Friday, November 23, 2007

चुल्लू भर पानी में डूबने लायक भी नहीं

याद यही था कि फैज़ का लिखा है, पर जब 'सारे सुखन हमारे' में ढूँढा तो मिला नहीं, मतलब मिस कर गया।
आखिर जिससे पहली बार सुना था, मित्र शुभेंदु, जिसने इसे कंपोज़ कर गाया है, उसी से दुबारा पूछा। शुभेंदु ने यही बतलाया कि फैज़ ने लिखा है और शीर्षक है 'दुआ'।
अब सही लफ्ज़ के लिए घर से 'सारे सुखन...' लाना पड़ेगा, फिलहाल जो ठीक लगता है, लिख देते हैं:

आइए हाथ उठाएँ हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मुहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं

तो यह तो उस जनाब के लिए जिसे आइए हाथ उठाएँ हम भी पर जरा पता नहीं इतराज है क्या है, उसे पैर उठाने की चिंता है। क्या कहें, अच्छा ज्ञान बाँटा है।
बहुत पहले जब एम एस सी कर रहा था, क्लास में शैतान लड़कों में ही गिना जाता होऊँगा; एक बार अध्यापक के किसी सवाल का जवाब देने बोर्ड पर कसरत कर रहा था। कुछ लिख कर उसे मिटाने के लिए हाथ का इस्तेमाल किया तो अध्यापक ने चिढ़ के साथ कहा था - ... जल्दी ही मिटाने के लिए पैरों का भी इस्तेमाल करने लगोगे।

यह बतलाने के लिए कि बोर्ड पर लिखे को मिटाने के लिए डस्टर उपलब्ध है, सर ने व्यंग्य-बाण चलाया था। तो वह बाण अब भी चला हुआ है।

इसी बीच धरती कुछ दूर हिल चुकी है। सी पी एम वाले चुल्लू भर पानी में डूबने लायक भी नहीं रहे, तस्लीमा को जयपुर भगाकर शांति मना रहे हैं। गुजरात के लोग नात्सी जर्मनी की याद दिलाते हुए नरेंद्र मोदी को जितवाने को जुटे हैं। मैं अपने दुःखों में खोया हाथ-पैर दोनों ही उठाने में नाकामयाब होकर बैठा रहा। अरे नहीं, सचमुच नहीं, फिगरेटिवली स्पीकिंग। भले मित्रों का हो भला, जिन्होंने जिंदा रखा है, नहीं तो हमारा खुदा तो कोई है ही नहीं, याद तो फिर कहाँ से आएगा।

5 comments:

Anonymous said...

प्रिय भाई,
आपका दुख,आपकी बेचैनी समझ सकता हूं . यह वैचारिक उथल-पुथल का समय है . मुखौटे गिरने का समय . काव्य पंक्तियों में 'शोज' की जगह 'सोज़' कर दीजिएगा .

Sunil Aggarwal said...

लाल्टू भाई
बहुत दिनों से आपके किसी पोस्ट का इंतज़ार कर रह था। ऐसा लग रहा था कि जब मैंने आपको ढूँढा, तो कहीं आप खो न गए हों। मन को चैन मिला जब आपका ब्लोग एक नयी एंट्री के साथ फिर सामने आ गया। जब से चिट्ठों की दुनिया का हिस्सा बना हूँ, वाकई घर की अपने घर के सामानांतर या फिर बेहतर परिभाषा मिल गयी है। एक लेखक तो शायद नहीं बन पाया हूँ, पर लिखना जारी है। तो जो लिखते हैं उसे आपको दिखने की इच्छा पैदा होती है जैसे अड्डे पर वापिस लौटने की तलब हो रही हो।

Anonymous said...

आपकी कविताएं काफी समय से पढ़ता रहा हूं. आपको ब्लाग पर देखकर अच्छा लगा. कृपया अपना ई-मेल मुझे भेज दें.
दिनेश श्रीनेत
संपादक
http://thatshindi.oneindia.in
मेरा ई-मेल पता
dinesh.s@greynium.com

mohit mittal said...

i am reading ur posts for a very long time. but today only got a chance to comment. u mentioned about taslima nasreen. just heard that she has agreed to remove the controversial lines from her autobiography 'Dwikhondito'. i think the bloody authoritarians would turn her into the very system which she writes against.

The Campus News said...

माफ़ करना शायद मेरे इस बात से आपको दुःख पंहुचा है। मेरा कहना का मतलब यह नही था कि हम हाथ की जगह पर पैर चलाये बल्कि यह था कि हम आगे की ओर अग्रसर हों ।