Wednesday, July 03, 2024

2024

 ('समकालीन जनमत' के ताज़ा अंक में प्रकाशित कविताएँ)

1. 2024


अंकों का जोड़ आठ है

जन्मदिन के अंकों को जोड़ कर सोचूँ

तो न्यूमेरोलोजिस्ट कहाऊँगा

ग़नीमत कि ज़िंदा हूँ

क़ैद हूँ अपने खयालों में

फिलहाल जोड़ यही बता सकता है


आधे साल के आधे के दौरान बचपन का दोस्त याद आया

जिसके देवता जैसे नाम से ख़ौफ़ होता है

आखिरी दौर में पहाड़ों में छिप गया

जहाँ फ़ोन का नेटवर्क नाशाद था

आखिर बादल मुझ तक आए और मैं बादलों तक पहुँचा

तक़रीबन सत्तर साल की अपनी ग़लतियों का इतिहास सुनाया


याद आए मुझ जैसे बूढ़े होते मर्द औरत

तय किया कि एक-एक कर सबसे करूँगा प्रेम निवेदन

बादलों से सलाह लेते आधा साल बीत गया।


कुछ बादल साथ रख लिए

मंद स्वर में गीत गाते वे चक्कर लगाते हैं

कोई खुशी से बाँसुरी बजाता है

कहीं बीच में अड़ी कोई चट्टान

झटके से अलग होती है

पगडंडियों के दोनों ओर दरख्त झुक आते हैं

पत्तियाँ नाचती हैं


सब भूलने आया था

और सब याद करता रहा


हर कहीं हर कुछ जो नया है

हर पल वह हर कहीं है

क्या सब याद रहना लाज़िम है

तयशुदा वक़्फ़ों में बारिश होती है

यादों की बारिश हर पल होती है

सूरज भोर कभी शाम दिखता है

यादों का सूरज हर पल दिखता है

कुदरत पूछ जाती है

मौसम कैसा है भाई

कैसा कुहरा धँसा बैठा है अंदर


डालों पर बैठे ताकते पंछी कहते हैं

यह साल नाउम्मीदी का है

जैसे बीता हर साल रहा

फूल-पत्ते पंछी देखते हैं 
हर कहीं उड़ती एक बू है
पुजारी चिल्लाता हुआ धकेलता है
साँस रोक बढ़ता जाता हूँ
नथुनों में जलती घास की तीलियाँ लिए।

फूल मासूमियत में भौंरों से पूछते हैं
क्या हुआ 
अब किस तक पराग ले जाओगे
हमें फीका पड़ने ना देना,
भले घाटी भर जाए इस उड़ती बू से।

फूलों के रंग लाचार टिमटिमाते हैं
कहीं बैंगनी तो कहीं पीला आखिरी उमंग सा तड़प रहा है,
भौंरा, फूल, पत्ते हर कोई 
जानता है कि आगे अंत्येष्टि है

कुदरत का खेला कि
कटने-काटने के बावजूद सुर्खी नहीं मिटती,
लौट आती है दौड़ता नया ख़ून बन। 
सोग होते रहते हैं, पर अंत 
जश्न से होता है। 

भाले-बर्छे थामे अशरीरी संतरी पार कर

आधी उम्मीद ज़बरन घुसी आती है

ताबूत चमकते हैं नई रोशनी में
पौधे उग आते हैं 
भरपूर रंगों की बौछार में
भौंरे गीत गाते हैं कि इस साल बेहतर है फिज़ां।


2. क्या ठीक है?


कोई पाखी, कोई गीतकार आए, मुझे सुला जाए

कोई कह जाए कि सब ठीक है! अपनी चोंच से मुझे बूँद उम्मीद के पिला जाए

कोई नीले सपने दिखा जाए

या कि बच्चों के बीच मुझे लिटा जाए

क्या बच्चों के हाथ भी बम गोले हैं?

क्या धरती पर कहीं कोई बच्चा नहीं बचा जो मुझसे प्यार कर ले, जिसे मैं प्यार कर सकूँ?

क्या प्यार महज काँच की परत भर रह गई है?

जिस्म तड़पता है कि कोई मुझसे ही निकल कर मेरा दुश्मन बन गया है

मैं कैसे समझूँ कि सब ठीक है

क्या ठीक है? कौन ठीक है?

क्या आकाश ठीक है? समंदर ठीक है?

किस सपने में नीला रंग बचा है?

क्या नीला रंग ठीक है? क्या दिन और हफ्ते ठीक हैं? क्या रविवार सुबह चाय का प्याला ठीक है?


3. इन दिनों

इन दिनों कैसी कविता लिखोगे लाल्टू
दिन भर कभी सुडोकू तो कभी मूबी में
छिपने की जगह ढूँढते हो
मज़ाक नहीं, बच्चों से कहते कि हूँ महज फालतू

किस कुर्सी पर बैठे हो कैसी चुभती है पाछों पर
हाड़-मांस के बने हो बंधु, मानते हो
कि ज़ेहन इसी जिस्म में है
कैसे बचोगे आग से जो लगी है शाखों पर

हड्डियों की बात करें कि अभी दुरुस्त हो
इंतज़ार में हो कि कब दरवाज़े पर दस्तक होगी
अब तक हुई नहीं तो किन समझौतों के बल पर
किन खयालों में डूबे हो, हो पस्त पर सोचते कि मस्त हो

महँगी दारु पी नहीं सकते सस्ती पचती नहीं
क्या करोगे कैसे भूलोगे भुलाओगे 
थक गए हो झूठ के खिलाफ सच का साथ देते 
अब कोई राह कोई तरकीब जँचती नहीं     
उठ यार! चल प्यार की फौज के साथ है राब्ता तेरा
प्यार की ज़बान से है वास्ता तेरा।
लिखो जो जैसा है वह लिखो
वक्त आएगा, सुर्ख सपनों की शायरी आएगी
लिखो कि पीर ज्वाला बन धधकेगी
मोहब्बत के रंग लिए फुहारें आएँगी।


4. नींद

खुली खिड़कियों से हवा के साथ सन्नाटा चीरता 
ओल्ड बॉंबे हाइवे पर फुल स्पीड गुजरते ट्रक से शोर का ग़ुबार आता है
क्या यही है जो मुझे अल्फाज़ दे जाता है?
नींद में सुनता हूँ 
ख़ौफ़नाक लफ्ज़
कभी घबराकर गों-गों की आवाज़ निकालता हूँ

आखिर में शब्द ओढ़ लेता हूँ चादर की तरह
सोचता हूँ मुझे ढँक कर थम जाएँगे

नहीं थमते। थक कर नींद में उल्टी गिनती के गीत गाता हूँ 
कभी सुना था कि इससे नींद पक्की हो जाती है

आँखें भारी-सी होती हैं,
कहीं कोई बच्चा रोता है; वह चिल्लाता है और मुझे बुलाता है
झटके से जाग उठता हूँ और माँ को पुकारता हूँ

याद आता है कि माँ तो प्रकाश वर्षों दूर तारे में रहती है
इंटरनेट पर लिंक होगी जिस पर क्लिक करने पर      
माँ मिल जाएगी, अपनी बेवकूफी पर हँस पड़ता हूँ                    
और अँधेरे में खिड़की से आती आवाज़ें सुनता हूँ

ट्रक चलाने वाले को खुली सड़क मिली है
तेजी से सामान पहुँचता है देश के एक छोर से दूसरे छोर तक
किसका सामान है किसके लिए 
अचानक एहसास होता है कि पसीना छूट रहा है
चादर हटाता हूँ
कहीं से एक मच्छर गुनगुनाता आता है
कोसता हूँ खुद को कि मच्छरदानी नहीं लगाई
फिर चादर ओढ़ लेता हूँ
पसीने में ही सोने की कोशिश करता हूँ

अनचाहे ही फिर खयाल आता है माँ का। वह बच्चा कौन है
मनोवैज्ञानिक खयाल आते हैं - वह बच्चा मैं ही होऊँगा
फिर हँसी आती है

विज्ञान ज़ेहन में चलता रहता है
 बीज पिता को अंडा माँ ने क़ैद किया और मैं फूटा
एकबारगी वाक़ई जोर से हँस पड़ता हूँ  
और अब मैं हूँ, नींद की तलाश में 
परेशान तरह-तरह की छान-बीन करता।

मसलन मैं यहाँ हूँ, बिस्तर पर लेटा हुआ
और शून्य से जरा सा ज्यादा हूँ कहीँ और,   
जैसे कि जो मेरा लिखा पढ़ रहे हैं, उनके पास 
अभी जबकि उन्होंने यह लिखत पढ़ी नहीं है, हो सकता हूँ
कुएं के पानी सा ज़मीं के नीचे अनदेखी परतों में से बहता
लॉक-डाउन के सारे बंधन तोड़ मैं नगण्य सही,
थोड़ा सा हूँ उनके पास

किसी और के पास होने के खयाल से फिर आ रही नींद
माँ है मेरे पास ज़रा-सी
माथे पर उसका हाथ है
बच्चा उतर रहा मंद-गति  
नींद की घाटी में।


5. आओ

आँख में किरच की वजह है

इन दिनों हर मंज़र चुभता है

पर यह वजह नहीं

कि कहीं दूर पहाड़ या जंगल में जा बैठें

 
ज़ेहन की रगों में तड़प है 
हाँ ना के अनगिनत खेलों में उलझते हुए
हाँ ना के अनगिनत खेलों में उलझते हुए
भूलना मत कि खिड़की के बाहर 
दावानल है 
लपटों में विलीन हो रहीं सच की आत्माएँ 
तारे बन उड़ जा रही हैं
तमगों से सजे झूठ हर एहसास कुचल रहे हैं
पर यह वजह नहीं 
कि हम अपने-अपने गह्वरों में जा गिरें


सुनो, ऊबड़-खाबड़ ज़मीं पर खड़े प्यार करना 
गलबँहियों में एक-दूसरे के कानों में फिसफिसाना
थकन-पसीने की खुशबू साँसों में भर लेना
तारे बन चुके टिमटिमाते सच को वापस लाना है         
आओ अपनी हसरतों के साथ आओ
बढ़ते जाते अँधेरे को दुत्कार कर आओ
एहसास और ख़्वाब समेटते गीत गाते आओ
आँखें छलछल, दिलों में झंकार झनझनाते आओ।  
                                      
 6. ऐसे ही प्यार 

 किसी आदिम दुनिया में मुझे छोड़ आओ
धरती के एक कोने में उठी चीख दूसरे कोनों तक न पहुँचे
सुबहो-शाम खबरों में कोई जंग न हो
गोकि खबर ही न हो जहाँ अपनी या किसी और की
खबरें आएँ तो सेमल के रेशों पर सवार आएँ
और फूँक मार उन्हें उड़ाते हँसते अपनी खबर कहीं और भेज दें
जहाँ परदे पर चलते चूहे के इर्द-गिर्द रोशनी के चक्कर से 
ख़ून ठंडा न होता जाए हर पल
ज़रूरी नहीं कि पल भर में मेरे आँसू 
वाष्प बन बादलों के साथ उड़ कर तुम्हारे नथुनों तक पहुँचें
गर्द भरी राहों में मीलों साँसों की भाप ले चलने में मुझे कोई दिक़्क़त नहीं
या कि कोई बात कहना ही नहीं चाहता
मेरी शक्ल किसी भी इंसान में देखी जा सकती है
नाक, कान, आँखें वैसी ही,
क्यों कोई गैर-कुदरती तरीकों से मुझ तक पहुँचने में घंटों, दिनों, महीनों लगा रहे
मुझे दबी आवाज़ सही, कम कहने की ताकत दो
ऐसे ही मुझे प्यार कहना है।                                                                     

7. करीब रहो 

दूर होने की सुविधाएँ बढ़ गई हैं
मसलन मुझे बाँहों में जकड़ कर साँसों में समेटते हुए
कोई मुझसे बहुत दूर तक़रीबन चाँद तक सैर कर सकता है
करीब की तपिश मानो हमेशा रहेगी
यह खयाल साथ रख कोई धरती के ठंडे कोनों में चहलकदमी करता है
धुंध कुदरती है
आगे न दिखे तो करीब का सहारा रहेगा
इसी बहाने धुंध की चादरें फैलाता है कोई 

पत्ते मुझे छू जाते हैं
अचानक। भरोसा देता हूँ दरख्त को 
कि करीब हूँ। बाक़ी शहर जश्न में मशगूल है
कि कुछ बदलने को है, दरख्त लंबी साँस खींचते  
मुझे ढँकता फिसफिसाता है
करीब रहो। 
अनदेखे रंगों की चौंध में खोया है कोई
शहर दर शहर सबको दिखलाता है जो नहीं दिखता सचमुच
जीत के तिलिस्म में लगातार डूबता हारता कोई

करीब हवा धीमी है
तूफान के सपने में उड़ता है कोई
पत्ते सिहरते हैं दरख्त फिसफिसाता है
करीब रहो           

छुअन की तलाश में जो चकरा रहा धरती के चारों ओर 
उसे खबर कहाँ कि 
उसकी आंखों में मैं बरसता हूं।
अनजाने ही खुद को चोट पहुँचाता रोता कोई
किसी को विदा कहता है
 दरख्त उसके अंदर ठोस प्यार बन आता है
                                                    
मैं गीत गाता हूं 
पत्तों को छूता हूँ, कपड़े उतार सारी कायनात को 
खुद में शामिल करता हूँ
दरख्त फिसफिसाता है
करीब रहो।

8. छोटे-छोटे डर
कहाँ हो रामचंदर मिसिर?
सपने में कभी दिख जाते रोते हुए
जैसे हर कोई रोता है

सपने में चौंक पड़ता हूँ 
किसी को नसीहतें देता हूँ 
या कि खुद के मुखातिब होता हूँ
जाग उठता हूँ कि कोई चूहा रसोई में उछल रहा है
बर्तनों की आवाज़ में डर का बहाना ढूँढता
वाक़ई खुद से पूछता हूँ 

बचपन लौट आता सत्तर की दहलीज तक
छोटे-छोटे डर हुआ करते थे जब
आज डर कई रंगों में पेश होता है 
कभी कैंसर तो कभी गुर्दों की खराबी बनता है
कभी महज किसी का क़त्ल होता है

अब हिसाब रखना मुश्किल है कि किसकी हत्या कौन कर रहा है
दिन मरा या रात मरी किसको खबर
जब अपनी ही मौत जीते हैं कई बार

बहस है कि इंसान का नाम रामचंदर हो सकता है
और स्वदेश दीपक तुम्हारा नाम लेकर ग़ायब हो जाता है
बस यूँ ही बिंबों प्रतीकों में सोचता रहता हूँ
क्या तुम अपने नाम पर जै जै करते हो
सोचता हूँ कि ज़िंदा भी हो या नहीं
कब जानता था कि तुम्हारा नाम ऐसा ख़ौफ़नाक हो सकता है। 

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