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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Monday, May 03, 2010

एक बहुत पुरानी कविता


यह कविता किसी पत्रिका में प्रकाशित नहीं हुई थी। मेरे पहले संग्रह में शामिल है।

बसंत


इँटों भरी तगाड़ी
सीढ़ियों पर खड़े
दो हाथों को दे
भगउती उइके ने माथे से
पसीने की एक बूँद
पोंछी। बसंत आ चुका है।
अकेले सूखते
गुलाब के पौधे पर
पसीने के छींटे गिरते ही

आम के बौर की महक
जाने किस हवा में तैर आयी
भगउती की छातियाँ फड़कीं
तीसरी बेटी
अभी भी दूर रखी फूटी तगाड़ी में
हाथ पैर उछाल चीख रही है

गर्मी आ गयी अब
बाबू ने एक बार कहा
झुककर अगले चक्कर की पहली लाल ईट
भगउती ने उठाई और दूर से ही
बच्ची को गाली दी।

सूखा थूक
गुलाब के पत्तों पर
बिखर गया बरसात बन।  (1988)

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