Skip to main content

गीत गाते रहेंगे। हम पूछते रहेंगे



हम परचम बुलंद रखेंगे


ग़लत या सही, शोर है कि मुल्क तरक्की पर है। कैसी तरक्की? तक्नोलोजी की तरक्की। स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन वाली तरक्की। बड़ा अजीब वक्त है। हाल के एक ब्लॉग पोस्ट में बनारस के किसी संकठा जी का कथन है - ''इसको कुछ करने का जरूरते नहीं पड़ेगा। पब्लिक खुदै इसके विरोधियों का सफाया कर देगी। समझ रहे हैं न..'' हम समझ रहे हैं। आप चुनावी भाषण देते रहें। संसद में भी, मैदानों में भी, बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक सबको बेवकूफ बनाते रहें।

कोई कहता है कि कुछ लिखें। कलबुर्गी। बांग्लादेश में ब्लॉगर्स के कत्ल। दाभोलकर आदि भी।

'आदि'। ऐसा वक्त है। लोग मर रहे हैं। उनकी हत्याएँ हो रही हैं। हम इतने नाम याद नहीं रख सकते। वे दाभोलकर आदि हैं। वे पढ़े-लिखे हुनरमंद काबिल लोग थे। अपने लेखन, व्याख्यानों आदि से समकालीन भारतीय बौद्धिक चिंतन में उन्होंने स्थायी जगह बनाई थी। कलबुर्गी ने तो सौ से ज्यादा किताबें लिखी थीं। उन्हें कई राज्य-स्तरीय और राष्ट्रीय पुरस्कार मिले थे। उन्होंने कभी किसी को थप्पड़ मारा हो या गाली तक दी हो, ऐसा कोई सबूत मौजूद नहीं है। वे किसी राजनैतिक दल के साथ भी नहीं जुड़े थे। उनकी ज़ुर्रत कि समाज को तर्कशीलता की नसीहत दे बैठे थे। उन्हें लगता था कि हमारे लोग ढोंगियों से बचें और खुद सोचने के काबिल बन जाएँ तो उनकी ज़िंदगी बेहतर होगी। विरोधी राजनैतिक दल में होने से यह ज्यादा खतरनाक बात है। लोग सच समझने-जानने लगें तो पोंगापंथियों, फिरकापरस्तों की हैसियत क्या रहेगी? इसलिए उनका कत्ल होना था और हुआ। लोगों को अब आदत पड़ गई है कि हत्याएँ होती हैं। खुलेआम धमकियाँ दी जाती हैं, देश के प्रतिष्ठित साहित्यिकों को कहा जाता है कि वे क्या लिख सकते हैं और क्या नहीं। सचमुच इस मुल्क पर अँधेरा छा चुका है। शक होता है कि समय का पहिया किस ओर घूम रहा है।

किस बात को सच मानें? यह कि लोगों को उम्मीद थी कि सत्ता में आने के बाद हिंसक लोग सुधर जाएँगे और अच्छे शासन पर ध्यान देंगे। या कि जैसा हमने संसद के चुनावों के पहले कहा था कि ये लोग बीमार हैं, और समाज में नफ़रत फैलाना इनका धर्म है, ये अपने विरोधियों को चुन-चुन कर मारेंगे, वही हो रहा है। बांग्लादेश और पाकिस्तान में सरकारें कट्टरपंथियों से डरती हैं। वहाँ सरकार की चलती नहीं है। भारत में हमलोग क्या करें जब यहाँ सरकार ही कट्टरपंथी परिवार की है। फिरकापरस्तों की एक बड़ी फौज उनके साथ है जिनका तर्क यह होता है कि और मुल्कों में कट्टरपंथियों को देखो कि वे कितने बुरे हैं। यानी कि वे कहना चाहते हैं कि हम उनसे भी बुरे होकर दिखलाएँगे।
ऐसे में इस मुल्क का भविष्य क्या होगा, कहना मुश्किल है। धीरे-धीरे हम पाकिस्तान बनते जा रहे हैं। एक दिन उनसे भी बदतर हो जाएँगे। वैसे भी जिस पर मार पड़ी, उसके लिए क्या हिंद और क्या पाक? आत्महत्या करता किसान और मुजफ्फरनगर का मुसलमान किस मुल्क में है? यह पोंगापंथी राष्ट्रतोड़ू परिवार और इसके कारकुन इसी तरह सक्रिय रहे तो ज्यादा दिन तक मुल्क एक नहीं रह सकता। भारी जंग छिड़ेगी। हर मुहल्ले में जंग छिड़ेगी। दबंगों के पास असला होगा, उन के खिलाफ इंसान के जज़्बात होंगे। यह डर भी होता है कि वह हिंद-पाक जैसी जंग नहीं, उससे भी भयानक होगी।

तकलीफ यह है कि इतिहास के ऐसे दौर में जानबूझकर हम विनाश की ओर बढ़ते रहते हैं। जो लोग ऊपर से भले दिखते हैं और भोला बनने की कोशिश कर कहते हैं कि उन्हें अंदाजा नहीं था कि हालात ऐसे हो जाएँगे, हम समझने की कोशिश करते हैं कि वे आखिर कैसे लोग हैं। ये लोग आज भी चुनाव हों तो इन्हीं कट्टरपंथियों को सत्ता में लाएँगे।
हमारे अंदर से एक आवाज़ कहती है कि अब और कुछ मत कहें। अभी अपने लफ्ज़ बचाकर रखें, कुछ तब काम आएँगे, जब हम भी दाभोलकर आदि में होंगे, हमारी हत्या होगी। और यह सोचते रहें कि क्या यही तरक्की होती है? स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन और भले लोगों की हत्याएँ!

हमारी फितरत कि हम ऐसी नसीहत नहीं मानते और गाते ही रहते हैं कि 'हो सके तो फिर कोई शमा जलाइए, इस दौर--सियासत का अँधेरा मिटाइए'। हम सड़कों पर, स्कूलों-कॉलेजों में तर्कशीलता का परचम बुलंद रखेंगे। वे हत्याएँ करते रहेंगे और हम इंसानियत के गीत गाते रहेंगे। हम पूछते रहेंगे कि आज़ादी के सत्तर साल बाद कितने लोग स्कूल की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं। सरकारी स्कूलों को क्यों तबाह किया जा रहा है। कितने गाँवों में पहले स्तर की चिकित्सा उपलब्ध है। विकास के नाम पर जिनको अपने घरों से उजाड़ा जा रहा है, वे किधर कहाँ हैं। हम पूछते रहेंगे जब तक हममें से एक भी इंसान ज़िंदा होगा। इस तरह वे कभी नहीं मरेंगे, जिनका कत्ल किया गया है। समय का पहिया अपनी कुदरती चाल चलेगा, अंधकार का यह दौर गुजरेगा। एक दिन रोशनी खिलेगी, इंसानियत जीतेगी और कलबुर्गी 'आदि' याद किए जाएँगे कि वे हमेशा ज़िंदा हैं।

Comments

Popular posts from this blog

फताड़ू के नबारुण

('अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित) 'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण! 1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हू...

मृत्यु-नाद

('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख) ' मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती ' - मिर्ज़ा ग़ालिब ' काल , तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। /  इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ ' - शमशेर बहादुर सिंह ; हिन्दी कवि ' मैं जा सकता हूं / जिस किसी सिम्त जा सकता हूं / लेकिन क्यों जाऊं ?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय , बांग्ला कवि ' लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर  हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए  तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी हमारी हर सोच जीवन - केंद्रिक है , पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों - कलाकारों ने जितना सृजन किया है , उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति - सापेक्ष होती हैं , यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है , देर - सबेर हम सब को मौत का सामना करना है , और मरने पर हम निष्क्रिय...

 स्त्री-दर्पण

 स्त्री-दर्पण ने फेसबुक में पुरुष कवियों की स्त्री विषयक कविताएं इकट्टी करने की मुहिम चलाई है। इसी सिलसिले में मेरी कविताएँ भी आई हैं। नीचे उनका पोस्ट डाल रहा हूँ।  “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” ----------------- मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपन...