Monday, May 31, 2010

हालाँकि उसकी शक्ल आदमी जैसी थी

आज अरसे बाद तापमान जरा सा कम है। लग रहा है कि थोड़ी देर बाद बढ़ेगा। पीछे हादसे इतने हुए कि जितनी गर्मी थी उससे ज्यादा ही लगी। यह हिंदुस्तान कि नियति है। कहते हैं कम्युनिस्ट मुल्कों में हादसों की खबर छिपा दी जाती थी। एक यह मुल्क है जहाँ हादसों की खबरों से किसी को कोई खास बेचैनी नहीं होती। होती है ज़रूर होती है उनको जो इन हादसों का शिकार होते हैं। बाकी सब राजनीति और आपसी नोकझोंक में ज्यादा जुटे होते हैं।

दुर्घटना

सूर्यास्त के सूरज
और रुक गए भागते पेड़ों के पास
वह था और नहीं था

हालाँकि उसकी शक्ल आदमी जैसी थी

गाड़ीवालों ने कहा
साला साइकिल कहाँ से आ गया

कुछ लोग साइकिल के जख्मों पर पट्टियाँ लगा रहे थे
वह नहीं था


सूर्यास्त के सूरज और रुक गए भागते पेड़ों के पास
वह था और नहीं था

जो रहता है वह नहीं होता है

(पश्यन्ती - २०००; 'लोग ही चुनेंगे रंग' संग्रह में शामिल )

Thursday, May 20, 2010

सिद्धार्थ वरदराजन का बहुत ज़रूरी लेख

आज हिन्दू में सिद्धार्थ वरदराजन का बहुत ज़रूरी लेख छपा है। कल एक साथी पूछ रहा था कि क्या माइनिंग बंद हो जाये तो हिंसा रुक जाएगी? में उसे कहना चाहता था कि तुम गलत सवाल पूछ रहे हो। पर माओवादियों ने ऐसा माहौल तैयार कर लिया है कि लोग यह कम पूछ रहे हैं कि जनता का हक़ क्या है और सरकार जनता के खिलाफ जंग कब बंद करेगी - यानी कि हिंसा मुख्य बात हो गयी है। सिद्धार्थ का लेख इस बात पर ध्यान दिलाता है कि हम किसी भी पक्ष की हिंसा को वाजिब नहीं ठहरा सकते।

Tuesday, May 18, 2010

गर्मी से तो निजात पा लेंगे

इन गर्म दिनों को बिताना भी एक कला है। यहाँ से भाग तो सकते नहीं। काम ही इतना है। टी वी अरसे से बंद कर रखा है। इससे दिमाग शांत रहता है। सुबह अख़बार देखते हैं और सरसरी निगाह से सब पढ़कर क्रासवर्ड करने लग जाते हैं। अंग्रेजी में हिन्दू के अलावा और अख़बारों को अख़बार नहीं मानता - संयोग से हिन्दू का क्रासवर्ड भी बढ़िया होता है। दस पंद्रह मिनट से आधा घंटा तक इस तरह गुजार देते हैं। शाम को एक भले मानस दीपक गोपीनाथ के सौजन्य से हल देख लेते हैं। बीच में जब तक बिजली रहती है, दफ्तरी कामों में ए सी में छिपे रहते हैं। खाना खाने के लिए या अन्य कामों के लिए निकलना पड़ता है। सुविधा बहुत ज्यादा भी न हो इसका ध्यान रखने के लिए बिजली बोर्ड दिन में तीन चार बार तो खबर ले ही लेता है यानी बिजली अक्सर ग़ुम रहती है।

बहरहाल इस गर्मी से तो एक दिन निजात पा ही लेंगे। पर मुल्क में छिड़ी जंगें कब ठंडी पड़ेंगीं! ऐसी स्थिति में अक्सर मुझे लगता है कि काश मेरा भी कोई खुदा होता जिसके दर जाकर दो घड़ी रो लेता। कभी कभी हताशा होती है, ग़ालिब की तरह रोने का मन करता है - कोई उम्मीद बर नहीं आती। पर रोने से काम नहीं चलने का। जंग के खिलाफ उठे हाथों में हाथ जोड़ना होगा।

Monday, May 17, 2010

ये आम दिन हैं

ये आम दिन हैं। नहीं यह बात हिंदी में ठीक नहीं कही जा सकती। These are mango days. हालाँकि अभी बाज़ार में यहाँ का प्रसिद्ध बंगानापल्ली आम आया नहीं है। औसतन दिन में एक छोटा आम खा ही लेता हूँ। और बढ़िया यह कि मीठे ही निकल रहे हैं, हालाँकि कई अभी भी गैस के पकाए दिखते हैं। विकी में आम पर अच्छी जानकारी है। पर आम पर अच्छी कविता नेट पर नहीं मिली। धर्मवीर भारती की कनुप्रिया - आम्र-बौर का गीत कविताकोश में है, पर वह आम पर नहीं कनुप्रिया पर है।

मैंने जो कवितायेँ बचपन में पढ़ी हैं, वे पेट में हैं, पर दिमाग में नहीं आ रहीं। एक बच्चे की लिखी एक कविता यहाँ मिली। वैसे यह भी है कि यार आम पर भी कविताई कर के क्या कर लोगे।

इस बार के यानी मई के समकालीन जनमत में छत्तीसगढ़ पर मेरी एक कविता आयी है, इसी अंक में हिमांशु कुमार और सत्य प्रकाश के आलेख भी हैं। पता चला है कि आउटलुक में प्रकाशित आलेख की वजह से अरुंधती राय पर मुकदमा चलाने की बातें हो रही हैं। बस क्या कहें, ये आम दिन हैं।

Sunday, May 16, 2010

किसी दिन तू आएगी

अरसे बाद आज घर के पिछवाड़े जंगल में खासा बड़ा नेवला देखा. यह वही होगा जो ढाई साल पहले छोटा सा दिखा था. कुछ दिनों पहले तकरीबन दो मीटर लम्बा एक सांप दिखा था. मोर तो हर रोज केंवों केंवों करते दीखते हैं. कैम्पस में चला जाऊँगा तो यह जंगल छूट जायेगा.

इन दिनों एक अजीब समस्या में पड़ा हूँ. एक जनाब अपनी पढ़ाई लिखाई छोड़ कर जूनियर छात्राओं का भला करने का नाम लेकर जब तब उनमें से एक की पिटाई करता रहता है. पिटने वाली लड़की इस कदर मानसिक गुलामी में है कि वह शिकायत तो दूर की बात, अक्सर कहती है कि वह बड़ा परेशान है और सब ठीक है वगैरह. मुसीबत यह कि मैं उस कमेटी का चेयर हूँ, जिसे यह मामला समझना है और निपटाना है. कायदे से तो बन्दे को बहुत पहले ही जेल नहीं तो घर वापस भेजना चाहिए था. कोफ्त यह कि एक दो जने ऐसे भी विचरते हैं जिन्हें लगता है कि अभी भी उसे घर जाने को कहना गलत निर्णय है. सच सेल्यूकस, बड़ा विचित्र है यह देश.

बहुत पुरानी एक कविता - शायद आज इतनी अच्छी नहीं लगती, पर जब पचीस साल की उम्र में लिखी थी, तब ठीक लगती थी. कहीं प्रकाशित भी हुई है - अब याद नहीं है. शायद मेरे पहले संग्रह में भी शामिल है.



किसी दिन तू आएगी



तू जो मेरे जन्म से

मौत तक

मुझसे जुड़ी है

तेरे कठिन कोमल हाथों में खिलता

तेरे आँसुओं को पहचानता

तेरी चाह में भटकता

तेरी मांसलता में

खुद को छिपाता

तेरे दिए बच्चों से खेलता

तुझे रौंदता रहा हूँ


तुझे तो पता है

कितना डरा हुआ हूँ मैं

कितना घबराता हूँ तुझसे

फिर भी

तेरा गला दबोचता हूँ

जानता हूँ

हर शोषित की तरह

तुझे भी पता है

कि यह सब बदलेगा

किसी दिन

तू बाजारों में पत्रिकाओं के

मुख-पृष्ठों पर

रसोइयों में मिट्टी के तेल की

आग से

मरेगी नहीं

जानता हूँ किसी दिन तू आएगी

मुझे ले चलने


उस दिन हमारे शरीर पर

शोषण और भूख के

कपड़े नहीं होंगे


उस दिन हम केवल समानता पहनेंगे

देखेंगे

चारों ओर सब कुछ

जो अब कितना गंदा है

बदल गया होगा

एक

पार्थिव सौंदर्य में।

Friday, May 14, 2010

बाहर अंदर

एक तो गर्मी, ऊपर से काम हैं कि फालतू के बढ़ते ही जाते हैं. मेरा घर ऊपरी मंज़िल पर है. यह सोच कर कि हैदराबाद में गर्मी थोड़े ही दिनों की होती है, न कूलर लिया न ए सी - रात भर नींद नहीं आती. कैम्पस के मकान लम्बे समय से अगले महीने में बनने वाले हैं. हमारी किस्मत यह कि अगला महीना ख़त्म ही नहीं होता. अब तीस जून को डी डे है - देखिये कि आगे होता क्या है.

बहरहाल एक पुरानी कविता:
बाहर अंदर

बाहर लू चलने को है
जो कमरे में बंद हैं किस्मत उनकी

कैद में ही सुकून

खूबसूरत सपनों में लू नहीं चलती
यह बात और कि कमरे में बंद
आदमी के सपने खूबसूरत नहीं होते

कोई है कि वक्त की कैद में है
बाहर लू चलने को है

(अलाव 2009; 'लोग ही चुनेंगे रंग' संग्रह में शामिल )

Monday, May 03, 2010

एक बहुत पुरानी कविता


यह कविता किसी पत्रिका में प्रकाशित नहीं हुई थी। मेरे पहले संग्रह में शामिल है।

बसंत


इँटों भरी तगाड़ी
सीढ़ियों पर खड़े
दो हाथों को दे
भगउती उइके ने माथे से
पसीने की एक बूँद
पोंछी। बसंत आ चुका है।
अकेले सूखते
गुलाब के पौधे पर
पसीने के छींटे गिरते ही

आम के बौर की महक
जाने किस हवा में तैर आयी
भगउती की छातियाँ फड़कीं
तीसरी बेटी
अभी भी दूर रखी फूटी तगाड़ी में
हाथ पैर उछाल चीख रही है

गर्मी आ गयी अब
बाबू ने एक बार कहा
झुककर अगले चक्कर की पहली लाल ईट
भगउती ने उठाई और दूर से ही
बच्ची को गाली दी।

सूखा थूक
गुलाब के पत्तों पर
बिखर गया बरसात बन।  (1988)