विलुप्त होती जाति का बचा फूल हँस रहा रो रहा अनपढ़ भूखा जंगली गँवार ३ पहली बार पतिता शादी जब की अब्राह्मण से अब तो रही कहीं की नहीं तू तो राम विरोधी कहेगी क्या फिर विसर्जन हो गंगा में ही निकाल फ्रेम से उसे जो चिपकाई लेनिन की तस्वीर मैंने मैं कहता झूठा सूरज झूठा सूरज रोती तू अब तू जो कहती रही ग़लत है झगड़ा लिखा दीवारों पर निश्चित तू धर्मभ्रष्टा ओ माँ ! ४ पुरुषोत्तम ! सभी नहीं हिन्दू यहाँ रो रही मेरी माँ आ बाहर आ कुत्ता मरा पड़ा घर के बाहर पाँच दिनों से ओवरसीयर नहीं देता शिकायत पुस्तिका ला तू ही ला लिख दूँ सड़ती लाशें गली गली कुछ कर हे ईश्वर ...

प्रेमचंद १२५

हरियाणा साहित्य अकादमी के आयोजन से आशा से अधिक संतुष्ट हुआ। प्रेमचंद की एक सौ पचीसवीं वर्षगाँठ पर सुबह व्याख्यान और शाम को रंगभूमि का मंचन। व्याख्यान सुनने देर से पहुँचा और पता चला कि मैनेजर पांडे आए नहीं। विकास नारायण राय और कमलकिशोर गोएनका को सुना। विकास पुलिस के अफसर हैं और अपने बड़े भाई विभूति नारायण राय ('वर्त्तमान साहित्य' के पहले संपादक और प्रसिद्ध उपन्यास 'शहर में कर्फ्यू' के लेखक) की तरह साहित्य में सक्रिय हैं। पहले हरियाणा और वह भी चंडीगढ़ के पास पंचकूला में ही पोस्तेड होते थे तो अक्सर मुलाकात होती थी। पर कल उनको सुनकर कहीं ज्यादा अच्छा लगा। प्रेमचंद की रचनाओं के subtext को सामने लाकर और समकालीन स्थितियों से तुलनाकर बड़े रोचक ढंग से बात रखी, जैसे गोहाना में हाल में लिए किसी साक्षात्कार का हवाला देकर प्रेमचंद के दलित चरित्रों की स्थिति को समझना आदि। कमलकिशोर गोएनका के लेख पढ़े थे, कभी सुना नहीं था। सुनकर अच्छा लगा और मन में पहले से बनी धारणा कि प्रेमचंद के बारे में फैली रोमांटिक किस्म की धारणाओं को गलत सिद्ध करने में उनकी कोई बुरी मंशा नहीं है, को सही पाया। दू...

फ़ोन पर दो पुराने प्रेमी

सुनील यानी बकौल शुकुल जी 'भुलक्कड़ प्रेमी' का प्रेम प्रसंग बहाना है कि समय से पंद्रह दिन पहले ही आ टपकी शीत लहर (वैन्कूवर ही नहीं यहाँ भी) में कुछ प्यार की बातें हम भी कर लें। हाँ भई, लोगों ने मुझे भारी भरकम ही बना दिया! और छूट मिली भी तो चर्चित कहानीकार - अरे भाई, मैं कविताएँ भी लिखता हूँ! साहित्य की राजनीति और उठा पटक से दूर हूँ, पर हिन्दी कविता में भी सेंधमारी हमने भी की है । लिखने में जल्दबाजी का ज़ुर्म है, पर वो मेरे बस की बात नहीं.... फ़ोन पर दो पुराने प्रेमी कहते कुछ सोचते कुछ और हैं फ़ोन पर बातचीत करते पुराने प्रेमी बातों में पिछले संघर्षों के संदर्भ हैं जिनमें एकाध जीते भी थे आजकल जिन नौकरियों में लगे हैं उनकी हताशाएँ एक दूसरे को सुनाते हैं ख़यालों में ज़िंदा हैं पुराने गीत एक दूसरे के शरीर की गंध होंठों का स्वाद। १९९० ( साक्षात्कार १९९२) हरियाणा साहित्य अकादमी की ओर से आयोजित कार्यक्रम में व्याख्यान देने प्रोo मैनेजर पांडे आए हैं, सुनने जा रहा हूँ। शाम को टैगोर थिएटर में 'रंगभूमि' का मंचन है। देखना है, एक अखबार के लिए समीक्षा भी लिखनी...

कंप्यूटर

कंप्यूटर स्मृति का एक टुकड़ा इस कार्ड में है दूसरा उसमें एक टुकड़ा यह विकल्प देता है कि स्मृति को हम बचपन जवानी या बुढ़ापे में बाँटें या बाँटें लिखने और पढ़ने के कौशल में या देखने सूँघने या चखने की आदत में बाँटने के अलग अलग विकल्पों की उलझन से हमें उबारता है एक और टुकड़ा हम बटनों पर बैठे हैं निर्जीव स्मृतियाँ अब चमत्कार नहीं हमारी उँगलियों के स्पर्श से पैदा करती हैं स्पर्धाएँ स्पर्धाओं में हार जीत अहं, रक्तचाप एक टुकड़ा बुझते ही बुझता है एक टुकड़ा प्यार चेतना और कंप्यूटर में तुलना चलती लगातार। १९९५ (उत्तर प्रदेश(पत्रिका)-मार्च १९९७)

प्रत्यक्षा, धन्यवाद!

यार लाल्टू, चिट्ठाकारी में मत फँस। अपना काम कर। इग्ज़ाम-शिग्ज़ाम करा। रिसर्च का काम देख। पर प्रत्यक्षा ने बच्चों पर इतना बढ़िया लिखा, उसके बारे में कुछ भी नहीं? चलो ढूँढो वह कविता जो चकमक के सौवें अंक में आई थी, जो पुलकी पर लिखी थी। 'भैया ज़िंदाबाद' संग्रह में है, कहाँ गई वह किताब.... पागल हो क्या, अरे नौ बजे इग्ज़ाम करवाना है, धत् तेरे की, आधे घंटे से मिल ही नहीं रही.... हे भगवान, चलो यह चकमक का सौवाँ अंक मिल गया, **************************************************** वो आईं गाड़ियाँ वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! बत्ती जो हो गई हरी वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! पुलकी खिड़की पे खड़ी वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! पुलकी बदमाश बड़ी खींच लाई कुर्सी खिड़की पे जा चढ़ी ओ हो हू हा ऊँची मंज़िल से चीखे पुलकी बार बार नीचे हल्ला गुल्ला दौड़ें खुल्लम खुल्ला रंग रंग की कार बहुत कहा मत करो शोर पुलकी न मानी न मानी रही अड़ी की अड़ी वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! अब बत्ती हो गई लाल कैसा हुआ कमाल छोटी गाड़ी बड़ी गाड़ी लाल गाड़ी पील...

दोस्तों, जवाब नहीं, कुछ बातें ही

मेरा दोस्त चेतन जो खुद लिखने के पचड़े में नहीं पड़ता, पीछे पड़ा है कि लोग सवाल उठाते हैं तो जवाब क्यों नहीं देते। आखिरकार उसने मजबूर किया कि रमण कौल के चिट्ठे में मेरे लिखे 'साझी लड़ाई' पर जो सवाल उठाए गए, उन्हें पढ़ूँ। मैं नहीं समझता कि किसी की तकलीफ को हम दो चार बातें कर के मिटा सकते हैं। इसलिए यह सोचना कि मैं कोई तर्कयुद्ध जीतने की कोशिश कर रहा हूँ, गलत होगा। बचपन से ही देश के बँटवारे और दंगों से पीड़ित लोगों की व्यथाएँ सुनते आया हूँ। मेरी माँ का बचपन पूर्व बंगाल (आज के बाँग्लादेश) में गुजरा। पिता पंजाबी सिख थे। मिर्ची यार, मेरा जद्दी गाँव (जैसा पंजाबी में कहते हैं) रामपुराफूल से थोड़ी दूर मंडी कलाँ (या गुलाबों की मंडी) है। बचपन में गाँव आते तो रात को सोने के पहले दादी से बँटवारे की कहानियाँ सुनते। यह भी सुना था कि किस तरह गाँव के मुसलमान आकर उससे पूछते थे कि गाँव के सरदार उनके बारे में क्या सोचते हैं। फिर एक दिन इस भरोसे के साथ कि तुम्हें सुरक्षित सीमा पार करवा देंगे मुसलमानों को गाँव के बाहर ले गए और वहाँ पहले से ही तलवारें और गँडासे लिए गुरु के सिख खड़े थे (अब सोचते हुए ...