आज हिन्दू में सिद्धार्थ वरदराजन का बहुत ज़रूरी लेख छपा है। कल एक साथी पूछ रहा था कि क्या माइनिंग बंद हो जाये तो हिंसा रुक जाएगी? में उसे कहना चाहता था कि तुम गलत सवाल पूछ रहे हो। पर माओवादियों ने ऐसा माहौल तैयार कर लिया है कि लोग यह कम पूछ रहे हैं कि जनता का हक़ क्या है और सरकार जनता के खिलाफ जंग कब बंद करेगी - यानी कि हिंसा मुख्य बात हो गयी है। सिद्धार्थ का लेख इस बात पर ध्यान दिलाता है कि हम किसी भी पक्ष की हिंसा को वाजिब नहीं ठहरा सकते।
('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख) ' मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती ' - मिर्ज़ा ग़ालिब ' काल , तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। / इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ ' - शमशेर बहादुर सिंह ; हिन्दी कवि ' मैं जा सकता हूं / जिस किसी सिम्त जा सकता हूं / लेकिन क्यों जाऊं ?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय , बांग्ला कवि ' लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी हमारी हर सोच जीवन - केंद्रिक है , पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों - कलाकारों ने जितना सृजन किया है , उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति - सापेक्ष होती हैं , यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है , देर - सबेर हम सब को मौत का सामना करना है , और मरने पर हम निष्क्रिय...
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