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Showing posts from October, 2012

सुनील गांगुली की तीन कविताएँ

(बांग्ला से अनूदित) इनमें से दो कल जनसत्ता रविवारी में प्रकाशित हुई हैं। किसी ने अपनी बात न रखी किसी ने अपनी बात न रखी , तैंतीस बरस गुज़र गए , किसी ने अपनी बात न रखी बचपन में एक जोगन अपना आगमनी गीत अचानक रोक क र कह गई थी शुक्ल द्वादशी के दिन अंतरा सुना जाएगी फिर कितनी चाँद निगली अमावस गुज़र गईं पर वह जोगन कभी न लौटी पच्चीस सालों से इंतज़ार में हूँ। मामा के गाँव का माझी नादिर अली कहता था , बड़े हो लो भैया जी , तुम्हें मैं तीसरे पहर का पोखर दिखलाने ले जाऊँगा वहाँ कमल के फूल पर च ढ़ साँप और भौंरे साथ खेलते हैं ! नादिर अली ! मैं और कितना बड़ा होऊँगा ? मेरा स ि र इस घर की छत फोड़ आस्मान छू ले तो तुम मुझे तीसरे पहर का पोखर दिखलाओगे ? एक भी बड़ा कंचा खरीद न पाया कभी काठी वाला लवंचूस दिखा - दिखाकर चूसते रहे लस्करों के बेटे मंगतों की तरह चौधरीओं के गेट पर खड़े देखा भीतर चल रहा रास - उत्सव लगातार रंगों की बौछार में सोने के कंगन पहनी गोरी रमणियाँ किस्म किस्म की रंगरेलियों में वे हँसती रहीं मेरी ओर उन्होंने मुड़ कर भी नहीं देखा ! ...

अनिश्चितताएँ और विशृंखला

( समकालीन जनमत के अक्तूबर अंक में प्रकाशित) विज्ञान के बारे में एक आम गलतफहमी यह है कि वैज्ञानिक सिद्धांत हमेशा निश्चित निष्कर्षों का दावा करते  हैं। साइंस के खुदा का विकल्प होने की बात निश्चितता के सिद्धांत के साथ जुड़ी है। आम मान्यता है कि  प्रकृति में घटनाएँ निश्चित नियमों के अनुसार होती हैं। निश्चितता क्या है ? गुणात्मक रूप से कुछ निष्कर्ष  निश्चित होते हैं। जैसे उम्र बढ़ने के साथ हमारे मन और शरीर में निश्चित परिवर्तन होते हैं। या साल में  ऋतुएँ एक क्रम में बदलती हैं। पर परिमाणात्मक निष्कर्षों की निश्चितता एक सीमा तक ही सही होती है।  क्लासिकल भौतिकी में निश्चितता का अर्थ है - अगर हम जान लें कि कौन सी ताकतें किसी भी चीज़ पर  काम कर रहीं हैं तो उस वस्तु के भविष्य के बारे में हम सब कुछ बतला सकते हैं। यानी वस्तु के गुणधर्म  कैसे बदल रहे हैं , इसकी पूर्व घोषणा हम कर सकते हैं। मुसीबत यह है कि सूक्ष्मतम स्तर तक निश्चितता के  साथ हमेशा यह पता नहीं होता कि किसी चीज़ पर कौन से बल काम कर रहे हैं। इसीलिए तो भारतीय टीम  टॉस जीतेगी ...