लाल्टू
से बातचीत
लाल्टू
के माता-पिता
उसे लेकर मेरे घर आए। मैंने
दरवाजा खोला तो लाल्टू के पापा
ने उससे कहा,
'लाल्टू
जी को नमस्कार कहो।'
लाल्टू
थोड़ी देर चुप मेरी ओर देखता
रहा। फिर कहा,
'अरे!
लाल्टू
तो मैं हूँ।'
हम सब
हँस पड़े। अदंर आते हुए लाल्टू
के पापा ने कहा,
'तुम्हें
बतलाया तो था कि इनका नाम भी
लाल्टू है।'
लाल्टू
को यह जानकर अचरज हुआ कि मेरा
नाम भी लाल्टू है।
वह
सिर घुमा कर कहता रहा -
'नहीं,
तुम्हारा
नाम लाल्टू नहीं है।'
देर
तक मेरा 'हाँ,
है'
और उसका
'नहीं,
है'
चलता
रहा। कभी वह धीरे से कहता,
'नहीं,
है',
तो मैं
धीरे से कहता,
'हाँ,
है।'
कहते
हुए उसका सिर धीरे से हिलता।
कभी वह तेजी से कहता,
'नहीं,
है',
तो मैं
भी तेजी से कहता,
'हाँ,
है।'
वह नाराज़
होता तो मैं नाराज़ होता,
वह हँसकर
कहता तो मैं हँसकर कहता। आखिरकार
उसने जीभ निकालकर मुझे चिढ़ाते
हुए कहा, 'दो
लोगों का एक नाम भी होता है!'
मैं
थोड़ी देर तो समझ नहीं पाया कि
कैसे उसे जवाब दूँ। फिर मैंने
कोशिश की,
'क्यों,
तुम
अपनी मम्मी को कैसे पुकारते
हो?' उसने
कहा, 'मम्मा!'
मैं
अपनी माँ को 'माँ'
कहता
हूँ, पर
मैंने उससे झूठ कहा,
'मैं भी
अपनी मम्मी को 'मम्मा'
कहता
हूँ, तो
तुम्हारी मम्मी और मेरी मम्मी
दोनों का एक नाम हुआ कि नहीं?'
उसने
कहा, 'मम्मा
तो छोटे बच्चे कहते हैं,
बड़े
थोड़े ही कहते हैं?'
-
'मैं तो
कहता हूँ,'
मैं अड़
गया।
वह
मेरे पास आया और उसने धीरे से
कहा, 'मेरी
मम्मी का एक और नाम भी है?'
मैं
झुककर अपना कान उसके पास ले
गया और फिसफिसाते हुए पूछा,
'क्या
नाम है तुम्हारी मम्मी का?'
वह
घूमकर इधर-उधर
देखने लगा,
फिर
यह कहते हुए बैल्कनी
की ओर भाग गया,
'मैं
नहीं बतलाता।'
लिखो,
छुओ
मैं
कुछ लिख रहा था और वह पास आकर
बैठ गया।
उसने
पूछा, 'तुम
लिखते क्यों हो?'
मैंने
कहा कि मैं लिखता हूँ,
क्योंकि
मैं औरों को छूना चाहता हूँ।
उसने
जैसे सही सुना कि नहीं तय करने
के लिए पूछा,
तो लिख
कर तुम औरों को छू लेते हो?
-
'हाँ,
मेरा
लिखा जब वे पढ़ते हैं तो प्रकाश
की किरणें उनकी आँखों तक मेरी
छुअन ले जाती हैं।
जब
मैं बोलता हूँ,
मेरी
आवाज़ सुनने वालों को मैं छू
लेता हूँ,
आवाज़
मेरे होठों को उनके कानों तक
ले जाती है।'
यह
सुनकर उसने अपने कानों को
हाथों से छुआ। फिर वह आगे बढ़कर
मेरे पास आया और मेरा दाँया
हाथ पकड़कर उसे अपने बाँए कान
तक ले गया।
वह
थोड़ी देर सोचता रहा। फिर पूछा,
'पर हर
कोई तो तुम्हारा लिखा पढ़ता
नहीं है?'
-'तो?'
वह
सोच रहा था। मैंने कहा,
'कभी-कभी
मैं बस खुद को छूने के लिए लिखता
हूँ।'
वह
हँस पड़ा। कहा,
'खुद को
छूने के लिए लिखने की क्या
ज़रूरत?
उंगलियों
से छुओ न?'
-
'उंगलियों
से भी छूता हूँ,
पर
कभी-कभी
लिख कर छूता हूँ।'
-'प्रकाश की किरणें तुम्हारा लिखा तुम्हारी आँखों तक ले जाती हैं?'
-'प्रकाश की किरणें तुम्हारा लिखा तुम्हारी आँखों तक ले जाती हैं?'
-
'हाँ,
पर
कभी-कभी
बिना पढ़े भी मैं अपने लिखे से
खुद को छू लेता हूँ।'
वह
फिर सोच में पड़ गया। फिर वह
दौड़कर सोफा पर चढ़ गया और कूदने
लगा। कूदते हुए वह गा रहा था
-'लिखो,
छुओ,
लिखो,
छुओ,
लिखो,
छुओ...'।
साथ में मैं भी गाने लगा,
'लिखो,
छुओ,
लिखो,
छुओ,
लिखो,
छुओ...।' (चकमक - नवंबर 2015)
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Saadar
Pranjal Dhar