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Showing posts from 2018

प्रतिरोध गूँजता है - ‘म्याऊँ'

तुमने पतंग उड़ाई है ?   धूप है , आस्मान सुनहरा , धरती पर धान का पौधा अपनी गर्दन घुमा कर बादल ढूँढता है मैं सपनों में पतंग बन दो आँखें ढूँढता हूँ पागल हवा धरती के हर मुल्क का सैर कर आती है साँप सी टेढ़ी सड़क के किनारे पौधों के पत्ते हैं ऊँची घास नशे में लहराती है समंदर पर लहरों सी उड़ती है पतंग अनगिनत साल बीत गए खोया नहीं हूँ पतंगों की भीड़ में जाना कि इंसान हूँ कि चाकू बंदूक चला सकता हूँ उड़ती पतंग उतार सकता हूँ ज़मीं पर जहाँ हर ओर घास पेड़ जल रहे हैं। सपने पतंग आँखें उड़ कर पास जा पूछता हूँ - दोस्त , कैसे हो ? डरावनी शक्ल के लोग मीठी हँसी हँसते कहते हैं - सँभल कर भाई , खुशी उफनने न लगे। हवा में तब उम्म्ह गंध होती है आकाश है कि समंदर घबराता मैं बातें करता हूँ - यह , वह , तुम , मैं… चाहता कि कहूँ - चलो , साथ उड़ेंगे कह न पाता हूँ सुनता हूँ कि कुछ लोगों ने एक झंडा उतारा है और एक हवा में फहराया है कि मैं , मैं नहीं , न पतंग , न सपना , शहर में ब्लैक आउट , सीने में ठकठक फौज की परेड गूँजती है फिर जंग छिड़ी है गंगा के सीने में नौका के नीचे सूरज लाल...

हम सब बच्चे बनना चाहते हैं

पिछले साल 10 दिसंबर को मैं सेवाग्राम में था। अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच  की मीटिंग थी। 9 को आधी रात होते ही युवा मित्रों ने उठाकर जन्मदिन का  शोर मचाया। इस बार भी संयोग से मंच की ही मीटिंग में दिल्ली गया हुआ था।  जब शाम को एयरपोर्ट के लिए निकलने लगा तो साथ के सभी बुज़ुर्ग साथी थे,  उनसे कहा कि अब आप मुझे हैपी बड्डे कह सकते हैं। तो उन्होंने भी थोड़ी देर  सही, शोर तो मचाया। बहरहाल फेसबुक पर शोर से बच गया और इसलिए इस  अपराध-बोध से बचा रहूँगा कि दूसरों को उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएँ  नहीं भेजता।  ऐसा बदतमीज़ हूँ कि उन दो-चार प्यारे मित्रों के जन्मदिन भी  भूल जाता हूँ, जो वर्षों से मुझे 'विश' करना नहीं भूलते हैं।  बहरहाल, यह पचीस साल पुरानी कविता 'हंस' के दिसंबर अंक में आई है :   पागल मुझे जगाया कब की बात पागल मुझे जगाया तुमने कहा कि मैं अठारह पर अटका हूँ कोई सपना नहीं था तुमने कहा कि हम सब बच्चे बनना चाहते हैं आज इस सर्द...

मानव-केंद्रिक सभ्यता के लिए

उत्थिष्ठ , उत्थिष्ठ , मूढ़मति : एक पिता एकस के हम वारिस ('अनहद' पत्रिका के ताज़ा अंक में प्रकाशित :‍ अक्तूबर 2017 में गोवा में ‘संगमन -22’ में , नवंबर 2017 में हैदराबाद विश्वविद्यालय में छात्र संगठन के लिए और दिसंबर 2017 में भोपाल में पीपुल्स रिसर्च सोसायटी की सभा में दि ए व्याख्यान ों का सार ) 1 वाल्ट ह्विटमैन की एक छोटी कविता ' ओ कैप्टेन माई कैप्टेन ' स्कूल की पाठ्य - पु स्तक में थी , पर तब उन्हें जानते नहीं थे। कॉलेज में उनकी लंबी कविता ' सॉंग ऑफ माईसेल्फ ' पढ़ी । ह्विटमैन आधुनिकता के उस अच्छे पक्ष के चारण स्वर थे , जो हमारे यहाँ जनपदों के चारवाकों से लेकर , कबीर और गाँधी तक की हारी हुई लड़ाइयों वाला पक्ष है। अहं ब्रह्मास्मि , तत् त्वम सि की ध्वनि को तर्क और मानवता-केंद्रिक दिशा देते हुए ह्विटमैन ने अपना गीत लिखा था – वह लंबी कविता ' सॉंग ऑफ माईसेल्फ ' । I celebrate myself, and sing myself, And what I assume you shall assume, For every atom belonging to me as good belongs to you. खुदी को celebrate करना महज घमंड नहीं ...