अरसे बाद आज घर के पिछवाड़े जंगल में खासा बड़ा नेवला देखा. यह वही होगा जो ढाई साल पहले छोटा सा दिखा था. कुछ दिनों पहले तकरीबन दो मीटर लम्बा एक सांप दिखा था. मोर तो हर रोज केंवों केंवों करते दीखते हैं. कैम्पस में चला जाऊँगा तो यह जंगल छूट जायेगा.
इन दिनों एक अजीब समस्या में पड़ा हूँ. एक जनाब अपनी पढ़ाई लिखाई छोड़ कर जूनियर छात्राओं का भला करने का नाम लेकर जब तब उनमें से एक की पिटाई करता रहता है. पिटने वाली लड़की इस कदर मानसिक गुलामी में है कि वह शिकायत तो दूर की बात, अक्सर कहती है कि वह बड़ा परेशान है और सब ठीक है वगैरह. मुसीबत यह कि मैं उस कमेटी का चेयर हूँ, जिसे यह मामला समझना है और निपटाना है. कायदे से तो बन्दे को बहुत पहले ही जेल नहीं तो घर वापस भेजना चाहिए था. कोफ्त यह कि एक दो जने ऐसे भी विचरते हैं जिन्हें लगता है कि अभी भी उसे घर जाने को कहना गलत निर्णय है. सच सेल्यूकस, बड़ा विचित्र है यह देश.
बहुत पुरानी एक कविता - शायद आज इतनी अच्छी नहीं लगती, पर जब पचीस साल की उम्र में लिखी थी, तब ठीक लगती थी. कहीं प्रकाशित भी हुई है - अब याद नहीं है. शायद मेरे पहले संग्रह में भी शामिल है.
किसी दिन तू आएगी
तू जो मेरे जन्म से
मौत तक
मुझसे जुड़ी है
तेरे कठिन कोमल हाथों में खिलता
तेरे आँसुओं को पहचानता
तेरी चाह में भटकता
तेरी मांसलता में
खुद को छिपाता
तेरे दिए बच्चों से खेलता
तुझे रौंदता रहा हूँ
तुझे तो पता है
कितना डरा हुआ हूँ मैं
कितना घबराता हूँ तुझसे
फिर भी
तेरा गला दबोचता हूँ
जानता हूँ
हर शोषित की तरह
तुझे भी पता है
कि यह सब बदलेगा
किसी दिन
तू बाजारों में पत्रिकाओं के
मुख-पृष्ठों पर
रसोइयों में मिट्टी के तेल की
आग से
मरेगी नहीं
जानता हूँ किसी दिन तू आएगी
मुझे ले चलने
उस दिन हमारे शरीर पर
शोषण और भूख के
कपड़े नहीं होंगे
उस दिन हम केवल समानता पहनेंगे
देखेंगे
चारों ओर सब कुछ
जो अब कितना गंदा है
बदल गया होगा
एक
पार्थिव सौंदर्य में।
इन दिनों एक अजीब समस्या में पड़ा हूँ. एक जनाब अपनी पढ़ाई लिखाई छोड़ कर जूनियर छात्राओं का भला करने का नाम लेकर जब तब उनमें से एक की पिटाई करता रहता है. पिटने वाली लड़की इस कदर मानसिक गुलामी में है कि वह शिकायत तो दूर की बात, अक्सर कहती है कि वह बड़ा परेशान है और सब ठीक है वगैरह. मुसीबत यह कि मैं उस कमेटी का चेयर हूँ, जिसे यह मामला समझना है और निपटाना है. कायदे से तो बन्दे को बहुत पहले ही जेल नहीं तो घर वापस भेजना चाहिए था. कोफ्त यह कि एक दो जने ऐसे भी विचरते हैं जिन्हें लगता है कि अभी भी उसे घर जाने को कहना गलत निर्णय है. सच सेल्यूकस, बड़ा विचित्र है यह देश.
बहुत पुरानी एक कविता - शायद आज इतनी अच्छी नहीं लगती, पर जब पचीस साल की उम्र में लिखी थी, तब ठीक लगती थी. कहीं प्रकाशित भी हुई है - अब याद नहीं है. शायद मेरे पहले संग्रह में भी शामिल है.
किसी दिन तू आएगी
तू जो मेरे जन्म से
मौत तक
मुझसे जुड़ी है
तेरे कठिन कोमल हाथों में खिलता
तेरे आँसुओं को पहचानता
तेरी चाह में भटकता
तेरी मांसलता में
खुद को छिपाता
तेरे दिए बच्चों से खेलता
तुझे रौंदता रहा हूँ
तुझे तो पता है
कितना डरा हुआ हूँ मैं
कितना घबराता हूँ तुझसे
फिर भी
तेरा गला दबोचता हूँ
जानता हूँ
हर शोषित की तरह
तुझे भी पता है
कि यह सब बदलेगा
किसी दिन
तू बाजारों में पत्रिकाओं के
मुख-पृष्ठों पर
रसोइयों में मिट्टी के तेल की
आग से
मरेगी नहीं
जानता हूँ किसी दिन तू आएगी
मुझे ले चलने
उस दिन हमारे शरीर पर
शोषण और भूख के
कपड़े नहीं होंगे
उस दिन हम केवल समानता पहनेंगे
देखेंगे
चारों ओर सब कुछ
जो अब कितना गंदा है
बदल गया होगा
एक
पार्थिव सौंदर्य में।
Comments