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Showing posts from 2012

छब्बीस साल पहले लिखी एक रचना

--> किसी दिन तू आएगी तू जो मेरे जन्म से मौत तक मुझसे जुड़ी है तेरे कठिन कोमल हाथों में खिलता तेरे आँसुओं को पहचानता तेरी चाह में भटकता तेरी मांसलता में खुद को छिपाता तेरे दिए बच्चों से खेलता तुझे रौंदता रहा हूँ तुझे तो पता है कितना डरा हुआ हूँ मैं कितना घबराता हूँ तुझसे फिर भी तेरा गला दबोचता हूँ जानता हूँ हर शोषित की तरह तुझे भी पता है कि यह सब बदलेगा किसी दिन तू बाजारों में पत्रिकाओं के मुख - पृष्ठों पर और रसोइयों में मिट्टी के तेल की आग से मरेगी नहीं जानता हूँ किसी दिन तू आएगी मुझे ले चलने उस दिन हमारे शरीर पर शोषण और भूख के कपड़े नहीं होंगे उस दिन हम केवल समानता पहनेंगे देखेंगे चारों ओर सब कुछ बदल गया होगा पार्थिव सौंदर्य में। ( १९८६ )

कविता नहीं

यह कविता 1994 में हंस में छपी थी। *** कविता नहीं कविता में घास होगी जहाँ वह पड़ी थी सारी रात। कविता में उसकी योनि होगी शरीर से अलग। कविता में ईश्वर होगा बैठा उस लिंग पर जिसका शिकार थी वह बच्ची। होंगीं चींटियाँ , सुबह की हल्की किरणें , मंदिरों से आता संगीत। कविता इस समय की कैसे हो ?   आती है बच्ची खून से लथपथ जाँघें ?   बस या ट्रेन में मनोहर कहानियाँ पढ़ेंगे आप सत्यकथा उसके बलात्कार की। हत्या की। कविता नहीं। *** यह कविता ' लोग ही चुनेंगे रंग ' (2010, शिल्पायन ) में शामिल है। एक प्रगतिशील समीक्षक ने ' पुस्तक वार्ता ' में इसे उद्धृत करते हुए यह बतलाया था कि मुझे कविता लिखनी ही नहीं आती। समीक्षक जैसा भी हो , उसकी बात सर माथे पर। इसी संग्रह पर प्रोफेसर मैनेजर पांडे ने फरवरी 2011 में चंडीगढ़ में एक पूरा व्याख्यान दिया थ ा। इधर ' वागर्थ ' के दिसंबर अंक में साथी कवि विमल कुमार ने घोषित किया है कि 1992 (असल में 1991) में पहला संग्रह आने के बाद मैं सक्रिय नहीं रहा। यह भी सर माथे पर। हिंदी के कवि हैं भाई। शुकर है कि हत्या तो नहीं की , निष्क्रिय ...

प्रकृति-प्रेरित ऊर्जा के वैकल्पित स्रोत

हमारे समय में ऊर्जा का संकट एक बड़ा संकट है। औद्योगिक क्रांति के पहले जंगल से काट कर लाई गई लकड़ी ही ऊर्जा का मुख्य स्रोत थी। औद्योगिक क्रांति ने बड़े पैमाने पर कोयला और खनिज तेल की खपत बढ़ाई। कोयला और खनिज तेल का उत्पादन क्षेत्र और इनकी खपत के क्षेत्र में भौगोलिक दूरी से पूँजीवादी विकास सीमित रह गया होता , पर बिजली के आविष्कार और संचय में तरक्की से विकास और ऊर्जा की खपत धरती के हर क्षेत्र में फैला और ऊर्जा की खपत तेज़ी से बढ़ी। पूँजीवादी अर्थ - व्यवस्था द्रुत औद्योगिक प्रगति की माँग करती है। इसके लिए , खास तौर पर मैनुफैक्चरिंग सेक्टर यानी उत्पादन क्षेत्र को अधिकाधिक ऊर्जा चाहिए। साथ ही मध्य - वर्ग के लोगों की बदलती जीवन शैली और इस वर्ग में बढ़ती जनसंख्या से ऊर्जा की खपत तेज रफ्तार से बढ़ती चली है। बड़े पैमाने में ऊर्जा की पैदावार के लिए कोई भी सुरक्षित तरीका नहीं है। कूडानकूलम संयंत्र के खिलाफ जो जन - संघर्ष चल रहा है और हाल में जापान और फ्रांस की सरकारों ने अगले दो तीन दशकों में ही नाभिकीय ऊर्जा पर निर्भरता से मुक्ति का जो ऐलान किया है , इससे यह तो सबको पता चल ही गया है कि तमाम दावो...

सुनील गांगुली की तीन कविताएँ

(बांग्ला से अनूदित) इनमें से दो कल जनसत्ता रविवारी में प्रकाशित हुई हैं। किसी ने अपनी बात न रखी किसी ने अपनी बात न रखी , तैंतीस बरस गुज़र गए , किसी ने अपनी बात न रखी बचपन में एक जोगन अपना आगमनी गीत अचानक रोक क र कह गई थी शुक्ल द्वादशी के दिन अंतरा सुना जाएगी फिर कितनी चाँद निगली अमावस गुज़र गईं पर वह जोगन कभी न लौटी पच्चीस सालों से इंतज़ार में हूँ। मामा के गाँव का माझी नादिर अली कहता था , बड़े हो लो भैया जी , तुम्हें मैं तीसरे पहर का पोखर दिखलाने ले जाऊँगा वहाँ कमल के फूल पर च ढ़ साँप और भौंरे साथ खेलते हैं ! नादिर अली ! मैं और कितना बड़ा होऊँगा ? मेरा स ि र इस घर की छत फोड़ आस्मान छू ले तो तुम मुझे तीसरे पहर का पोखर दिखलाओगे ? एक भी बड़ा कंचा खरीद न पाया कभी काठी वाला लवंचूस दिखा - दिखाकर चूसते रहे लस्करों के बेटे मंगतों की तरह चौधरीओं के गेट पर खड़े देखा भीतर चल रहा रास - उत्सव लगातार रंगों की बौछार में सोने के कंगन पहनी गोरी रमणियाँ किस्म किस्म की रंगरेलियों में वे हँसती रहीं मेरी ओर उन्होंने मुड़ कर भी नहीं देखा ! ...

अनिश्चितताएँ और विशृंखला

( समकालीन जनमत के अक्तूबर अंक में प्रकाशित) विज्ञान के बारे में एक आम गलतफहमी यह है कि वैज्ञानिक सिद्धांत हमेशा निश्चित निष्कर्षों का दावा करते  हैं। साइंस के खुदा का विकल्प होने की बात निश्चितता के सिद्धांत के साथ जुड़ी है। आम मान्यता है कि  प्रकृति में घटनाएँ निश्चित नियमों के अनुसार होती हैं। निश्चितता क्या है ? गुणात्मक रूप से कुछ निष्कर्ष  निश्चित होते हैं। जैसे उम्र बढ़ने के साथ हमारे मन और शरीर में निश्चित परिवर्तन होते हैं। या साल में  ऋतुएँ एक क्रम में बदलती हैं। पर परिमाणात्मक निष्कर्षों की निश्चितता एक सीमा तक ही सही होती है।  क्लासिकल भौतिकी में निश्चितता का अर्थ है - अगर हम जान लें कि कौन सी ताकतें किसी भी चीज़ पर  काम कर रहीं हैं तो उस वस्तु के भविष्य के बारे में हम सब कुछ बतला सकते हैं। यानी वस्तु के गुणधर्म  कैसे बदल रहे हैं , इसकी पूर्व घोषणा हम कर सकते हैं। मुसीबत यह है कि सूक्ष्मतम स्तर तक निश्चितता के  साथ हमेशा यह पता नहीं होता कि किसी चीज़ पर कौन से बल काम कर रहे हैं। इसीलिए तो भारतीय टीम  टॉस जीतेगी ...