(बांग्ला से अनूदित) इनमें से दो कल जनसत्ता रविवारी में प्रकाशित हुई हैं। किसी ने अपनी बात न रखी किसी ने अपनी बात न रखी , तैंतीस बरस गुज़र गए , किसी ने अपनी बात न रखी बचपन में एक जोगन अपना आगमनी गीत अचानक रोक क र कह गई थी शुक्ल द्वादशी के दिन अंतरा सुना जाएगी फिर कितनी चाँद निगली अमावस गुज़र गईं पर वह जोगन कभी न लौटी पच्चीस सालों से इंतज़ार में हूँ। मामा के गाँव का माझी नादिर अली कहता था , बड़े हो लो भैया जी , तुम्हें मैं तीसरे पहर का पोखर दिखलाने ले जाऊँगा वहाँ कमल के फूल पर च ढ़ साँप और भौंरे साथ खेलते हैं ! नादिर अली ! मैं और कितना बड़ा होऊँगा ? मेरा स ि र इस घर की छत फोड़ आस्मान छू ले तो तुम मुझे तीसरे पहर का पोखर दिखलाओगे ? एक भी बड़ा कंचा खरीद न पाया कभी काठी वाला लवंचूस दिखा - दिखाकर चूसते रहे लस्करों के बेटे मंगतों की तरह चौधरीओं के गेट पर खड़े देखा भीतर चल रहा रास - उत्सव लगातार रंगों की बौछार में सोने के कंगन पहनी गोरी रमणियाँ किस्म किस्म की रंगरेलियों में वे हँसती रहीं मेरी ओर उन्होंने मुड़ कर भी नहीं देखा ! ...