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Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Monday, May 31, 2010

हालाँकि उसकी शक्ल आदमी जैसी थी

आज अरसे बाद तापमान जरा सा कम है। लग रहा है कि थोड़ी देर बाद बढ़ेगा। पीछे हादसे इतने हुए कि जितनी गर्मी थी उससे ज्यादा ही लगी। यह हिंदुस्तान कि नियति है। कहते हैं कम्युनिस्ट मुल्कों में हादसों की खबर छिपा दी जाती थी। एक यह मुल्क है जहाँ हादसों की खबरों से किसी को कोई खास बेचैनी नहीं होती। होती है ज़रूर होती है उनको जो इन हादसों का शिकार होते हैं। बाकी सब राजनीति और आपसी नोकझोंक में ज्यादा जुटे होते हैं।

दुर्घटना

सूर्यास्त के सूरज
और रुक गए भागते पेड़ों के पास
वह था और नहीं था

हालाँकि उसकी शक्ल आदमी जैसी थी

गाड़ीवालों ने कहा
साला साइकिल कहाँ से आ गया

कुछ लोग साइकिल के जख्मों पर पट्टियाँ लगा रहे थे
वह नहीं था


सूर्यास्त के सूरज और रुक गए भागते पेड़ों के पास
वह था और नहीं था

जो रहता है वह नहीं होता है

(पश्यन्ती - २०००; 'लोग ही चुनेंगे रंग' संग्रह में शामिल )

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6 Comments:

Blogger डॉ .अनुराग said...

सच कहा .....पर कुछ बदलेगा नहीं......लोग भी नहीं

11:28 AM, May 31, 2010  
Blogger माधव( Madhav) said...

सच कहा

12:58 PM, May 31, 2010  
Blogger Ek ziddi dhun said...

पिछली कई पोस्ट्स पढ़ीं। कवि की बेचैनी उसका पीछा नहीं छोड़ती और लोग `चैन` से सो रहे हैं। `दुखिया दास कबीर है...`

6:24 AM, June 09, 2010  
Blogger Darshan Lal Baweja said...

सच कहा जी

10:34 PM, June 15, 2010  
Blogger प्रदीप कांत said...

"हालाँकि उसकी शक्ल आदमी जैसी थी"

baDhiyaa kavita

12:09 AM, June 25, 2010  
Blogger anilpandey said...

sahi hai . sahnkaao kee bhi apnee ek wastwikta hai

7:26 PM, July 01, 2010  

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