(पिछली किश्त से आगे - आखिरी किश्त)
आखिर उन्होंने गोपी से कहा, "गोपी! बड़ी मुसीबत में पड़ गया हूँ, पता नहीं क्या होगा। शुंडी का राजा मेरा राज्य छीनने आ रहा है।" शुंडी का राजा वही था, जिसने गोपी और बाघा को जलाकर मारना चाहा था। उसका नाम सुनते ही गोपी के दिमाग में एक चाल सूझी। उसने राजाजी से कहा, "महाराज ! आप इसकी चिंता न करें, आप इस गुलाम को हुक्म दें, मैं इसे एक मजाक बनाकर छोडूंगा।" राजा ने हँसकर कहा, "गोपी, तुम गवैये-बजैये हो, जंग-लड़ाई के पास नहीं फटकते, इसके बारे में तुम क्या समझोगे? शुंडी के राजा की बहुत बड़ी सेना है, मैं उसका क्या बिगाड़ सकता हूँ?" गोपी बोला,"महाराज, आदेश दें तो एक बार कोशिश कर सकता हूँ। कोई नुकसान तो नहीं है।" राजा बोले, "जैसी तुम्हारी मर्ज़ी, तुम कर सकते हो।" यह सुनकर गोपी फूला न समाया, उसने बाघा को बुलाया और सलाह-मशविरा शुरू किया।
गोपी और बाघा उस दिन बड़ी देर तक सोच-विचार करते रहे। बाघा उत्साह से भरपूर था। वह बोला, "भैया, हम कुछ न कुछ करके ही रहेंगे। मुझे बस एक बात का डर है, अगर अचानक जान बचाकर भागने की ज़रुरत हो, तो शायद मैं जूतों की बात भूलकर आम लोगों कि तरह दौड़ने लगूँगा और फिर मुझ पर बुरी तरह मार पड़ेगी। इसी तरह उस बार हमारे गाँव के मूर्खों ने मेरा हुलिया ही बिगाड़ दिया था!"
खैर, गोपी के समझाने पर बाघा का डर कम हुआ। दूसरे दिन से उन्होंने काम शुरू किया। कुछ दिनों तक वे रोज़ रात को शुंडी जाते रहे, और राजाबाड़ी के आसपास घूमकर वहाँ की खबरें इकट्ठी करते रहे। जंग का इंतज़ाम उन्होंने देखा, वह बड़ा भयंकर था; ऐसा इंतज़ाम लेकर अगर हाल्ला में जा पहुँचें, तो बचना मुश्किल है। राजा के मंदिर में रोज़ धूमधाम से पूजा हो रही है। दस दिनों तक इस तरह पूजा करने के बाद भगवान को खुश कर वे हाल्ला को रवाना होंगे।
गोपी और बाघा ने यह सब देखा; फिर एक दिन अपने कमरे में बैठ, दरवाज़ा बंद कर, भूतों की दी हुई उस थैली से कहा, "नए किस्म की मिठाइयाँ चाहिए, खूब स्वादिष्ट।" इस पर उस थैली से जो मिठाइयाँ निकलीं, वह कहकर समझाया नहीं जा सकता। ऐसी मिठाइयाँ पहले किसी ने कभी नहीं खाईं, आँखों से भी नहीं देखीं। इन मिठाइयों को लेकर बाघा और गोपी शुंडी के राज के बड़े मंदिर के शिखर पर जा बैठे। नीचे खूब पूजा की धूम थी--बेहद धूप-धूनी शंख-घंटा शोरगुल चल रहा था, आँगन लोगों से खचाखच भरा हुआ था। उन सब लोगों के सिर पर धड़ाम से सारी मिठाइयाँ डालकर, बाघा और गोपी भी मंदिर के शिखर पर जमकर बैठ तमाशा देखने लगे। अँधेरे में उस धूप-धूनी और प्रकाश के धुँए में कोई उन्हें देख न पाया।
मिठाइयाँ आँगन में गिरते ही शोरगुल रुक गया। कई लोग कूद पड़े, कोई-कोई तो चीख कर दौड़ भी लिए। उसके बाद दो-चार साहसी लोग कुछ मिठाइयाँ उठाकर, डरते-डरते रोशनी के पास ले जाकर उन्हें देखने लगे। अंत में उनमें से एक ने आँखें बंद कर थोड़ा सा मुँह में डालते ही -फिर क्या था -- वह दोनों हाथों से आँगन से मिठाइयाँ उठाकर मुँह में डाले नाचने लगा और ख़ुशी से चीखने लगा। तब उस आँगन पर सभी लोग मिठाइयाँ खाने के लिए पागलों की तरह छीना-झपटी कर हो-हल्ला करने लगे।
इसी बीच कुछ लोगों ने दौड़कर जाकर राजाजी से कहा, "महाराज! ईश्वर ने आज पूजा से संतुष्ट होकर स्वर्ग से प्रसाद भेजा है। वह इतना बढ़िया प्रसाद है कि हम बतला भी नहीं सकते।" यह बात सुनते ही राजा चड्ढी पहनते-पहनते लम्बी-लम्बी साँसें लेते जी-जान से दौड़ते मंदिर आए।
पर हाय! तब तक सारा प्रसाद ख़त्म हो गया था। सारे आँगन में झाड़ू लगाकर भी राजाजी के लिए प्रसाद का ज़रा सा चूरा भी नहीं मिला। तब उन्होंने बड़े गुस्से में कहा, "तुम लोग बड़े जाहिल हो! मैं पूजा करूँ और प्रसाद खाकर ख़त्म करते हो तुम! मेरे लिए ज़रा सा चूरा भी नहीं रखा! तुम सबको पकड़कर शूली पर चढाऊँगा!" यह सुनकर सबने डरते-डरते हाथ जोड़कर कहा, "दुहाई हो महाराज! हम आपका प्रसाद खाकर भला क्यों ख़त्म करें? अजीब बात है! हमने खाने की कोशिश भर की थी, पता नहीं कैसे झट से ख़त्म हो गया! आज हमने जो प्रसाद खाया, उसके लिए आप हमें माफ़ कर दें, कल जो भी प्रसाद मिलेगा वह महाराज अकेले ही खाएँगे। तब राजा ने कहा, "अच्छा, ऐसा ही होगा। खबरदार! भूल मत जाना।"
अगले दिन राजाजी प्रसाद खाएँगे, इसीलिए पहले पहर से ही वे मंदिर के आँगन में बैठकर आकाश की ओर ताककर बैठे थे। बाकी सब लोग डरे हुए थोड़ी दूर बैठकर उनको घेरकर तमाशा देख रहे थे। आज पूजा का आड़ंबर और दिनों की अपेक्षा सौ गुना अधिक था। सब सोच रहे थे कि भगवान खुश होकर राजाजी को और भी बढ़िया प्रसाद देंगे।
आधी रात के वक़्त गोपी और बाघा और भी बढ़िया किस्म की मिठाइयाँ लिए मंदिर के शिखर पर आ बैठे। आज उन्होंने और भी बढ़िया कपड़े पहन रखे थे, सर पर मुकुट, गले में हार, हाथों में कड़े, कानों में कुंडल; वे देवता बनकर आये थे।
धुएँ की वजह से कुछ दिखलाई नहीं पड़ रहा था, फिर भी राजाजी आकाश की ओर ताकते हुए बैठे हुए थे। इसी वक़्त्त गोपी और बाघा ने हँसते-हँसते उनके ऊपर उन मिठाइयों को फेंक दिया। इस पर पहले तो राजाजी चीखकर तीन हाथ ऊँचाई तक कूद पड़े, फिर जल्दी ही सँभलकर वे दोनों हाथों से मिठाइयाँ मुँह में डालने लगे, फिर झूम-झूम कर वाह कैसा नाच उन्होंने नाचा!
ठीक उसी वक्त गोपी और बाघा अचानक मंदिर के शिखर से उतर कर राजा के पास आ खड़े हुए। उनको देखकर सब 'भगवान आए' कहकर कौन पहले प्रणाम करे, सोचकर तय नहीं कर पा रहे थे। राजाजी तो लम्बे होकर ज़मीं पर लेट ही गए और केवल सिर ठोकते जा रहे थे। गोपी ने उनसे कहा, "महाराज! तुम्हारा नाच देखकर हम संतुष्ट हुए हैं; आओ अब ज़रा गले मिल लें।" राजा ने यह सुना क्या, उन्हें तो जैसे हाथों में स्वर्ग मिल गया, देवता के साथ गले मिलना, यह कोई कम सौभाग्य की बात थी!
गले मिलना शुरू हुआ। सभी लोग 'जय हो, जय हो' कहकर चीखने लगे। तभी मौका पाकर गोपी और बाघा ने राजाजी को अच्छी तरह बाँहों में जकड़कर कहा, "तो अब अपने कमरे में चलें!" ऐसा कहते ही वे लोग उनको साथ लिए अपने कमरे में आ उपस्थित हुए। मंदिर के आँगन में लोग काफी देर तक मुँह खोले आकाश की ओर ताकते रहे। इसके बाद राजाजी और लौटकर नहीं आए, तब वे अपने-अपने घर लौट आए और बोले, "कितने आश्चर्य की बात देखी ! राजाजी जिंदा स्वर्ग चले गए! देवता लोग खुद उन्हें लेने आए थे!"
इधर राजाजी गोपी और बाघा की गोद में बेहोश पड़े हुए थे। उनके कमरे में आकर भी बहुत देर तक उनको होश नहीं आया। जब भोर हुई तो उनकी आँखें खुलीं, और उन्होंने देखा कि वे दो भूत उनके सिर पर बैठे हुए हैं। वे झट उनके पैरों पर गिर पड़े और काँपते-काँपते बोले, "तुमसे प्रार्थना करता हूँ! मुझे मत खाना। मैं दो सौ भैंसे बलि चढ़ाकर तुम्हारी पूजा करूँगा।" गोपी बोला, "महाराज, आपके डरने की कोई बात नहीं है। हम भी भूत नहीं हैं, आपको खाने की भी कोई मंशा हमारी नहीं है।" राजाजी को इससे ज़रा भी भरोसा नहीं हुआ। वे और कुछ न कहकर सिर छिपाकर काँपने लगे।
इधर बाघा ने आकर हाल्ला के राजा से कहा, "कल रात हमलोग शुंडी के राजा को पकड़ लाए हैं। अब आपका क्या आदेश है?" हाल्ला के राज बोले, "उन्हें ले आओ!"
जब दोनों राजाओं की मुलाक़ात हुई तो शुंडी के राजा को पता चला कि उनको पकड़ कर लाया गया है। हाल्ला को जीतना तो उनके भाग्य में रहा ही नहीं, अब जान पर भी बन आई है। पर हाल्ला के राजा ने उनको जान से नहीं मारा, सिर्फ उनका राज्य छीन लिया। इसके बाद गोपी और बाघा से बोले, "तुम्हीं लोगों ने मुझे बचाया है, नहीं तो मेरा राज्य भी जाता और जान भी जाती। मैं तुम्हारा क्या भला कर सकता हूँ? शुंडी-राज्य का आधा तुम्हें दे रहा हूँ और अपनी दो बेटियों की शादी तुम्हारे साथ करना चाहता हूँ।
फिर खूब धूम मची। गोपी और बाघा हाल्ला के राजा के दामाद होकर और शुंडी का आधा राज्य पाकर परम आनंद के साथ संगीत-चर्चा करते रहे। तब गोपी के माँ-बाप जैसा सुख और किसे मिल सकता था?
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