Tuesday, November 17, 2009

वहीं रख आया मन

उन्हीं इलाकों से वापस मुड़ना है
वहीं से गुजरते हुए
देखना है वही पेड़, वही गुफाएँ

* *

आँखें बूढ़ी हुईं
पेट बूढ़ा हुआ
रह गया अभागा मन
तलाशता वहीं जीवन

* *

चार दिनों में कोई लिखता
हरे मटर की कविता
मैं बार बार ढूँढता शब्द
देखता हर बार छवि तुम्हारी

* *

उन गुजरते पड़ावों पर
अब सवारी नहीं रुकती
बहुत दूर आ चुका हूँ
वहीं रख आया मन
वही ढूँढता चाहता मगन।

7 comments:

निर्मला कपिला said...

उन गुजरते पड़ावों पर
अब सवारी नहीं रुकती
बहुत दूर आ चुका हूँ
वहीं रख आया मन
वही ढूँढता चाहता मगन।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है । शुभकामनायें

Anup sethi said...

बहुत अच्‍छे! पिछले हफ्ते यहां भी बारि‍श हुई थी. मन अल्‍ली मिट्टी सा होने लगा. यह कविता पढ़ कर भी. मानो बार‍िश हो के चुकी है.

Sunil Aggarwal said...

लाल्टू भाई,
वही महक आज भी. पीछे आपकी एक कविता फेसबुक पर डाली थी और अमित और आशीष का जवाब भी आया था. इच्छा होती आपको रिकॉर्ड करके सब दोस्तों के लिए नेट पर डाल दूं और फिर से उस अड्डे को जिंदा कर दूं. आप कहेगें भावुक क्यूं हो रहे हो पर वो दिन नहीं भूलते जब आपके साथ बिताये वक़्त की याद आती है. यहाँ कुछ लोगों को ब्लॉग्गिंग और सिनेमा की आदत तो डालने में सफल हो पाया हूँ पर अब कविताएँ कम और दर्शन की बातें ज्यादा लिखता हूँ. पर बीच-बीच में केदारनाथ सिंह को पढता रहता हूँ और इधर नवतेज भारती को पंजाबी में खूब कमाल की कविता करते पाया है. आपकी याद आती है . हो सके तो कभी इस तरफ आना हो तो फ़ोन भर कर दीजियेगा. नंबरहै 9888800322

शरद कोकास said...

अच्छा लग रहा है आपको पढ़ना ।

शरद कोकास said...

manoj ka no. 09823434231

anilpandey said...

kitna sundar sahaj hai andaaje byaan aapka .

प्रदीप कांत said...

चार दिनों में कोई लिखता
हरे मटर की कविता
मैं बार बार ढूँढता शब्द
देखता हर बार छवि तुम्हारी

सुन्दर अभिव्यक्ति