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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Friday, September 18, 2015

मैं ढालूँगा ईश्वर को अपने ही साँचे में


मेरा ईश्वर




मैं जब नंगा होता हूँ

उस वक्त मैं सबसे खूबसूरत होता हूँ



मेरी माँ की छातियाँ बहुत खूबसूरत हैं

मुझे हल्का-सा याद है

बाप को सबसे खूबसूरत देखा था मैंने

जब देखा उसे वस्त्रहीन



सड़क पर घूमते जानवरों पक्षियों को नंगा ही देखा है

कोट पहने कुत्ते मुझे कोटधारी अफसरों जैसे लगते हैं

आषाढ़ में उन्मत्त जानवर क्या कर लेते

जब दहाड़ते बादल और उन पर लदे होते कपड़े



ऐ चित्रकारो मुझे मत दो वह ईश्वर

जो होता शर्मसार कपड़े उतर जाने से



मैं ढालूँगा ईश्वर को अपने ही साँचे में

जो फुदक सके चिड़ियों की तरह

मेरी तरह प्यार कर सके

रो सके प्रेम के उल्लास में

खड़ा हो सके मेरे साथ

उलंग हुसेन के चित्रों में।



(जलसा पत्रिका : 2010; 'नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध' में संकलित)

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