अक्सर मैं चिट्ठा लिखने की सोचते ही रहता हूँ। पूरा नहीं कर पाता। यह कोई महीने भर पहले लिखा था। अधूरा ही रह गया:
द हिंदू में तनवीर अहमद का अपनी नानी के भाई बहन के साथ मिलन पर मार्मिक आलेख पढ़ा। ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ पढ़ते सुनते रहे हैं, कितनी कितनी बार मन दहाड़ें मार कर रोने को होता है, पर दुनिया जैसी है, वैसी है और हम अवसाद के बवंडर में अगले दिनों की ओर चलते रहते हैं। तनवीर ने कहा है कि हालांकि काश्मीर के लोग अब एक साथ होने को तैयार हैं, पर पंजाब के लोग अभी भी ऐसा नहीं होने देंगे। इससे मुझे एक तो जरा असहमति है, साथ ही कई पुरानी बातें याद आ गईं।
पोखरन-कहूटा परमाणु विस्फोट और कारगिल युद्ध के बाद हम लोगों ने चंडीगढ़ में साइंस ऐंड टेक्नोलोजी अवेयरनेस ग्रुप के नाम से हिरोशिमा नागासाकी पर तैयार किया एक स्लाइड शो दिखाना शुरु किया था। इसका प्रत्यक्ष उद्देश्य नाभिकीय युद्ध से होने वाले ध्वंस के बारे में लोगों को जागरुक करना था। पर इस मुहिम में शामिल हर कोई जानता था कि बी जे पी सरकार के शुरुआती दिनों में के पाकिस्तान के प्रति नफरत फैलाना सांप्रदायिक ताकतों के एजेंडे में था और हम इसके खिलाफ काम कर रहे थे। अब याद नहीं कितने स्कूलों में, कितने सामुदायिक केंद्रों में हमने वह स्लाइड शो दिखाया। प्रसिद्ध लोक नाटककार भ्रा गुरशरण सिंह जी ने शो के स्क्रिप्ट के आधार पर एक नाटक तैयार किया और वह भी चंडीगढ के सेक्टर १७ पलाजा से लेकर पंजाब के कई गाँवों में दर्जनों बार खेला गया। मैं दर्जनों अतिशयोक्ति में नहीं लिख रहा हूँ। मुझे कई बार यह सोचकर तकलीफ होती है कि हमारे मुल्क में जनांदोलनों की गतिविधियों के दस्तावेज तैयार नहीं किए जाते और कितने लोगों की अकथ्य मेहनत इतिहास के पन्नों में गुम हो जाती है। बहरहाल हम तो एक बहुत बड़े सांप्रदायिकता और युद्ध विरोधी आंदोलन का एक छोटा हिस्सा मात्र थे, जो सन् २००० तक शिखर पर पहुँचने लगा था। धीरे धीरे मुख्यधारा के राजनैतिक दलों को यह समझ में आने लगा था कि आम पंजाबी यह नहीं चाहते कि सरहद के दोनों ओर लोगों में कोई वैमनस्य रहे। विश्व स्तर पर इधर के और उधर के पंजाबियों में सांस्कृतिक स्तर पर मेलजोल के प्रयास होने लगे थे। पर यह एक उफान की तरह उमड़ कर आएगा, ऐसी कल्पना शायद किसी ने तब भी न की थी। १९९९ में मैं पंजाब विश्वविद्यालय शिक्षक संघ का सचिव बना। चंडीगढ़ का पंजाब विश्वविद्यालय डेढ़ सौ साल पुराने लाहौर के पुराने पंजाब विश्वविद्यालय का ही हिस्सा माना जाता है, हालांकि लाहौर वाले ऐसा नहीं मानते हैं। दोनों के अंग्रेज़ी नामों में जरा सा फर्क है। चंडीगढ़ की यूनिवर्सिटी के नाम में पंजाब को Panjab लिखा जाता है, जबकि लाहौर में Punjab। बहरहाल मैंने इस खयाल का फायदा उठाते हुए प्रयास शुरु किए कि लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ के साथ संगठन के स्तर पर संपर्क किया जाए। मैंने लाहौर कैंपस के कुलाधिपति, जो कोई सैन्य अधिकारी था, से संपर्क करने की कोशिश की। और मैं पूरी तरह असफल रहा। अध्यापक संघ के दूसरे पदाधिकारी मेरे कैंपस से बाहर की गतिविधियों से बहुत ज्यादा वास्ता तो न रखते थे, पर उनका कोई विरोध भी न था। साथ ही अध्यक्ष प्रोफेसर पी पी आर्य ने पूरी छूट दी हुई थी कि मैं तरक्कीपसंद खयालों के मुताबिक कुछ भी करुँ तो वह मेरे साथ थे। खैर वह साल बीत गया और मैं संगठन के पद का अपने इस उद्देश्य के लिए फायदा न उठा पाया। पर इसी बीच मैं और दोस्तों से बातचीत करता रहा और किसी तरह परवेज हुदभाई से संपर्क हुआ। परवेज पाकिस्तान का विश्व स्तर पर प्रसिद्ध सैद्धांतिक भौतिक शास्त्री है और साथ ही शांति आंदोलन में बहुत बड़ा नाम भी है। भारत के जन विज्ञान आंदोलन की ओर से परवेज को कलिंग पुरस्कार दिया जाना था, पर भारत और पाकिस्तान दोनों सरकारें इस में अड़चन बनी हुईं थीं। अब याद नहीं कि किस स्टेज पर परवेज ने लिखा कि वह तो आ नहीं सकता (बाद में २००५ में परवेज आया था और उसे तीन साल बाद वह पुरस्कार दिया गया), पर लाहौर यूनिवर्सिटी के मैनेजमेंट साइंसेस (LUMS) के सरमद अब्बासी को कहा जाए तो शायद सरकारों को उसके हिंदुस्तान आने पर आपत्ति न होगी। इसी बीच चंडीगढ तो नहीं पर दिल्ली से कई सक्रिय साथी शांति यात्राओं में सक्रिय हो रहे थे और दिल्ली विश्वविद्यालय से एक अध्यापक अपने विद्यार्थियों के साथ पाकिस्तान घूम आया था। तो मैंने सरमद से संपर्क किया। २००३ में शिक्षक संगठन का अध्यक्ष चुना गया और तुरंत मैंने सरमद अब्बासी को चंडीगढ़ लाने की तैयारी शुरु की। आखिर सरमद और लम्स के छः विद्यार्थी चंडीगढ़ पहुँचे।
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इसके बाद लिख नहीं पाया, जबकि इसके बाद की बहुत सारी बातें हैं जिन्हें लिखा जाना चाहिए। हो सकता है कोई और दोस्त जो इस प्रकिया में शामिल थे, इस पर लिखें।
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पिछले हफ्ते एक और चिट्ठा लिखना शुरु किया था - वह तो दो लाइनों से आगे भी नहीं पहुँचा। वह भी द हिंदू की ही एक खबर पर था जिसमें लिखा था कि छत्तीसगढ़ में पुलिस वालों या सलवा जुडुम वालों ने एक आदिवासी बच्चे की उँगलियाँ काट दी हैं ताकि उसके माँ बाप माओवादियों के बारे में सूचना दें। बेचारे माँ बाप डर के मारे कुछ बतलाना नहीं चाहते और मारे मारे भाग रहे हैं कि कहीं फिर कोई उन पर हमला न कर बैठे। ऐसी खबरों को पढ़ कर आश्चर्य होना चाहिए, पर होता नहीं है। सम्पन्न वर्गों की क्रूर उदासीनता में जी रहे हम लोग इस बात से बेखबर से हैं कि सरकार ने जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। गृह मंत्री इसे युद्ध कहना नहीं चाहता, क्योंकि यह ऐसा युद्ध है, जिसमें सभी मानव अधिकारों को तिलांजलि दे दी गई है। अब नागरिक अधिकार संस्थाओं की रीपोर्ट आई है, जिसमें खनिज खुदाई और व्यापार से जुड़े पूँजी मालिकों के हित में सरकार द्वारा छेड़े इस युद्ध की सच्चाई का पूरा ब्यौरा है। मध्यवर्ग के लोगों को नागरिक अधिकार या मानव अधिकार जैसे शब्दों से एलर्जी होती है, क्योंकि अपनी सच्चाइयों से रुबरु होने में हमें तकलीफ होती है। इसलिए भाइयो, इंडिया टूडे में आकाश बनर्जी का यह पोस्ट पढ़ लो। इसकी कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ -
First Question- Will 'Operation Green Hunt' be successful?
Honestly the answer is a big NO. Call me a Naxal sympathizer, but like me, if you ever face the brutal wrath of the local police in heartland India - your world view will witness a paradigm shift within seconds. I was in West Bengal last July - covering the offensive launched by the state administration to counter the Naxals in Lalgarh. It was here, during one of the shoots that my cameraperson and I were chased down a road in Midnapore district by the West Bengal police and hit with sticks.
Our crime??? We had dared to shoot the police breaking down doors and hauling up village youngsters for 'questioning'. (What happens in these 'questionings' I don't need to tell you) When journalists could be treated like dogs by the police - I began to grasp the plight of the local villagers who don't have a voice - or redressal system of any sort. The moral of the story is very simple - between the two evils of Naxalism and Police, the tribals choose the former. At least Naxals don't rape, maim and kill without reason.
वैसे यह तो बहुत बड़ा आश्चर्य है ही कि सूचना-क्रांति के इस युग में निरंतर अन्यायों व अत्याचारों से भरपूर हमारे जैसे समाज आज भी टिके हुए हैं। पर इतिहास यही बतलाता है कि बड़ी सी बड़ी भी दमनकारी ताकतें भी विरोध को हमेशा के लिए खत्म नहीं कर पातीं और इंसान है ही ऐसा जंतु कि बार बार विद्रोह के लिए उठ खड़ा होता है।
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एक मित्र ने जेम्स ब्राइडल के A New THEORY of
AWESOMENESS and MIRACLES शीर्षक एक रोचक व्याख्यान पर यह लिंक पोस्ट किया है।
द हिंदू में तनवीर अहमद का अपनी नानी के भाई बहन के साथ मिलन पर मार्मिक आलेख पढ़ा। ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ पढ़ते सुनते रहे हैं, कितनी कितनी बार मन दहाड़ें मार कर रोने को होता है, पर दुनिया जैसी है, वैसी है और हम अवसाद के बवंडर में अगले दिनों की ओर चलते रहते हैं। तनवीर ने कहा है कि हालांकि काश्मीर के लोग अब एक साथ होने को तैयार हैं, पर पंजाब के लोग अभी भी ऐसा नहीं होने देंगे। इससे मुझे एक तो जरा असहमति है, साथ ही कई पुरानी बातें याद आ गईं।
पोखरन-कहूटा परमाणु विस्फोट और कारगिल युद्ध के बाद हम लोगों ने चंडीगढ़ में साइंस ऐंड टेक्नोलोजी अवेयरनेस ग्रुप के नाम से हिरोशिमा नागासाकी पर तैयार किया एक स्लाइड शो दिखाना शुरु किया था। इसका प्रत्यक्ष उद्देश्य नाभिकीय युद्ध से होने वाले ध्वंस के बारे में लोगों को जागरुक करना था। पर इस मुहिम में शामिल हर कोई जानता था कि बी जे पी सरकार के शुरुआती दिनों में के पाकिस्तान के प्रति नफरत फैलाना सांप्रदायिक ताकतों के एजेंडे में था और हम इसके खिलाफ काम कर रहे थे। अब याद नहीं कितने स्कूलों में, कितने सामुदायिक केंद्रों में हमने वह स्लाइड शो दिखाया। प्रसिद्ध लोक नाटककार भ्रा गुरशरण सिंह जी ने शो के स्क्रिप्ट के आधार पर एक नाटक तैयार किया और वह भी चंडीगढ के सेक्टर १७ पलाजा से लेकर पंजाब के कई गाँवों में दर्जनों बार खेला गया। मैं दर्जनों अतिशयोक्ति में नहीं लिख रहा हूँ। मुझे कई बार यह सोचकर तकलीफ होती है कि हमारे मुल्क में जनांदोलनों की गतिविधियों के दस्तावेज तैयार नहीं किए जाते और कितने लोगों की अकथ्य मेहनत इतिहास के पन्नों में गुम हो जाती है। बहरहाल हम तो एक बहुत बड़े सांप्रदायिकता और युद्ध विरोधी आंदोलन का एक छोटा हिस्सा मात्र थे, जो सन् २००० तक शिखर पर पहुँचने लगा था। धीरे धीरे मुख्यधारा के राजनैतिक दलों को यह समझ में आने लगा था कि आम पंजाबी यह नहीं चाहते कि सरहद के दोनों ओर लोगों में कोई वैमनस्य रहे। विश्व स्तर पर इधर के और उधर के पंजाबियों में सांस्कृतिक स्तर पर मेलजोल के प्रयास होने लगे थे। पर यह एक उफान की तरह उमड़ कर आएगा, ऐसी कल्पना शायद किसी ने तब भी न की थी। १९९९ में मैं पंजाब विश्वविद्यालय शिक्षक संघ का सचिव बना। चंडीगढ़ का पंजाब विश्वविद्यालय डेढ़ सौ साल पुराने लाहौर के पुराने पंजाब विश्वविद्यालय का ही हिस्सा माना जाता है, हालांकि लाहौर वाले ऐसा नहीं मानते हैं। दोनों के अंग्रेज़ी नामों में जरा सा फर्क है। चंडीगढ़ की यूनिवर्सिटी के नाम में पंजाब को Panjab लिखा जाता है, जबकि लाहौर में Punjab। बहरहाल मैंने इस खयाल का फायदा उठाते हुए प्रयास शुरु किए कि लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ के साथ संगठन के स्तर पर संपर्क किया जाए। मैंने लाहौर कैंपस के कुलाधिपति, जो कोई सैन्य अधिकारी था, से संपर्क करने की कोशिश की। और मैं पूरी तरह असफल रहा। अध्यापक संघ के दूसरे पदाधिकारी मेरे कैंपस से बाहर की गतिविधियों से बहुत ज्यादा वास्ता तो न रखते थे, पर उनका कोई विरोध भी न था। साथ ही अध्यक्ष प्रोफेसर पी पी आर्य ने पूरी छूट दी हुई थी कि मैं तरक्कीपसंद खयालों के मुताबिक कुछ भी करुँ तो वह मेरे साथ थे। खैर वह साल बीत गया और मैं संगठन के पद का अपने इस उद्देश्य के लिए फायदा न उठा पाया। पर इसी बीच मैं और दोस्तों से बातचीत करता रहा और किसी तरह परवेज हुदभाई से संपर्क हुआ। परवेज पाकिस्तान का विश्व स्तर पर प्रसिद्ध सैद्धांतिक भौतिक शास्त्री है और साथ ही शांति आंदोलन में बहुत बड़ा नाम भी है। भारत के जन विज्ञान आंदोलन की ओर से परवेज को कलिंग पुरस्कार दिया जाना था, पर भारत और पाकिस्तान दोनों सरकारें इस में अड़चन बनी हुईं थीं। अब याद नहीं कि किस स्टेज पर परवेज ने लिखा कि वह तो आ नहीं सकता (बाद में २००५ में परवेज आया था और उसे तीन साल बाद वह पुरस्कार दिया गया), पर लाहौर यूनिवर्सिटी के मैनेजमेंट साइंसेस (LUMS) के सरमद अब्बासी को कहा जाए तो शायद सरकारों को उसके हिंदुस्तान आने पर आपत्ति न होगी। इसी बीच चंडीगढ तो नहीं पर दिल्ली से कई सक्रिय साथी शांति यात्राओं में सक्रिय हो रहे थे और दिल्ली विश्वविद्यालय से एक अध्यापक अपने विद्यार्थियों के साथ पाकिस्तान घूम आया था। तो मैंने सरमद से संपर्क किया। २००३ में शिक्षक संगठन का अध्यक्ष चुना गया और तुरंत मैंने सरमद अब्बासी को चंडीगढ़ लाने की तैयारी शुरु की। आखिर सरमद और लम्स के छः विद्यार्थी चंडीगढ़ पहुँचे।
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इसके बाद लिख नहीं पाया, जबकि इसके बाद की बहुत सारी बातें हैं जिन्हें लिखा जाना चाहिए। हो सकता है कोई और दोस्त जो इस प्रकिया में शामिल थे, इस पर लिखें।
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पिछले हफ्ते एक और चिट्ठा लिखना शुरु किया था - वह तो दो लाइनों से आगे भी नहीं पहुँचा। वह भी द हिंदू की ही एक खबर पर था जिसमें लिखा था कि छत्तीसगढ़ में पुलिस वालों या सलवा जुडुम वालों ने एक आदिवासी बच्चे की उँगलियाँ काट दी हैं ताकि उसके माँ बाप माओवादियों के बारे में सूचना दें। बेचारे माँ बाप डर के मारे कुछ बतलाना नहीं चाहते और मारे मारे भाग रहे हैं कि कहीं फिर कोई उन पर हमला न कर बैठे। ऐसी खबरों को पढ़ कर आश्चर्य होना चाहिए, पर होता नहीं है। सम्पन्न वर्गों की क्रूर उदासीनता में जी रहे हम लोग इस बात से बेखबर से हैं कि सरकार ने जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। गृह मंत्री इसे युद्ध कहना नहीं चाहता, क्योंकि यह ऐसा युद्ध है, जिसमें सभी मानव अधिकारों को तिलांजलि दे दी गई है। अब नागरिक अधिकार संस्थाओं की रीपोर्ट आई है, जिसमें खनिज खुदाई और व्यापार से जुड़े पूँजी मालिकों के हित में सरकार द्वारा छेड़े इस युद्ध की सच्चाई का पूरा ब्यौरा है। मध्यवर्ग के लोगों को नागरिक अधिकार या मानव अधिकार जैसे शब्दों से एलर्जी होती है, क्योंकि अपनी सच्चाइयों से रुबरु होने में हमें तकलीफ होती है। इसलिए भाइयो, इंडिया टूडे में आकाश बनर्जी का यह पोस्ट पढ़ लो। इसकी कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ -
First Question- Will 'Operation Green Hunt' be successful?
Honestly the answer is a big NO. Call me a Naxal sympathizer, but like me, if you ever face the brutal wrath of the local police in heartland India - your world view will witness a paradigm shift within seconds. I was in West Bengal last July - covering the offensive launched by the state administration to counter the Naxals in Lalgarh. It was here, during one of the shoots that my cameraperson and I were chased down a road in Midnapore district by the West Bengal police and hit with sticks.
Our crime??? We had dared to shoot the police breaking down doors and hauling up village youngsters for 'questioning'. (What happens in these 'questionings' I don't need to tell you) When journalists could be treated like dogs by the police - I began to grasp the plight of the local villagers who don't have a voice - or redressal system of any sort. The moral of the story is very simple - between the two evils of Naxalism and Police, the tribals choose the former. At least Naxals don't rape, maim and kill without reason.
वैसे यह तो बहुत बड़ा आश्चर्य है ही कि सूचना-क्रांति के इस युग में निरंतर अन्यायों व अत्याचारों से भरपूर हमारे जैसे समाज आज भी टिके हुए हैं। पर इतिहास यही बतलाता है कि बड़ी सी बड़ी भी दमनकारी ताकतें भी विरोध को हमेशा के लिए खत्म नहीं कर पातीं और इंसान है ही ऐसा जंतु कि बार बार विद्रोह के लिए उठ खड़ा होता है।
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एक मित्र ने जेम्स ब्राइडल के A New THEORY of
AWESOMENESS and MIRACLES शीर्षक एक रोचक व्याख्यान पर यह लिंक पोस्ट किया है।
11 comments:
लाल्टू जी नमस्कार । सबसे पहले तो यह कि मुझे आपका यह ब्लॉग देख कर प्रसन्नता हुई । आपकी कविताओं के तो हम फैन है हीं । उम्मीद है अब मुलाकात होती रहेगी । इन विचारों पर मै बाद में लिखूंगा ।
शरद कोकास ( पहल मे प्रकाशित लम्बी कविता "पुरातत्ववेत्ता " शायद आपको याद हो)
मेरा ब्लॉग शरद कोकास http://kavikokas.blogspot.com
पुरातत्ववेत्ता
http://sharadkokas.blogspot.com
इस ब्लॉग में आपके पेश किए काफ़ी विचारों से असहमति रखता हू. परमाणु विस्फोट बी जे पी की संपरदायकता का सबूत नहीं थे बलकि बी जे पी की भारत की सुरक्षा की निष्ठा का सबूत है. आम पाकिस्तानी कितना भी भारत को अपना मानता हो, पर यह कहना की पाकिस्तान सरकार भीभारत को प्रतिद्वंदी नहीं भाई मानती है, अंधेरे में रहने के बराबर है.
About the naxals:
I wonder you chose to give reference to such words: "At least Naxals don't rape, maim and kill without reason."
If the writer is not naxal sympathizer he seems to be a violence sympathizer. If naxals has a reason to kill someone, why cant Indian government have a reason to kill a killer?
दरअसल हम सबने दुःख भी प्रान्त के माफिक बांट लिये है .उसके हिस्से का दुःख ..इसके हिस्से का दुःख ...मन भी रिमूत से कंट्रोल होने लगा है .एक दुःख देखकर दो मिनट च च कर हम इतिश्री मान लेते है ओर अपने रास्ते चल लेते है .सूचना क्रांति के इस कर्न्तिकारी युग में असल क्रांति तो भी आयी नहीं है ..सूचनाये केवल कुछ खास तबको के इर्द गिर्द सिमटी है ओर सूचनाये बटोरने वाले भी ....
आप जैसे लोग जब लिखना कम करते है तो अफ़सोस होता है .क्यूंकि कोई न कोई तो आपको पढेगा ही कही भी....कोई तो विचार उठेगा उसके मन में पढ़ के
Thanks for the thought-provoking posts, both of them, Laltu.
Suresh, with due respect to your views, what justification do you have for police beating up journalists covering their unwarranted atrocities? Please come prepared to answer all uncomfortable questions before taking an overtly nationalistic stance.
@Bhaswati
Firstly, it is Sukesh(not Suresh), as it is not Shakespearean age(what's in name).
I am neither nationalistic nor anti-nationalistic, I try to reach a conclusion by reason.
Coming to point, I don't have any justification for police beating up journalists. But I am not the one who will take journalist's say on its face value. The scenario could be anything like journalist might be going into prohibited area or police was just too frustrated and made him a vent. In any case, beating is not justified but the point is he himself might be provoking it.
Now just to be clear, the entire point was violence against law is not justified. I pin-pointed only this part: "At least Naxals don't rape, maim and kill without reason."
Whether somebody is hungry or justice is not being done to him, it doesn't give a reason/justification to kill/rape some innocent soul and to go against law.
Whether you start Green Hunt or you revoke it, Naxalites can not be stopped from violence. So even if Green Hunt gives a 10% chance of eradicating Naxalites, it is in favor of a better society.
About the human right violations of such programs:
Whether it looks wrong or right to you I am one of those people who thinks if killing five thousand innocents can save the lives of five lakh, then it is justified. Take the example of Operation Blue Star. A lot of innocent lives were lost, religious sanctity was hindered, but in the end Punjab got rid of terrorism that was worst than one in Kashmir.
लाल्टू जी नमस्ते :)
'ऑपरेशन ग्रीन हंट' पर आपके विचार पढ़ कर अच्छा लगा. ये बात सही है कि आदिवासी और मुख्यधारा से दूर रह गए लोग सिस्टम का जो चेहरा देख पाते हैं, (पुलिस, स्थानीय डॉक्टर, अन्य सरकारी कारिंदे) वह अधिकतर शोषक रूप लिए होता है. यह सही है कि जंगलों में सरकार का जो जंगल राज था, उसके खिलाफ विद्रोह आज नहीं तो कल होना ही था. परन्तु सवाल ये उठता है कि नक्सली हिंसा जो रूप धारण कर चुकी है, क्या वह समस्या का समाधान है? हर रंग के अंतर राष्ट्रीय आतंकवादिओं का समर्थन प्राप्त यह हिंसा उन आदिवासिओं को पाशविकता के सिवा क्या दे सकती है? यह कुछ वैसा ही है जैसा की रूसिओं के खिलाफ शुरू हुई अफगान हिंसा बाद में आतंकवाद की तरफ मुड़ गयी.
अभी अभी घोषित हुई सरकारी नीति - नाक्सालवाद को पहले ख़त्म करना और उसके बाद 'समस्या का समाधान' करना शायद सबसे अच्छी स्ट्राटेजी न हो, पर कम से कम केंद्रीय सरकार ने एक कुछ नीति घोषित कर के उस पर अमल करने की तैयारी तो की. कम से कम अब राज्य सरकारों और सैन्य बालों को 'बिगर पिक्चर' का कुछ तो पता चलेगा. भयानक दु:ख की बात है कि कोई भी नीति पूरी तरह से सौ फीसदी लागू नहीं हो सकती, और नक्सलवाद को खत्म करने के नाम पर सैकडों निर्दोष जानें फिर भी जाएँगी. लेकिन बिना किसी नीति के समस्या सुलझाने की कोशिश करना, या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना, या हिंसा पर आमादा नाक्साली आतंकवादिओं के सामने घुटने टेक देना भी तो कोई समाधान नहीं हुआ.
दोनों तरफ के पंजाब के बीच शांति स्थापित करने के आपके प्रयासों का मैं बहुत सम्मान करता हूँ. आपकी बात सही है कि ऐसे प्रयासों का डॉक्युमेंटेशन नहीं हुआ है. यदि आपके पास इस तरह की कोई सामग्री हो, जिसमें कि आम पाकिस्तानी भारत के बारे में क्या सोचता है, इस बात का ज़िक्र हो, तो मेल कीजिये.
तनवीर अहमद का लेख 'Hindu' में मैंने भी पढ़ा था. मार्मिक लेख है. परन्तु ऐसा इशारा भी करता है कि यदि आग लगी हुई है, तो कहीं न कहीं ईंधन भी है ही. उस तरफ के कश्मीर में रहने वाली नानी मुसलमान है, जबकि इस तरफ के उसके भाई बहन हिन्दू. आप भी मानेंगे कि वहां के हिन्दुओं का हाल यहाँ के मुसलामानों से कहीं बुरा है. इस कदर कि वे अपने अस्तित्त्व को बचाने के लिए लड़ रहे हैं.
चरमपंथियों की जकड़ में वह मुल्क हमारे मुकाबले ज्यादा है. और नतीजतन अभी के जो हालात हैं, उसके लिए हमसे ज्यादा जिम्मेदार भी. अपनी आलोचना करना अच्छी बात है, पर भावनाओं में बह कर इस सच्चाई से दूर जाना गलत होगा.
धन्यवाद,
अनिकेत.
मैं आमतौर पर टिप्पणियों को खुला छोड़ देता हूँ, पर कभी कभी ज।रुरी लगता है कि स्पष्ट विरोधाभासों को दिखला दिया जाए।
बकौल सुकेशः Whether somebody is hungry or justice is not being done to him, it doesn't give a reason/justification to kill/rape some innocent soul and to go against law
बिल्कुल सही बात
पर फिर सुकेश के ही शब्दों मेंःif killing five thousand innocents can save the lives of five lakh, then it is justified.
सुकेश यह नहीं जानते कि माओवादियों को कहना है कि वे पाँच लाख नहीं एक अरब जनता की खुशहाली के लिए हिंसक संघर्ष करते हैं और किसी भी हालत में वे 'निर्दोष' की हत्या नहीं करते। मतलब यह नहीं कि वे ठीक ही हैं, मैं तो महज विरोधाभासों की ओर संकेत कर रहा हूँ। सुकेश सरकारी हिंसा के पक्षधर हैं - जनता के विरोध के खिलाफ हैं।
आपरेशन ब्लू स्टार के बारे में जो लिखा है, वह तो इतना दर्दनाक है, कि उसपर कुछ नहीं लिख रहा। यह साफ है कि सिखों की संवेदनाओं के बारे में सुकेश को या तो पता नहीं है या कोई फर्क नहीं पड़ता।
प्रिय अनिकेत,
लोगों के बारे में, प्राणियों के बारे में नैसर्गिक (प्राकृतिक, स्वाभाविक) क्या है, मिलजुल कर रहना या आपस में नफ़रत लिए रहना? भावनाओं में बहना किस स्थिति में होता है, शांतिपूर्वक साथ रहने में या लड़ने में?
'वहां के हिन्दुओं का हाल यहाँ के मुसलमानों से कहीं बुरा है' - सही है, पर क्या वहां के मुसलमानों का हाल यहाँ के मुसलमानों से भला है? क्या यहाँ के हिंदू जो सड़कों पर रहते हैं उनका हाल यहाँ के संपन्न हिंदुओं से भला है?
इंसान को इंसान की तरह देखना एक तरह की भावुकता है, और इंसान को हिंदू मुसलमान मान कर देखना एक और तरह की भावुकता है। यह हमारे तुम्हारे हाथ में है कि भावनाओं की भीड़ में से किस भावना को हम चुनें। यह कमाल की बात है कि अक्सर नफरत को हम स्वाभाविक और भाईचारे को भावना में बहना मानते हैं।
रही बात निर्दोषों के जान जाने की, तो अनिकेत ऐसा है कि नकसली कोई हवा से नहीं आते, वे भी हमारे तुम्हारे जैसे साधारण लोग हैं, जो हिंसा को आमादा तभी तक हो सकते हैं जब तक समाज में गैरबराबरी है। सरकारी विकास नीतियाँ की घोषणाएँ युगों से हो रही हैं। यह भी हमारे हाथ में है कि सरकार पर हम भरोसा करें या न करें।
I am so sorry about the spelling error, SuKesh :)
If you read your reply to my comment again, you will see how it is almost entirely built on assumptions.
"...journalist might be going into prohibited area..."
"...he himself might be provoking it."
The fact is you can't prove any of the above. You make your argument even weaker by proposing that the police might have beaten up the journalist in frustration! Wow. Should the same logic then not be applicable to the pent up frustrations of millions of adivasis who have no support from the state?
Your observations on the Punjab issue is beyond pathetic. You justify the killing of innocent people going for prayers? Do you also justify the killings of Punjabi youth in bloody fake encounters? I can be reasonably sure that none from your family has been in the line of fire either in the Golden Temple or in any fake encounter. It's so easy to be an armchair humanitarian, after all.
मैं आशा करता हू के मेरा नज़रिया किसी को आहत ना करे!!
@laltu
आपके विचारो का मैं काफ़ी आदर करता हूँ, इसी लिए खुद को डिफेंड करने की ज़रूरत समझी!!
आपकी बात से सहमत हूँ की विरोधाभास हैं. पर मेरी छोटी सी ज़िंदगी में मैने यही देखा है की विरोधाभास कभी मिटाए नहीं जा सकते, यह जीवन के साथ चलते हैं. अंत में आप कौन सा रास्ता अपनाते हैं, बस वही आपका करम होता है.
पर हा, मैं मानता हू की यहाँ की सूरत में मैं सरकारी हिंसा का पक्षधर हू(वैसे ही जैसे मैं आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह, उधम सिंह की हिंसा के पक्ष में हू). मेरे पास दो विकलाप हैं:
1. एक और हिनसावादी नक्सलवादी हैं और दूसरी और निर्दोष लोग
2. एक और लोगो की चुनी हुई सरकार वे प्रतिनिधि हैं, और दूसरी और चुनाव करने वाले लोग हैं
मानता हू की हमारी जन्तन्तर प्रणाली पूरी तरह से प्रीपूरण नहीं है, हम लगातार इसमे सुधार किए जाएँगे, कभी विमन'स राइट्स तो कभी गे'स राइट्स. और मैं मानता हू की इसकी सुरक्षा के लिए सर कटाया भी जेया सकता है और ज़रूरत पड़ने पे सर काटा भी जेया सकता है.
मेरे ख्याल से सरकार ने नकशलवाद को ख़तम करने के लिए बात-चीत के ढंग से काफ़ी प्र्यतन किया है, पर जब तूफान नहीं रुक रहा तो स्रकार को अपना राव्या बदलना ही पड़ेगा.
संवेदना का प्रशण:
मैं आपके समय का तो नहीं हू, और शायद कभी उस दुख और तकलीफ़ को उस रूप में समझ भी नहीं सकता. पर यह सोचिए के भारत-पाकिस्तान विभाजन में जो नर-संहार हुआ उसका दर्द महसूस करने के लिए उसको प्रतक्ष देखना तो ज़रूरी नहीं है (आप उस समय का ना होंगे पर आप महसूस तो करते हैं).
संवेदना सुनने में अछा और भावुक सा शबद लगता है, पर संवेदना नयाय या अनयाय की प्रिभाषा नहीं बदल सकता.
जिन्नाह की इस्लाम के प्रति संवेदना ने क्या दिया: भारत-पाकिस्तान विभाजन
कुछ लोगो की इंदिरा गाँधी के प्रति संवेदना ने क्या दिया: देल्ही राइयट्स
कुछ लोगों की राम-जानम भूमि के प्रति स्नावेदना ने क्या दिया: हिंदू-मुस्लिम राइयट्स
हा, सच बात है, मुझे ऐसी संवेदना से कुछ फराक नहीं पड़ता जो इंसान को इंसान नहीं रहेने देता!!
@Bhaswati
Apologies accepted ;)
I knowingly have given assumptions to reflect that how jounalist's view is based on assumption. My whole idea was to point to how jounalist was able to hide the detail if area where he was lurking was made prohibited by police beforehand or not.
>>"I can be reasonably sure that none from your family has been in the line of fire either in the Golden Temple or in any fake encounter. It's so easy to be an armchair humanitarian, after all."
yes, you are right. I live in Punjab but 100s of km away from Golden Temple. And yes, it is easy for me to be an armchair humanitarian(I dont know what does this term mean, but whatever, it is, of course easy for me to say things).
Idea is this: Operation Blue Star is not justified as it took lots of innocent lives. Nobody(not me) can justify it. But wouldn't you agree that if that exterimism would have let happen, either today Punjab would have been separate from India or terrorism would have been taking lives till date in Punjab. I believe, one thing we will have to give to Operation Blue Star: that it saved those lives.
प्रिय सुकेश,
>'विरोधाभास कभी मिटाए नहीं जा सकते, यह जीवन के साथ चलते हैं. अंत में आप कौन सा रास्ता अपनाते हैं, बस वही आपका करम होता है.'
-बिल्कुल ठीक
>'पर हाँ, मैं मानता हूँ की यहाँ की सूरत में मैं सरकारी हिंसा का पक्षधर हूँ (वैसे ही जैसे मैं आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह, ऊधम सिंह की हिंसा के पक्ष में हूँ).'
-यहाँ बड़ी गड़बड़ है। एक ही साँस में दो बातें नहीं कह सकते। भगत सिंह, ऊधम सिंह ने वही किया जो आज माओवादी कर रहे हैं। सरकारी हिंसा का पक्षधर खुद को भगत सिंह, ऊधम सिंह की हिंसा के पक्ष में नहीं बता सकता। वैसे मैं या तुम कुछ भी कहो, कौन रोक सकता है, पर तथ्य अपनी जगह होते हैं। विचारों के गुलाम होकर हम ऐसी बातें कर बैठते हैं जो निराधार होती हैं। भगत सिंह, उधम सिंह किस सरकार के पक्ष में थे? शायद तुम कहो कि वे यही चाहते थे कि भारत पर भारतीय लोग शासन करें। भगत सिंह की बहुत सारी लिखित सामग्री उपलब्ध है। तुम पंजाब के हो तो जालंधर के भगत सिंह यादगार पुस्तकालय में जाकर पढ़ो और जानो। वैसे नेट पर भी बहुत सारी सामग्री उपलब्ध है। भगत सिंह की सारी सोच वर्त्तमान सरकार से कम और माओवादियों से ज्यादा (पूरी तरह नहीं) मेल खाती है।
> 'मेरे पास दो विकल्प हैं:
1. एक और हिन्सावादी नक्सलवादी हैं और दूसरी और निर्दोष लोग
2. एक और लोगों की चुनी हुई सरकार वे प्रतिनिधि हैं, और दूसरी और चुनाव करने वाले लोग हैं'
-एक ज़रुरी विकल्प और भी है - जानकारी प्राप्त करना। किसी की न सुन कर भावुक हुए बिना यह पता करना कि स्थिति क्या है। एक ऐसा लोकतंत्र जहाँ जनता का अधिकांश भुखमरी, अशिक्षा और कुपोषण का शिकार है, कैसा लोकतंत्र है - ये चुनाव कैसे हैं कि लोकसभा में अधिकतर करोड़पति बैठे हुए हैं, इनके कारणों को जानना, समझना और विकल्पों की संधान कठिन तो है, पर इसकी कोशिश किए बिना हम नहीं समझ सकते कि कुछ लोग हिंसक तरीके से सत्ता बदलने में क्यों विश्वास रखते हैं।
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