उन
के साथ हुसैनीवाला सरहद पर
मैं
उन के साथ हुसैनीवाला सरहद
के नाके पर खड़ा था
पास
उन तीनों की समाधियाँ हैं,
जिनको
साथ फाँसी पर चढ़ाया गया था
जहाँ
वाघा सीमा से थोड़ा कम नाटकीय
अंदाज़ में हिंद-पाक
के झंडे उतारे जाते हैं। पूरब
की ओर एक उदास शहर जिसे दशकों
पहले कह दिया गया था कि वह सपने
देखना बंद कर दे।
थोड़ी
देर पहले घी में चुपड़ी रोटियाँ
और तड़का लगाई दाल खाई थी।
थालियाँ पास के नल में से बहते
पानी से धो लीं और हम पास के
दरख्तों की ओर देख रहे थे। नल
बंद न कर पाने की तकलीफ हमारी
नज़र को बीच-बीच
में उस ओर कर देती थी।
वे
बोले -
पानी।
मैं
चाहता था कि वह फिर बोलें पानी।
चुप्पी में बह चुके वक्त का
एहसास था। पानी साथ बहा ले गया
है वक्त,
उदासी
के पहले के दिन,
सपने।
पानी
में बहता हिंदुस्तान। बहती
ज़ुबानें। गीत-संगीत।
हमारी नज़रें आपस में टकरा
जातीं। वे हल्की-सी
मुस्कान लिए मेरी ओर देखते।
पूछा
-
देश
क्या है?
वह
चुप। अमेरिका में ट्रंप खुद
को देश कहता है,
हिंदुस्तान
में मोदी,
रुस
में पुतिन।
उन्होंने
झुक कर पैरों के नीचे से थोड़ी
सी धूल उठाई और हवा में उड़ा
दी। उड़ती धूल पल भर में बिखर
गई। हमने एक दूसरे की ओर देखा।
मुस्कराए।
'धरती
सबको अपने अंदर समा लेती है।
कोई जलकर राख बनता है तो कोई
पिघलकर। हमने यह बात बहुत पहले
जान ली थी,
धरती
से हमें इश्क हो गया था। हमने
उसे माँ कहा,
माशूका
कहा,
बेटी
कहा और हम मोहब्बत पर कुर्बान
हो गए।'
मैं
रो रहा था। अंदर कोई चीख रहा
था -
भगत
सिंह,
भगत
सिंह,
भगत
सिंह।
'धरती
इनसे बदला लेगी। नदियों को
देखो,
सारा
मैल बहाकर ले जाती हैं। देखो
हवा कैसे ज़हर बहा ले जाती है।
इन नदियों की,
इस
हवा की सौगंध है,
मैं
फिर-फिर
जनम लूँगा। भूलना मत कि हम
बावफा-आशिक
हैं,
हमें
ज़िंदगी से प्यार है। हम-तुम
प्यार की सौगंध लिए हुए हैं।"
किसानों-मज़दूरों
के जुलूस आ रहे हैं। मज़लूमों
का समवेत गान सरहद के दोनों
ओर गूँज रहा है। मेरी मुट्ठी
अंतरिक्ष में दूर तक उठती है।
इंकलाब-ज़िंदाबाद।
(समकालीन जनमत - 2019)
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