My Photo
Name:
Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Monday, October 29, 2012

सुनील गांगुली की तीन कविताएँ

(बांग्ला से अनूदित)
इनमें से दो कल जनसत्ता रविवारी में प्रकाशित हुई हैं।


किसी ने अपनी बात न रखी

किसी ने अपनी बात न रखी, तैंतीस बरस गुज़र गए, किसी ने अपनी बात न रखी

बचपन में एक जोगन अपना आगमनी गीत अचानक रोक क कह गई थी
शुक्ल द्वादशी के दिन अंतरा सुना जाएगी
फिर कितनी चाँद निगली अमावस गुज़र गईं
पर वह जोगन कभी न लौटी
पच्चीस सालों से इंतज़ार में हूँ।

मामा के गाँव का माझी नादिर अली कहता था, बड़े हो लो भैया जी,
तुम्हें मैं तीसरे पहर का पोखर दिखलाने ले जाऊँगा
वहाँ कमल के फूल पर ढ़ साँप और भौंरे साथ खेलते हैं!
नादिर अली! मैं और कितना बड़ा होऊँगा? मेरा सिर इस घर की छत
फोड़ आस्मान छू ले तो तुम मुझे तीसरे पहर का पोखर दिखलाओगे?

एक भी बड़ा कंचा खरीद न पाया कभी
काठी वाला लवंचूस दिखा-दिखाकर चूसते रहे लस्करों के बेटे
मंगतों की तरह चौधरीओं के गेट पर खड़े देखा भीतर चल रहा रास-उत्सव
लगातार रंगों की बौछार में सोने के कंगन पहनी
गोरी रमणियाँ
किस्म किस्म की रंगरेलियों में वे हँसती रहीं
मेरी ओर उन्होंने मुड़ कर भी नहीं देखा!
पिता ने मेरा कंधा छकर कहा था, देखना, किसी दिन हमलोग भी....
पिता अब दृष्टिहीन हैं, हमने कुछ भी देखा नहीं
वह बड़ा कंचा, वह काठी वाला लवंचूस, वह रास-उत्सव
मुझे कोई नहीं लौटाएगा!

सीने में सुगंधित रुमाल रख वरुणा ने कहा था
जिस दिन मुझे सचमुच प्यार करोगे
उस दिन मेरे भी सीने में ऐसी इत्र की महक होगी!
प्रेम के लिए मुट्ठियों में जान रखी
खौफनाक साँड़ की आँखों को लाल कपड़े से बाँधा
कायनात का कोना कोना ढूँढ ले आया ‍108 नील कमल
फिर भी वरुणा ने बात न रखी, अब उसके सीने से महज जिस्म की बू आती है
अब भी वह कोई भी औरत है।

किसी ने अपनी बात न रखी, तैंतीस रस गुज़र गए, कोई अपनी बात नहीं रखता है!



-->


चाय की दूकान पर


लंदन में है लास्ट बेंच पर होता जो डरपोक परिमल,
रथीन अब है साहित्य का मठाधीश
सुना है दीपू ने चलाई है बड़ी कागज़ की मिल
और पाँच चायबागानों में है हिस्सा प्रतिशत चालीस
फिर भी मौका मिले तो हो जाता है देशसेवक;

ढाई दर्जन तिलचट्टे छोड़ क्लास रुकवाई जिसने वह पागल अमल
वह आज बना है नामी अध्यापक!
अद्भुत उज्ज्वल था जो सत्यशरण
उसने क्यों खुद का गला काटा चला तेज खुर-
अब भी दिखता वह दृश्य तो होती सिहरन
पता था कि दूर जा रहा था, पर इतनी दूर?

नुक्कड़ की चाय की दूकान पर अब है कोई नहीं
कभी यहाँ हम सब सपनों में थे जागते
एक किशोरी के प्रेम में डूबे थे हम एकसाथ पाँच जने
आज यह कि याद न उस लड़की का नाम कर पाते।


बस कविता के लिए


बस कविता के लिए है यह जीवन, बस कविता
के लिए कुछ खेला, हूँ बस कविता के लिए अकेला इस ठंडी शाम की बेला
धरती पार कर आना, बस कविता के लिए
एकटक सुंदर शक्ल की शांति एकझलक
बस कविता के लिए हो तुम स्त्री, बस
कविता के लिए यह खूनखराबा, बादलों से यह गंगाधारा
बस कविता के लिए, और भी लंबी उम्र जीने का जी करता है।
ज़िंदा रहना है इंसान की तरह विक्षोभ भरा, बस
कविता के लिए मैंने अमरता को तुच्छ है माना।

Labels: ,

2 Comments:

Blogger azdak said...

अच्‍छा चयन.

9:31 AM, October 30, 2012  
Blogger प्रदीप कांत said...

किसी ने अपनी बात न रखी, तैंतीस बरस गुज़र गए, कोई अपनी बात नहीं रखता है!
__________________________________


बिल्कुल आमा आदमी के संत्रासों की कविता है

10:09 PM, November 03, 2012  

Post a Comment

<< Home