जैसे
यही सच है
जैसे समंदरों पार वह इंतज़ार में
रहती है कि
मैं
फ़ोन करूँ
सोचता
हूँ तो कई बार
मन
करता है कि फूट पड़ूँ कहूँ कि
तुम्हें
कभी नहीं फ़ोन करना चाहता
वह
फिर भी इंतज़ार करती है
कि
फ़ोन आते ही कहे
सोच
रही थी तू मुझे भूल गया होगा
मैं
कहता हूँ अच्छा
कभी
नहीं कहता कि काश भूल पाता
काश
कि जन्म लेते ही किसी और सृष्टि
में
चला
गया होता
मेरा
घर सचमुच ही किसी और ग्रह में
है
अपने
घर में बैठा रहता हूँ
महीनों
बाद मिलता हूँ
फिर
भी अपने ही ग्रह में होता हूँ
गर्म
दाल-भात
और आलू-पोस्ता
खाते हुए
भीगता
रहता हूँ ग्रहों पार से आते
उसके
रुके हुए आँसुओं में
उसकी
झुर्रियों में अब संतोष नहीं दिखता
कि
मैं उंगलियाँ चाट कर खा लेता
हूँ
महीनों
बाद उसके हाथों का बना
साल
दर साल चाह कर भी नहीं कह पाऊँगा
कि
मैंने कभी चाहा था कोई और जीवन।
('कोई लकीर सच नहीं होती' संग्रह से)
Comments