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Showing posts from March, 2017

उनको उगना है जैसे जंगली पौधे

शब्द - खिलाड़ी पागल हैं शब्दों को बाँधने वाले शब्द तो पाखी हैं फर फर उड़ते हैं हम उन्हें हाथों से पकड़ते हैं धमनियों को पगडंडियाँ बना साथ टहल आते हैं अँधेरी कोठियों तक फिर कागज़ पर जड़ देते हैं कि उनसे रोशनी मिले पागल हैं बँधे शब्दों को देख गीत गुनगुनाने वाले शब्दों का क्या उनको उगना है जैसे जंगली पौधे हम देख हँसते हैं खिसियाते हैं या कभी दुबक जाते हैं गहरे कोनों में शब्दों को देते हैं नाम जैसे कि शब्द पहले शब्द नहीं थे पागल हैं शब्दों से खेलने वाले।  (रेवांत 2017) The Word-gamers Crazy who peg the words Words are  birds They fly flapping their wings We hold them with hands Move together with them on lanes made of veins to the dark rooms And engrave them on paper That they may show us light Crazy those who sing Watching words confined Words...

वे सचमुच हक़ीक़ी इश्क में हैं

अक्सर मेरे साथ ऐसा होता है। कविताएँ छपती हैं। जीमेल से कट-पेस्ट करते  हुए पी डी एफ फाइल से मिलान किए बिना कविताएँ एक दूसरे में गड्ड-मड्ड।  इस पोस्ट से हाल में 'रेवांत' में प्रकाशित कुछ पुरानी कविताएँ क्रमवार लगा रहा  हूँ - वे सुंदर लोग आज जुलूस में , कल घर से , हर कहीं से कौन पकड़ा जाता है , कौन छूट जाता है क्या फ़र्क पड़ता है मिट्टी से आया मिट्टी में जाएगा यह सब किस्मत की बात है इंसान गाय - बकरी खा सकता है तो इंसान इंसान को क्यों नहीं मार सकता है ? वे सचमुच हक़ीक़ी इश्क में हैं तय करते हैं कि आदमी मारा जाएगा शालीनता से काम निपटाते हैं कोई आदेश देता है , कोई इंतज़ाम करता है और कोई जल्लाद कहलाता है उन्हें कभी कोई शक नहीं होता यह खुदा का करम यह जिम्मेदारी उनकी फितरत है हम ग़म ग़लत करते हैं वे पीते होंगे तो बच्चों के सामने नहीं अक्सर शाकाहारी होते हैं बीवी से बातें करत...

ਦੁਰਯੋਧਨ ਅੱਜ ਮੈਂ ਹਾਂ

( चुपचाप अट्टहास -27 का अनुवाद – जतिंदर कौर द्वारा ) ਰਾਜ - ਗੱਦੀ ' ਤੇ ਦੁਰਯੋਧਨ ਮੈਂ ਜ਼ੁਬਾਨ ਹੰਭ ਗਈ ਏ ਅੱਗ ਦੀਆਂ ਲਾਟਾਂ ਬੈਂਗਣੀ ਪੰਖੜੀਆਂ ਬਣ ਮੇਰੇ ਸੁਫ਼ਨਿਆਂ ਵਿੱਚ ਆਉਂਦੀਆਂ ਨੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਤਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਮੈਂ ਭਸਮ ਕਰਨਾ ਲੋਚਿਆ , ਉਹ ਟਿਮਟਿਮਾਉਂਦਿਆਂ ਮੈਨੂੰ ਚਿੜ੍ਹਾਉਂਦੇ ਨੇ ਮਿਟਾਇਆਂ ਨਹੀਂ ਮਿਟ ਰਿਹਾ ਰਾਗ ਬਸੰਤ ਬਹਾਰ ਹਰ ਰੋਜ਼ ਪੁੰਗਰਦਾ ਏ ਇੱਕ ਨਵਾਂ ਪੌਦਾ ਸੁਣ ਵੇ ! ਤੂੰ ਜੋ ਏਨੀ ਕਾਹਲ ' ਚ ਏਂ ਭੁੱਲ ਨਾ ਜਾਵੀਂ ਕਿ ਇਹ ਦੌਰ ਮੇਰਾ ਏ ਤਵਾਰੀਖ਼ ਦਾ ਪਹੀਆ ਮੇਰੇ ਹੱਥੋਂ ਘੁੰਮ ਰਿਹਾ ਏ ਏਸ ਗੱਲੋਂ ਅਣਜਾਣ ਕਿ ਅਖੀਰ ਆਉਂਦਾ ਏ ਹਰ ਨ੍ਹੇਰੇ ਦਾ ਗੁਸਤਾਖ਼ੀ ਦੀਆਂ ਤਮਾਮ ਹੱਦਾਂ ਪਾਰ ਕਰ ਰਹੇ ਨੇ ਮੇਰੇ ਚੇਲੇ ਹੁੰਦਾ ਹੋਵੇਗਾ ਅਖੀਰ ਹਰ ਨ੍ਹੇਰ ਦਾ ਹਨੇਰੇ ਜੁਗ ਦੀ ਏਸ ਰਾਜ - ਗੱਦੀ ' ਤੇ ਬੈਠਾ ਦੁਰਯੋਧਨ ਅੱਜ ਮੈਂ ਹਾਂ।

चुपचाप अट्टहास - 27 :‌सिंहासन पर दुर्योधन मैं

जीभ थक गई है आग की लपटें बैंगनी पंखुड़ियाँ बन मेरे सपनों में आती हैं जिन सितारों को मैंने भस्म करना चाहा , वे टिमटिमाते मुझे चिढ़ाते हैं मिटाए नहीं मिट रहा राग बसंत बहार हर दिन चीखता है एक नया पौधा अरे ! तुम जो इतनी जल्दी में हो भूलो मत कि यह दौर मेरा है इतिहास का चक्का मेरे हाथों घूम रहा है इस बात से अंजान कि अंत होता है हर अंधकार का उद्दंडता की हदें पार कर रहे हैं मेरे अनुचर होता होगा अंत हर अंधकार का अंधे युग के इस सिंहासन पर बैठा दुर्योधन आज मैं हूँ। My tongue cannot take it any more Fire rises in my dreams as violet petals The stars that I desired to burn down They twinkle and tease me And the Spring melody continues Every day a new plant germinates And you who are in such hurry Forget not that these are my times I wheel the history My followers do not know that ...

ਕੋਈ ਰੂਹਾਨੀ ਫ਼ਲਸਫ਼ਾ ਨਹੀਂ ਬਚੇਗਾ - चुपचाप अट्टहास-26 का पंजाबी अनुवाद

प्यारी साथी जतिंदर ने पिछली पोस्ट वाली कविता का पंजाबी में अनुवाद किया है। ਕੋਈ ਰੂਹਾਨੀ ਫ਼ਲਸਫ਼ਾ ਨਹੀਂ ਬਚੇਗਾ ਮੈਂ ਭਵਿੱਖ ਮਾਨਤਾਵਾਂ , ਮੁੱਲਾਂ ਨੂੰ ਖਾਰਿਜ ਕਰਦਾ ਖ਼ਾਲਸ ਲਹੂ ਦੀ ਤ੍ਰੇਹ ਨੂੰ ਮੂਹਰੇ ਰੱਖਦਾ ਨਵਾਂ - ਨਵੇਰਾ ਭਵਿੱਖ। ਜਿਹੜੇ ਹਾਲੇ ਤੱਕ ਕਾਲੇ ਮੀਂਹ ਦੀ ਵਾਛੜ ' ਚ ਨਹੀਂ ਭਿੱਜੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਅਜੇ ਪਿਆਰ ਦਾ ਆਸਰਾ ਹੈ ਤਿਆਰ ਹੋ ਜਾਓ ਕਿ ਤੁਹਾਡੀ ਖੱਲ ਤੋਂ ਅੰਬਰ ਤੀਕ ਫੈਲਣਗੇ ਵਿਰਲਾਪ ਕਰਦੇ ਬੱਦਲ਼ ਗਹਿਰੇ ਹੁੰਦੇ ਜਾਂਦੇ ਅੰਨ੍ਹੇ ਖਾਲੀਪਣ ਵਿੱਚ ਮੇਰਾ ਸਾਥ ਰਵੇਗਾ ਹਰ ਪਲ ਤੁਹਾਡੇ ਨਾਲ ਹਰ ਪਲ ਤੁਫ਼ਾਨ ਦਾ ਖ਼ਦਸ਼ਾ ਹੋਵੇਗਾ ਹਰ ਪਲ ਰੁਕੀ ਹੋਵੇਗੀ ਹਵਾ ਅੱਖਾਂ ਵਿੱਚ ਜ਼ਹਿਰ ਘੁਲਦਾ ਚਲਿਆ ਜਾਵੇਗਾ ਮੇਰੀਆਂ ਵਿਉਂਤਾਂ ਫੈਲ ਜਾਣਗੀਆਂ ਪਿੰਡ , ਸ਼ਹਿਰ , ਹਰ ਪਾਸੇ ਕਿਤੇ ਕੋਈ ਪਿਆਰ ਨਹੀਂ ਬਚੇਗਾ ਕੀੜੀਆਂ ਵਾਂਗ ਰੇਂਗਣਗੀਆਂ ਇਨਸਾਨੀ - ਫ਼ੌਜਾਂ ਕੋਈ ਰੂਹਾਨੀ ਫ਼ਲਸਫ਼ਾ ਨਹੀਂ ਬਚੇਗਾ ਰੂਹ ਲਫ਼ਜ਼ ਬਾਕੀ ਨਹੀਂ ਰਹੇਗਾ ਮੈਂ ਭਵਿੱਖ ਮਾਨਤਾਵਾਂ , ਮੁੱਲਾਂ ਨੂੰ ਖਾਰਿਜ ਕਰਦਾ ਖ਼ਾਲਸ ਲਹੂ ਦੀ ਤ੍ਰੇਹ ਨੂੰ ਮੂਹਰੇ ਰੱਖਦਾ ਨਵਾਂ , ਨਵੇਰਾ , ਭਵਿੱਖ। ( चुपचाप अट्टहास -26 का अनुवाद ...

26. कोई रुहानी फलसफा नहीं बचेगा

मैं भविष्य मान्यताओं , गुणवत्ताओं को खारिज करता खालिस ख़ून की प्यास को सबसे पहले पेश रखता नव - नव्य भवितव्य। जो अभी तक काली बारिश के छींटों में भीगे नहीं हैं जिन्हें अब तक किसी के प्यार का सहारा है तैयार हो जाओ कि तुम्हारी चमड़ी से आस्मान तक फैलेंगे विलाप करते बादल गहराते अँधेरे खालीपन में मेरा साथ होगा हर पल तुम्हारे साथ हर पल तूफान का अंदेशा होगा हर पल थमी होगी हवा आँखों में ज़हर घुलता चलेगा मेरी योजनाएँ होंगी गाँव शहर हर ओर कहीं कोई प्यार नहीं बचेगा पिपीलिकाओं सी चलेंगी मानव - सेनाएँ कोई रुहानी फलसफा नहीं बचेगा रूह लफ्ज़ बाक़ी न होगा मैं भविष्य मान्यताओं , गुणवत्ताओं को खारिज करता खालिस ख़ून की प्यास को सबसे पहले पेश रखता नव - नव्य भवितव्य। I am the future I dismiss the norms, the values I am the new, the newer, future I ask for a drink of pure blood first. For those wh...

चुपचाप अट्टहास: 25 - मैं कुचलता हर कविता, हर फूल, हर प्यार को हूँ

अनगिनत बार खुद को संजोया बिखरने को क्या कुछ नहीं दुनिया में धरती का कोई कोना नहीं जहाँ छिपा रह सकता है कोई झुरमुटों के बीच तारों तक की पहुँच बस कविता में है नायकों का कद तारों जैसा विशाल आभा तारों जैसी प्रभामय सच यह कि आँखें खुली न हों तो महानायक भी ठोकर खा बैठते हैं अनगिनत बार समझे हैं ब्रह्मांड के कानून तड़प उबलती है अंदर की गलियों में सँभाले हैं रंग बदरंग कानून के रंग जाने हैं आज मैं कानून हूँ इतिहास हूँ भविष्य हूँ हवा , पानी , ज़मीं , आस्माँ   मैं कुचलता हर कविता , हर फूल , हर प्यार को हूँ मुझे कौन बाँधेगा आज ? मैं पहाड़ , सीने में लिए हूँ चट्टानों की जड़ें हूँ सूखी , बेजान चट्टानें बढ़ती जा रहीं , समेटतीं मिट्टी का हर कण। Forever-and-ever I took hold of myself There is enough in the world to lose oneself No part of Earth has bushes For you to hide Only poetry reaches the stars With heroes as big as the stars ...

24. सर डंबूद्वीप फर्स्ट

भीत से ईंट दर ईंट बढ़ती दीवार पलता बच्चा और बढ़ता वयस्क कद तक मैंने पाली बढ़ाई नफ़रत अपने अंदर अरसे से कह नहीं सकता कि कहाँ शुरुआत हुई थी माँ बाप तो मेरे आम ही थे कोई मुहल्ले का दादा याद नहीं आता जिसने बिगाड़ी हो दिमागी सेहत बस यही कि जितनी जोर से चीखता हूँ चौड़ा सीना दिखलाता उतना ही तीखा डर है बसा अंदर नींद से उठ बैठता हूँ रातों को जाने कैसे सपने देखकर कोई फूलों का गुलदस्ता बढ़ाता है मैं खुश होना चाहता हूँ पर फूल सड़ गए हैं उनकी बदबू से मेरे अनुचरों के सिवा हर कोई मुरझाने लगता है चीख उठता हूँ फर्स्ट फर्स्ट याद नहीं आता कि किसके लिए कह रहा हूँ प्रहरी कह जाते हैं जी सर डंबूद्वीप फर्स्ट फिर सो जाता हूँ होंठ बुदबुदाते ही रह जाते हैं सपने में घंटियाँ बजती हैं बजती ही रहती हैं। From its foundations rises a wall A child grows into an adult I nourished hatred in me for ages I cannot say when it started M...