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Showing posts from August, 2010

टिक्की बढ़िया गंजा बढ़िया

‘Great spirits have always encountered opposition from mediocre minds. The mediocre mind is incapable of understanding the man who refuses to bow blindly to conventional prejudices and chooses instead to express his opinions courageously and honestly.’ -ऐल्बर्ट आइन्स्टाइन (बर्ट्रेंड रसेल के पक्ष में ब्यान देते हुए) बढ़िया रे बढ़िया दादा ! दूर तक सोच - सोच देखा - इस दुनिया का सकल बढ़िया , असल बढ़िया नकल बढ़िया , सस्ता बढ़िया दामी बढ़िया , तुम भी बढ़िया , हम भी बढ़िया , यहाँ गीत का छंद है बढ़िया यहाँ फूल की गंध है बढ़िया , मेघ भरा आकाश है बढ़िया , लहराती बतास है बढ़िया , गर्मी बढ़िया बरखा बढ़िया , काला बढ़िया उजला बढ़िया , पुलाव बढ़िया कोरमा बढ़िया , परवल माछ का दोलमा बढ़िया , कच्चा बढ़िया पक्का बढ़िया , सीधा बढ़िया बाँका बढ़िया , ढोल बढ़िया घंटा बढ़िया , चोटी बढ़िया गंजा बढ़िया , ठेला गाड़ी ठेलते बढ़िया , ताजी पूड़ी बेलना बढ़िया , ताईं ताईं तुक सुनना बढ़िया , सेमल रुई धुनना बढ़िया , ठंडे जल में नहाना बढ़िया , पर सबसे यह खाना बढ़िया - पावरोटी और ग...

यातना

"Reasonable people I reason with, bigots I do not talk to" - Ashley Montagu यातना तालस्ताय ने सौ साल पहले भोगा था यह अहसास जो बहुत दूर हैं उनसे प्यार नहीं है दूर देशों में बर्फानी तूफानों में सदियों पुराने पुलों की आत्माएँ आग की बाढ़ में कूदतीं निष्क्रिय हम चमकते पर्दों पर देखते मिहिरकुल का नाच जो बहुत करीब हैं उनसे नफरत करीब के लोगों को देखना है खुद को देखना इतनी बड़ी यातना जीने की वजह है दरअसल जो बीचोंबीच बस उन्हीं के लिए है प्यार भीड़ में कुरेद कुरेद अपनी राह बनाते ढूँढते हैं बीच के उन लोगों को जो कहीं नहीं हैं समूची दुनिया से प्यार न कर पाने की यातना जब होती तीव्र उगता है ईश्वर उगती दया उन सबके लिए जिन्हें यह यातना अँधेरे की ओर ले जा रही है हमारे साथ रोता है ईश्वर खुद को मुआफ करता हुआ। (पश्यंती-२००१)

दर्द को झेल सको तो आ जाओ और छेड़ने के बाद मम्मी मम्मी क्यों

प्रिय गौतम, यह बढ़िया कि तुमने जवाब दे दिया तो मुझे फिर एक चिट्ठा लिखने की हिम्मत मिल गयी, वरना इन दिनों मैं ऐसा थका हुआ हूँ कि लिखा नहीं जाता। मेरे भाई, तुम इतने गुस्से में हो कि मुझमें तुम्हारे प्रति प्यार बढ़ता जाता है। इतना गुस्सा कि बोल्ड font में जताना कि मुझे राक्षस कहा - ओये होए। पर प्यारे भाई, एक बार ठंडे दिमाग से मेरा लिखा पढ़ लिया होता। मैं फिर एक बार लिख रहा हूँ - हर इंसान में दानव बनने की संभावना होती है - सेनाओं का वजूद इसी संभावना पर टिका है। मेरे दोस्त, 'हर इंसान' का खिताब क्या सिर्फ सैनिकों को मिला है? गौर करो कि मैंने यह कहीं नहीं कहा कि हर व्यक्ति हर वक़्त दानव होता है। एक व्यक्ति एक ही साथ सैनिक भी हो सकता है और भाई बन्धु भी। दानव वह होता है 'जब तनाव तीव्र हो' मैंने यह भी लिखा कि अपने सैनिक को कविता पाठक से अलग करो। मैंने यह भी लिखा है कि 'अब तक सेनाओं का उपयोग शासकों ने इंसान का नुक्सान करने के लिए ही किया है'। सम्प्रेषण एक जटिल प्रक्रिया है। हम सोचते हैं कि हमने बात कह दी, वह सही सही ठिकाने पर पहुँच गयी। ऐसा होता नहीं है, स्प...

भाई गौतम तुम भी हमारी फौज में शामिल हो जाओ

प्रिय गौतम, ख़ुशी मेरी कि तुम मेरी कविताएँ पढ़ते हो। तुम्हारी पहली टिप्पणी से वैसे मुझे कोई चोट पहुंचनी नहीं चाहिए क्योंकि हिन्दी रचना संसार में गाली गलौज आम बात है। मैं इससे बचा हुआ हूँ क्योंकि मुझे अभी तक सामान्य कवि लेखक ही माना गया है और मैं तमाम विशेषण जो बाज़ार में चल रहे हैं उनके उपयुक्त नहीं माना गया होऊंगा । भाई, तुम मेरी कविताएँ पढ़ते हो तो उनमें क्या पढ़ते हो? मैंने तो आज नहीं, जैसा कि मेरी दस साल पुरानी कविता से तुमने देखा ही होगा (पिछले चिट्ठे में, जिस पर तुमने दूसरी टिप्पणी की है), हमेशा ही जंग विरोधी बातें कही हैं। यह भी मेरी ही सीमा है कि तुमने मेरी रचनाओं में इस बात को पढ़ा नहीं। मेरे पिछले सभी blogs को कभी पढ़ लेना तो भी स्पष्ट हो जायेगा कि मैं तो मनुष्य मनुष्य के बीच हिंसा का कट्टर विरोधी हूँ। खासकर जब यह हिंसा संगठित ढंग से ताकतवरों द्वारा संचालित हो। मैं देश नामक उस धारणा का भी विरोधी हूँ जिसके नाम पर सैनिकों को जान कुर्बान करनी पड़ती है। एक सैनिक के मरने या घायल होने पर सरकार उसे पुरस्कार दे दे या उसे धन दे दे तो तो उस क्षति कि पूर्ति नहीं होती जो एक बाप या भ...

युद्ध सरदारों ध्यान से सुनो

मेरे पिछले चिट्ठे पर गौतम राजरिशी की टिप्पणी है: "कमाल है कि एक कथित रूप से संवेदनशील कवि भी ऐसा नजरिया रखता है.....!!!" गौतम राजरिशी सेना का मेजर जिसने शायदा के चिट्ठे पर लिखा था कि वह तकरीबन इस घटना का (बच्चे की मौत) चश्मदीद गवाह है और सचमुच हुआ यह कि फ़ौज के लोगों ने बच्चे को उठाया और अस्पताल पहुँचाया जहां उसकी मौत हुई। मैं 'कथित रूप से संवेदनशील कवि' ही सही, पर यह सब लोग जान लें कि गौतम राजरिशी सेना का मेजर ही है - कथित रूप से नहीं, सचमुच. जानने पर यह बात समझ में आ जायेगी कि मैं क्यों इस टिप्पणी का जवाब नहीं दे रहा. शुक्र है कि मैं कविहूँ, गौतम राजरिशी के मातहत काम कर रहे सिपाहियों में से नहीं हूँ । नहीं तो पता नहीं कैसे विशेषण मिलते। बहरहाल वक्त के मिजाज को देखते हुए यह कविता बकवास कुछ पन्ने बकवास के लिए होते हैं जो कुछ भी उन पर लिखा बकवास है बकवास करते हुए आदमी बकवास पर सोच रहा हो सकता है क्या पाकिस्तान में जो हो रहा है वह बकवास है हिंदुस्तान में क्या उससे कम बकवास है क्या यह बकवास है कि मैं बीच मैदान हिंदुस्तान और पाकिस्तान की धोतियाँ...

there are no just wars

काफी दिनों के बाद मैनें शायदा का ब्लॉग ' उनींदरा ' पढ़ा. हाल के अपने एक पोस्ट में उसने फेसबुक से उद्धृत काश्मीर की एक घटना के बारे में लिखा है, जिसमें किसी नें यह लिखा कि भारतीय सिपाहियों ने एक सात साल के बच्चे को क्रूरता से पीट कर मार दिया. शायदा ने इस बात को नज़रंदाज़ करते हुए कि फेसबुक की कहानी सच्ची नहीं भी हो सकती है और इस बात पर ध्यान देते हुए कि एक बच्चे की मौत के बारे में हमें सोचना चाहिए कुछ बातें लिखीं. इस पोस्ट पर कोई बयालीस टिप्पणियां हैं, जिनमें कुछ शायदा के जवाब हैं जो उसने औरों की टिप्पणियों के दिए हैं. जैसा कि अपेक्षित है, कई लोगों ने उसे नसीहत दी कि उसे फेसबुक की कहानी को सच नहीं मानना चाहिए और इस तरह भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों के खिलाफ प्रोपागांडा को बढ़ावा नहीं देना चाहिए. शायदा बार बार यही लिखती रही कि मैं बच्चे की मौत से दुखी हूँ, पर देशभक्तों की पीड़ा बार बार बात को कहीं और ले जाती रही. एक किसी मेजर ने यह लिखा कि वह तकरीबन इस घटना का चश्मदीद गवाह है और सचमुच हुआ यह कि फ़ौज के लोगों ने बच्चे को उठाया और अस्पताल पहुँचाया जहां उसकी मौत हुई. आज के समय ...

याहू-याहू, याहू-याहू

देशभक्ति की धारणा पर अक्सर इस ब्लॉग पर मैंने कुछ लिखा है। अन्य संस्थानों की तरह हमारे संस्थान में भी १५ अगस्त और २६ जनवरी को झंडोत्तोलन के साथ उच्च अधिकारियों के भाषण आदि होते हैं। चूंकि चार पांच लोगों ने नियमित बोलना ही होता है; दिवस की गरिमा का तकाजा है, और तब तक छात्र पर्याप्त रूप से ऊब चुके होते हैं, इसलिए जब भी मुझे बोलने को कहा गया है, मैंने इंकार कर दिया है. पर मैं कल्पना तो करता ही हूँ कि अगर बोलना पड़े तो क्या बोलता । हैदराबाद आने के बाद कक्षा में विषय पढ़ाने के अलावा या पेशेगत शोधकार्य आदि पर भाषण देने के अलावा सामान्य विषयों पर व्याख्यान कम ही दिए हैं. तो इस बार १५ अगस्त के लिए भी कुछ सोच रहा था कि वह भाषण जो मैं कभी नहीं देता वह कैसा होगा. पर फिर वही वक्त की समस्या - बस सोचते रह जाते हैं - लिख नहीं पाते. इसी बीच यह साईट देखी: http://lekhakmanch.com/2010/08/13/कवियों-शायरों-की-नजर-में-आ/ इसमें विष्णु नागर की कविता देखकर दंग रह गया -एक खतरनाक ख़याल दिमाग में आ रहा है कि पाखंडों से भरे इस मुल्क में ऐसा लिख कर वे बच कैसे गए : जन-गण-मन अधिनायक जय हे जय हे, जय हे, जय जय ...

दुविधा

विभूति नारायण राय को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है, उसमें उनके नया ज्ञानोदय वाले वक्तव्य के खिलाफ विरोध दर्ज करने वालों की सूची में मेरा भी नाम है। पिछले साल वर्धा में हिंदी समय समारोह में उनसे पहली बार मिला था। पहले फ़ोन पर इसी सिलसिले में बात हुई थी। साढ़े दस घंटे की ड्राइव कर वर्धा पहुँच कर ढंग की ठहरने की जगह नहीं मिली तो पहले अच्छा नहीं लगा था पर दूसरे दिन उनसे मिल कर तसल्ली हुई थी कि अच्छे व्यक्ति हैं। उनका उपन्यास कर्फ्यू पढ़ा नहीं है पर उसके बारे में पर्याप्त जानकारी थी। दो दिनों के बाद बीमार पड़ गया तो सारे दिन उनके कुलपति वाले घर के एक कमरे में पड़ा रहा। उनके भाई विकास जिनको मैं कई सालों से जानता हूँ ने मुझे दवा दी। बाद में एक बार वे हैदराबाद आए तो कुछ घंटे साथ बिताने का मौका मिला। हमारे संस्थान की ओर से विभूति नारायण राय को विशिष्ठ व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया है। यह आमंत्रण पहले अप्रैल में भेजा गया था। उस वक़्त नहीं आ पाए तो सितम्बर में आने के लिए मैंने निर्देशक की ओर से आग्रह करते हुए उन्हें ख़त लिखा था। स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति में जब मुझसे कहा गया कि मैं भी वि...