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Showing posts from November, 2005

अबोहर का नाम और पंजाब की खस्ताहाल सड़कें

अबोहर का नाम कैसे पड़ा? युवा साथी योगेश डी ए वी कालेज में इतिहास पढ़ा रहा है। अबोहर में ही पला है। उसने बतलाया कि अबोहर में पिछले पाँच हजार साल से लगातार लोग बसे हुए हैं। बृहत्तर हड़प्पा सभ्यता का शहर है। आज भी ऐसी जगहें वहाँ हैं जहाँ खुदाई तो नहीं हुई है, पर इधर उधर प्राचीन काल के स्मारक पड़े हुए मिल जाते हैं। इब्न बतूता तक ने अपने संस्मरणों में अबोहर का उल्लेख किया है। योगेश कर्मठ और सचेत है। चंडीगढ़ में क्रिटीक संस्था में सक्रिय था। अबोहर में छात्रों को नई दिशाएं दिखलाने का बीड़ा उठाया है। जब हम वहाँ गए तो उस रात अभी हाल में पारित सूचना अधिनियम के बारे में राजस्थान से उपलब्ध कुछ दृश्य सामग्री छात्रों को दिखला रहा था। उसने बतलाया कि छात्रों को स्थानीय माइक्रो-हिस्ट्री के अध्ययन के लिए भी वह प्रेरित करता रहता है। एकलव्य में काम करने के दौरान जो रोचक अनुभव हुए थे, उनमें स्थानीय इतिहास का अध्ययन भी है। मूल प्रकल्पना संस्था के कार्यकर्त्ताओं की होती थी, पर उत्साही शिक्षकों के बल पर ही बात आगे बढ़ती थी। शायद जे एन यू से आए सुब्रह्मण्यम और रश्मि पालीवाल ने यह अभ्यास सोचा था, पर एक गाँव ...

सभ्य लोगों की हाई बीम

मीरा नंदा ने हमें बतलाया था कि सत्तर के दशक के आखिरी सालों में विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की प्रासंगिकता पर बहस छिड़ी थी। मैं जब यहाँ नौकरी पर लगा ही था राजस्थान के झुँझनू में रुपकँवर सती हुई। आज़ादी के चालीस साल बाद सती की घटना ने सभी भले लोगों को चौंका दिया। न केवल सती, उसकी पूजा, पूरा एक व्यापार छिड़ गया और लाखों रुपयों का कारोबार शुरु हो गया। मीरा ने शोध किया है और अपनी पुस्तक में इस पर और ऐसी ही दूसरी घटनाओं पर चर्चा की है। बहरहाल प्रबुद्ध माने जाने वाले एक समकालीन चिंतक ने उन दिनों एक आलेख में कुछ विवादास्पद बातें लिखी थीं, जिसका सारांश यह था कि हमारे जैसे लोग जो आधुनिकता में रचे बसे हैं, हमें कोई हक नहीं कि हमलोग रुपकँवर कांड पर बहस करें। इस घटना के बाद से मीरा जैसे लोगों ने आक्रामक रुख अख्तियार किया और प्रतिक्रियाशील तत्वों के लगातार बढ़ते जा रहे प्रभाव में इन नए वाम चिंतकों को भागीदार माना। यह बौद्धिक लड़ाई आज तक चल रही है और इसलिए बहुत कुछ जाने समझे बिना अखाड़े में उतरने को मेरे जैसा व्यक्ति तैयार नहीं। इस प्रसंग में शिव विश्वनाथन की पुस्तक 'A Carnival for Science: Essays ...

अहा ग्राम्य जीवन भी ...

अबोहर में गया तो केमिस्ट्री का भाषण देने, पर हिन्दी वालों को पता चला तो उन्होंने भी गोष्ठी आयोजित कर ली। अभी अभी लंबी ड्राइव के बाद लौटा हूँ। सुखद आश्चर्य यह कि मेरी पंद्रह साल की बिटिया ने भी मेरा लिखा पढ़ा। चलो इसी खुशी में एक और कविता : अहा ग्राम्य जीवन भी ... शाम होते ही उनके साथ उनकी शहरी गंध उस कमरे में बंद हो जाती है । कभी-कभी अँधेरी रातों में रजाई में दुबकी मैं सुनती उनकी साँसों का आना-जाना । साफ आसमान में तारे तक टूटे मकान के एकमात्र कमरे के ऊपर मँडराते हैं । वे जब जाते हैं मैं रोती हूँ । उसने बचपन यहीं गुज़ारा है मिट्टी और गोबर के बीच, वह समझता है कि मैं उसे आँसुओं के उपहार देती हूँ। जाते हुए वह दे जाता है किताबें साल भर जिन्हें सीने से लगाकर रखती हूँ मैं । साल भर इंतज़ार करती हूँ कि उनके आँगन में बँधी हमारी सोहनी फिर बसंत राग गाएगी। फिर डब्बू का भौंकना सुन माँ दरवाजा खोलेगी कहेगी कि काटेगा नहीं । फिर किताब मिलेगी जिसमें होगी कविता - अहा ग्राम्य जीवन भी ... (पल-प्रतिपल २००५)

अभी ब्रेक चलेगा

कल लुधियाना, परसों अबोहर। इसलिए फिलहाल ब्रेक चलेगा। शायद रविवार को वापस वक्त मिले। ********************************* भारत में जी बायोटेक्नोलोजी, फेनोमेनोलोजी, ऐसे शब्द है जिनमें आखिर में जी आता है । ऐसे शब्द मिलकर गीत गाते हैं । शब्द कहते हैं बैन्ड बजा लो जी। इसी बीच भारत बैन्ड बजाता हुआ चाँद की ओर जाता है। चाँद पर कविता उसने नहीं पढ़ी। भारत को क्या पड़ी थी कि वह जाने चाँद को चाहता है चकोर। भारत ने चाँद जैसे सलोने लोगो से कह दिया – ओ बायोटेक्नोलोजी, बैन्ड बजा लो जी। ओ चाँद बजा लो जी, ओ फेनोमेनोलोजी । चाँद जैसे लोगो ने कहा – हड़ताल पर जाना देशद्रोह है। चाँद उगा टूटी मस्जिद पर। ईद की रात चाँद उगा । हर मजलूम का चाँद उगा । भारत में। जी। (फरवरी-२००३; पश्यंती- २००४)

क ख का ब्रेक

क कथा क कवित्त क कुत्ता क कंकड़ क कुकुरमुत्ता । कल भी क था क कल होगा । क क्या था क क्या होगा। कोमल ? कर्कश ? अक्तूबर २००३ (पश्यंती २००४) --------------------------------------------- ख खेलें खराब ख ख खुले खेले राजा खाएं खाजा । खराब ख की खटिया खड़ी खिटपिट हर ओर खड़िया की चाक खेमे रही बाँट । खैर खैर दिन खैर शब बखैर । अक्तूबर २००३ (पश्यंती २००४)

प्रवेश मीरा नंदा

पिछले चिट्ठे से आगे - ३ ११९६ में EPW में जब सोकल अफेयर के बारे में और ऐलन सोकल और मीरा नंदा के आलेख पढ़े तो मैं उछल पड़ा। वर्षों से कालेज और विश्वविद्यालय के शिक्षकों के ओरिएंटेशन कोर्स वगैरह में जनविज्ञान आंदोलनों और वैज्ञानिक चेतना पर बातें करते हुए आत्म-चेतन सा होते हुए विज्ञान की नारीवादी और पर्यावरणवादी आलोचनाओं का उल्लेख मैं करता था, पर सचमुच कुछ समझ में नहीं आता था। हालाँकि तीसरी दुनिया के संदर्भ में विज्ञान की निरपेक्षता पर सवाल उठाने की प्रक्रिया से मैं भी गुजर चुका था। रेगन के जमाने में प्रिंस्टन में शोधकार्य के दौरान वक्त निकाल कर बहस करते ही रहते थे। बॉस्टन से निकलनेवाली साइंस फर द पीपल नाम की पत्रिका लगातार पढ़ना और दूसरों को पढ़ाना हमारा धर्म-कर्म था। उन्हीं दिनों 'the neutrality of fundamental science: a third world perspective on the myth' नाम से एक आलेख भी लिखा था। कहीं छपा नहीं और न ही वह जमाना चिट्ठाकारी का था। बहरहाल, विज्ञान की वह आलोचना बड़ी सरलीकृत थी, जिसमें मूल मुद्दा वैज्ञानिक कार्य के लिए सवालों के चयन और निर्णायक भूमिका में सुविधासंपन्न और शासक/शो...

पिछले चिट्ठे से आगे - २

आधुनिकता ने सार्वभौमिक सत्य ढूँढने की कोशिश की, तो इसके आलोचकों ने उन्हें नकार कर 'स्थानीय सत्य' को मान्यता दी। हर संस्कृति, हर समाज या वर्ग की अपनी तर्कशीलता होती है। वैज्ञानिक तर्कशीलता ऐसी कई संभावनाओं में से एक है। जैसे हर स्थानीय सत्य का सामाजिक आधार होता है, वैज्ञानिक सत्यों के भी सार्वभौमिक चरित्र होने की कोई वजह नहीं है। कम से कम इतना तो है ही कि वैज्ञानिक सोच से बेहतरी की ओर बढ़ने की कोई गारंटी नहीं है। हिरोशिमा में क्षण भर में वाष्पित हो गए लोगों के पीछे विकिरण से बच गई जगहों के चिन्हों की भयावहता हमें यह बताती है। एक ओर आलोचना के उपरोक्त विन्दुओं को नकारा नहीं जा सकता तो दूसरी ओर वैज्ञानिक सत्यों की सार्वभौमिकता पर उठते सवालों को कितनी गंभीरता से लिया जाए, यह सोचने की बात है। ऐलन सोकल ( www.physics.nyu.edu/faculty/sokal.html ) इस बात से चिंतित था कि सामाजिक विज्ञान में विज्ञान की धुनाई करने की प्रवृत्ति हद से आगे बढ़ गई है और बेतुकी बातें ज्यादा हो रही हैं। यहाँ नोट करने की बात है कि सामाजिक विज्ञान में इस तरह के सैद्धांतिक काम में भारतीय विद्वानों की भागीदारी बहु...

पिछले चिट्ठे से आगे

आधुनिकता से त्रस्त होकर बीसवीं सदी के चिंतकों ने सोचना शुरु किया कि आखिर माजरा क्या है। खासकर यूरोप में आलोचना के नए पैमाने बने, जिनके आधार पर यह तय हुआ कि कुछ भी सार्वभौमिक नहीं होता। जो कुछ भी हम सोचते हैं, वह जितना भी निरपेक्ष लगे, उसके पीछे दरअसल हमारे पूर्वाग्रह काम कर रहे होते हैं, जो हमें समाज से या अपने परिवेश से मिले होते हैं। यहाँ तक बात पहुँच गई कि पूँजीवादी व्यवस्था के शोषण और जंगखोर सरकारों के खिलाफ जो आक्रोश साठ के दशक में पश्चिमी देशों में हुआ, उसका बौद्धिक नेतृत्व कई जगह इन नए चिंतकों के हाथ आया। तीसरी दुनिया के देशों में भी एक नई वाम चिंतकों की श्रेणी उभर कर सामने आई, जिन्होंने वैज्ञानिक तर्कशीलता पर गंभीर प्रश्न खड़े किए। विज्ञान की बुनियादी संरचना में ही पर्यावरण के विनाश के तत्व हैं और पुरुषप्रधान सोच हावी है, ऐसा माना जाने लगा। आधुनिकता ने व्यक्ति स्वतंत्रता की जो संभावनाएं सामने ला खड़ी की थी, उसे शक की नज़रों से देखा जाने लगा। आखिर व्यक्ति स्वतंत्रता से मानव का जीवन तो सुखमय नहीं हो पाया था। अजीब स्थिति थी कि जो लोग विज्ञान को कटघरे पर खडा कर रहे थे, वे सब अपनी ...

आधुनिकता = विज्ञान और उत्तरआधुनिक आलोचना

आधुनिकता = विज्ञान और उत्तरआधुनिक आलोचना आम तौर पर विज्ञान और आधुनिकता को एक दूसरे का पर्याय मान लिया जाता है। कई मायने में यह ठीक भी है। हमारे लिए आधुनिकता पश्चिम की देन है। जिसे हम विज्ञान कहते हैं, वह भी पश्चिम से ही आया है। हाल की सदियों में दोनों का विकास एक साथ हुआ है। पर साहित्य, कला और दर्शन में आधुनिकता का एक विशेष अर्थ है। साहित्य में आधुनिकता का अर्थ साहित्य में विज्ञान नहीं है। इसलिए आधुनिकता को उसके स्वतंत्र अर्थ में समझना जरुरी है। मध्यकालीन यूरोप में नवजागरण के साथ साहित्य, कला और दर्शन में जो उथलपुथल हुई, उसके साथ जो नया मूल्यबोध समाज में आया, उसे आधुनिकता कहते हैं। इसके अनुसार एक व्यक्ति-केंद्रिक मूल्य बोध बना, जिसमें प्रकृति को समझने के लिए व्यक्ति ने प्रकृति से अलग अपनी सत्ता बनाई। मैं जो सोचता हूँ, वह मेरी निजी सोच तो है, पर अपने अवलोकनों से मैं निरपेक्ष धारणाएं भी बना सकता हूँ। ये निरपेक्ष धारणाएं सार्वभौमिक सत्यों को सामने लाएंगी। इन सत्यों के जरिए हम प्रकृति के रहस्यों को समझ सकते हैं। आधुनिकता से पहले ईश्वर सर्वशक्तिमान था, उसके नाम पर कोई भी धूर्त्त दूसरों...

ऐब हो तो कितना

सुबह तेज कदमों से इंजीनियरिंग कालेज और स्टेडियम के बीच से डिपार्टमेंट की ओर चला आ रहा था। दो लड़के इंजीनियरिंग कालेज की ओर से मेरे सामने निकले। उनके वार्त्तालाप का अंशः एक- यार, जालंधर देखा है, कितना बदल गया है। बहुत बदला है हाल में। दूसरा- सब एन आर आई की वजह से है। तुझे पता है जालंधर में कितने एन आर आई हैं। अकेले जालंधर में पंद्रह हजार एन आर आई हैं भैनचोद, तू देख ले भैनचोद। कहते हैं पौने तीन हजार साल पहले सिकंदर ने सेल्युकस से कहा था, सच सेल्युकस! कैसा विचित्र है यह देश! शायद सिकंदर और सेल्युकस के सामने ऐसे ही दो युवक ऐसा ही कोई वार्त्तालाप करते हुए चल रहे होंगे। पंजाबी इतनी मीठी जुबान है, पर हर दूसरे वाक्य में भैनचोद आने पर एक अच्छी भली मीठी भाषा भी गंदी लगने लगती है। ऐसा नहीं कि हमने कभी गालियाँ नहीं दीं, न ही यह कि गालियाँ सिर्फ पंजाबी में ही दी जाती हैं। पर पढ़े-लिखे लोग बिना आगे-पीछे देखे गालियों का ऐसा इस्तेमाल करें, यह उत्तर भारत में ही ज्यादा दिखता है। सुना है कि दक्षिण में गुलबर्ग इलाके में भी खूब गाली-गलौज चलती है। तमिल में भी जबर्दस्त गालियों की संस्कृति है। कोलकाता मे...

इन-ब्रीडिंग

परसों दैनिक भास्कर से एक रीपोर्टर का फोन आया - इन-ब्रीडिंग पर आर्टिकल कर रहे हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार पी यू में ७८% अध्यापक यहीं से डिग्री लिए हुए हैं। मैंने एक अरसे से इन-ब्रीडिंग के खिलाफ सार्वजनिक रुप से मत प्रकट कर अनेक दुश्मन बनाए है। कई बार निजी रुप से बंधुओं को समझाने की कोशिश की है कि मैं जो लोग पदों में नियुक्त हैं उनके खिलाफ नहीं हूँ। मेरा इस विषय पर एक मत है और वह शिक्षा व्यवस्था के बारे में एक मत है। पर जो लोग इन-ब्रेड हैं, इन्हें तो शायद ऐसा लगता है कि जैसे मैं पैदा ही उनका कत्ल करने के लिए हुआ हूँ। यह दुर्भाग्य पूर्ण है और हमारी सोच में लोकतांत्रिक तत्वों के अभाव को दर्शाता है। उस रीपोर्टर को मैं क्या कहता - मुझे इस तरह के फोन साक्षात्कारों से बड़ी चिढ़ है - मैंने कहा कि दुनिया भर में वे तमाम शिक्षा संस्थान जो अपने स्तर के लिए जाने जाते हैं, उनमें अध्यापकों की पृष्ठभूमि में खासी विविधता है। यह सार्वभौमिक सत्य है। भारत की एलिट संस्थाओं के बारे में कहा जा सकता है कि उनको आर्थिक अनुदान अधिक मिलते हैं, पर पैसे लेने के लिए भी जो बौद्धिक शक्ति चाहिए, वह प्रांतीय विश्वविद्य...

कुछ फ्रांस, कुछ अपना दुःख

फ्रांस में जो कुछ हो रहा है, इस पर कितना सच हमें पता चल रहा है और कितना नहीं! हमारी पीढ़ी तक के लोग कालेज के दिनों में अल्जीरियाई मनःश्चिकित्सक और सैद्धांतिक चिंतक फ्रांत्स फानों की पुस्तकें, खास कर 'रेचेड आफ द अर्थ' पढ़ा करते थे। उत्पीड़ित की हिंसा, इन्कलाबी हिंसा और आतंकवादी हिंसा या जिसे मोटिवलेस हिंसा कहते हैं, इनमें फर्क क्या है, यह समझना ज़रुरी है और पहली दो किस्म की हिंसाओं को समझने में फ्रांत्स फानों की पुस्तक मदद करती है। दुनिया में जितना कुछ गलत है, उसको देखते हुए आश्चर्य होता है कि सचमुच चारों ओर हिंसा इतनी कम कैसे है। फिर भी, जैसे रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा है, 'है दुःख, है मृत्यु, विरह दहन लागे, फिर भी शांति, फिर भी आनंद, अनंत... ' । *************************************************** इतनी उम्र हो गई, अब भी यहाँ की लालफीताशाही पर गुस्सा आता है। सरकारी एजेंसी का पैसा, उन्हीं की मीटिंग, फिर भी तीन महीनों से टी ए बिल पास नहीं हुआ। क्या हुआ कि वी सी साहब ने दरखास्त पर 'ऐज़ पर रुल्स' लिख दिया है। आखिर इसमें क्या समस्या है, हर चीज़ ही ऐज़ पर रुल्स होनी च...

भारतीय होने पर गर्व

अभी साइमन सिंह की 'फेर्माज़ लास्ट थीओरेम' कुछ ही पन्ने पढ़े थे, इसी बीच एक और अच्छी किताब मिल गई - सूज़न ब्लैकमोर की 'कांससनेस: ए वेरी शार्ट इंट्रोडक्शन'। जितना पढा मज़ा आ गया। बहुत पहले साइंटिफिक अमेरिकन में जोसेफसन के बारे में पढा था कि कैसे अतिचालकता (सुपरकंडक्टिविटि) पर काम कर नोबल पुरस्कार पाने के बाद वे कांससनेस (चेतना) पर शोध करने लगे थे। काफी हद तक अपनी सुध-बुध खोकर काम करते थे। बहरहाल ब्लैकमोर की पुस्तक में थोड़े से पन्नों में चेतना के दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और जैववैज्ञानिक पक्ष पर बखूबी से लिखा गया है। अनुवादक ध्यान दें, यह अनुवाद करने लायक पुस्तक है। जिन्हें वैदिक ज्ञान या पुनर्जन्म आदि ढकोसलों की खोज है, वे इसे न पढ़ें। यह एक विशुद्ध वैज्ञानिक विषय-वस्तु की पुस्तक है, आम पाठक के लिए लिखी हुई। ******************************************** काश्मीर में भारत-पाक सीमा की खबर आज सुर्खियों में थी। लोगों ने सीमा पार कर अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए बेताबी से कोशिश की और पाकिस्तानी पुलिस ने आँसू-गैस बरसा कर उन्हें रोका। पता नहीं कितने समय तक काश्मीर के लोगों को...

अभिव्यक्ति और समर्थ

शहर में जो साहित्यिक गतिविधियाँ लगातार होती हैं, उनमें महीने के पहले शनिवार वीरेंद्र मेंहदीरत्ता के घर होने वाली 'अभिव्यक्ति' नामक गोष्ठी प्रमुख है। कई वर्षों से यह गोष्ठी लगातार होती रही है। इस बार निर्मल वर्मा और अमृता प्रीतम पर बात होनी स्वाभाविक थी। निर्मल वर्मा के आखिरी उपन्यास “अंतिम अरण्य“ पर अतुल वीर अरोड़ा ने अच्छा आलेख पढ़ा। मेरा दुर्भाग्य कि न ही मैंने उपन्यास पढ़ा है और न ही समय पर गोष्ठी में पहुँचा, पर आखिरी दो-चार बातें जो सुन पाया, लगा कि अतुल का यह काम महत्वपूर्ण है। इतना सुना नहीं कि न्यायपूर्ण ढंग से कोई टिप्पणी कर सकूँ, इसलिए अगर इसे पढ़कर किसी को इस आलेख के बारे में जिज्ञासा हो तो उन से सीधे संपर्क करें। इस पाठ के बाद की चर्चा अच्छी नहीं रही। विचारधारा और साहित्यिक व्यक्तित्व आदि पर झगड़ा होता रहा। कितना अच्छा होता अगर उनकी कुछ रचनाएं पढ़ी जातीं। अमृता पर तो कोई बात ही नहीं हुई। --------------------------------------------- साहित्य में क्या उत्कृष्ट है, क्या नहीं, इस पर विवाद तो हमेशा ही रहेगा। अधिकतर लोग एक सीमा से अधिक न तो अमूर्त्त चिंतन कर सकते हैं, न ही...

सांस्कृतिक आंदोलन की नई शुरुआत

हिन्दी में ब्लॉग लिखना हमारे जैसों के लिए कोई आसान बात नहीं। करीब पंद्रह साल पहले हावर्ड ज़िन की अमरीका के जन-इतिहास वाली पुस्तक का अनुवाद करते हुए हिन्दी में टाइपिंग शुरू की थी। दसेक पन्ने कर के दम निकल गया था। वापस हाथ से लिखने पर आ गया था। यह तो मेरे मित्र चेतन के लगातार कहते रहने पर टाइपिंग भी और ब्लॉग भी शुरू किया। अपने दफ्तरी काम के लिए मैं लिनक्स का इस्तेमाल करता हूँ, पर ओपेनऑफिस में हिन्दी का ध्वन्यात्मक फॉन्ट मिल नहीं रहा था। इसलिए विंडोज़ में शुरू किया। आखिर चेतन ने लिनक्स के लिए भी हिन्दी का इनपुट मेथड और ध्वन्यात्मक फॉन्ट इस्तेमाल ढूंड ही निकाला। हालांकि अभी भी जीएडिट से करना पड़ रहा है, पर अगर आप मेरे पहले वाले चिट्ठे देखें तो पाएंगे कि यह निश्चित ही बेहतर फॉन्ट है। जिन्होंने भी इस पर काम किया है, सब को धन्यवाद। -------------------------------------------------------------------------------- सांस्कृतिक आंदोलन की नई शुरुआत कल शाम टैगोर थीएटर में इप्टा का कार्यक्रम था। तीन नाटक थे। कुछ ही दिन पहले युवा छात्रों के एक समूह को मैं इप्टा के बारे में बता रहा था। बड़ा अजीब लग...

निर्मल वर्मा अमृता प्रीतम

“ अल्लाह ! यह कौन आया है कि लोग कहते हैं मेरी तक़दीर के घर से मेरा पैगाम आया है... ” ज़िस दिन निर्मल वर्मा के निधन का समाचार आया, मैंने कहीं लिखा कि प्राहा के दिन, लंदन की रातें और शिमला की ज़िंदगी भी क्या होती अगर निर्मल वर्मा कल तक न होते। कैसा दुर्योग कि दो ही दिनों बाद अमृता प्रीतम चल बसीं। लंबे समय से दोनों ही बीमार थे, इसलिए एक तरह से मानसिक रुप से हम लोग तैयार थे कि किसी भी दिन हमारे ये प्रिय जन रहेंगे नहीं। मेरा दुर्भाग्य यह है कि मैं दोनों से ही कभी नहीं मिल पाया। एक बार जब निर्मल चंडीगढ़ आए तो मैं यहाँ नहीं था। शिक्षक संघ का अध्यक्ष बनने के बाद उनको भाषण के लिए निमंत्रित किया तो गगन जी ने फोन पर बतलाया कि वे बीमार थे। अमृता पंजाबी में लिखती थीं और चंडीगढ़ के बाहर के पंजाबी रचनाकारों से मेरा सरोकार वैसे ही कम रहा। यह सोचता हूँ तो लगता है कि केमिस्ट्री पढ़ने-पढ़ाने से अलग दूसरी दुनिया में मुझे साहित्य से इतर और मामलों से बचना चाहिए। अमृता को मैंने निर्मल से पहले पढ़ा। कलकत्ता के खालसा स्कूल की लाइब्रेरी से उनका उपन्यास ‘ आल्ल्ना ’ (आलना) पढ़ा था। इसके पहले शायद एक ...

दीवाली, धोनी और ज़िंदगी की शुभकामनाएं

दीवाली कल कलकत्ता से आए मित्रों अदिति और देवनाथ के साथ सतरह सेक्टर गया था। दीवाली की रौनक भी और साथ चंडीगढ़ में शरत की लुभावनी शाम भी। इसके ठीक पहले उन्हें लेज़र वैली ले गया। वहाँ तकरीबन कोई न था। सड़कें भी वीरान। प्रकाश इतना कम कि हालांकि सूरज को डूबे अभी आधा घंटा ही हुआ था, फिर भी पार्किंग की जगह देखने में दिक्कत हुई (आँखें भी कमजोर पड़ रही हैं)। मित्र बौद्धिक मिजाज़ के थे। देवनाथ तो बहुत अच्छा गायक भी है। लेज़र वैली का शांत माहौल हमें खूब भाया। सतरह सेक्टर में हमेशा की तरह भीड़ दिखी। लगा कि शायद उम्मीद से कम है। थोड़ी बहुत शापिंग हमने भी की। जब से मैं चंडीगढ़ आया हूँ दीवाली का त्योहार ही मुझे सबसे अच्छा लगता है। मौसम इन दिनों इतना बढिया होता है, जैसे दीवाली तो बनी ही चंडीगढ़ के लिए है। ऐसे दिनों में पुरानी बहुत बातें याद आती हैं। कई बार लगता है कि आज के मोबाइल पर दो लाइन या डिजिटल मेसेज भेजने के जमाने में किसको समझ होगी कि वह भी क्या दीवाली होती थी। मैंने कलकत्ता में काली पूजा के त्योहार को ही देखा था। उत्तर भारत की दीवाली तो सबसे पहले चंडीगढ़ में ही देखी...