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24. सर डंबूद्वीप फर्स्ट


भीत से ईंट दर ईंट बढ़ती दीवार


पलता बच्चा और बढ़ता वयस्क कद तक


मैंने पाली बढ़ाई नफ़रत अपने अंदर अरसे से


कह नहीं सकता कि कहाँ शुरुआत हुई थी


माँ बाप तो मेरे आम ही थे


कोई मुहल्ले का दादा याद नहीं आता


जिसने बिगाड़ी हो दिमागी सेहत


बस यही कि जितनी जोर से चीखता हूँ


चौड़ा सीना दिखलाता


उतना ही तीखा डर है बसा अंदर


नींद से उठ बैठता हूँ रातों को जाने कैसे सपने देखकर


कोई फूलों का गुलदस्ता बढ़ाता है


मैं खुश होना चाहता हूँ


पर फूल सड़ गए हैं


उनकी बदबू से मेरे अनुचरों के सिवा हर कोई मुरझाने लगता है


चीख उठता हूँ फर्स्ट फर्स्ट


याद नहीं आता कि किसके लिए कह रहा हूँ


प्रहरी कह जाते हैं जी सर डंबूद्वीप फर्स्ट


फिर सो जाता हूँ


होंठ बुदबुदाते ही रह जाते हैं


सपने में घंटियाँ बजती हैं


बजती ही रहती हैं।




From its foundations rises a wall


A child grows into an adult


I nourished hatred in me for ages


I cannot say when it started


My parents were ordinary folks


I do not remember if any neighbourhood lumpen


Damaged my mental health


All I know is that as loud I scream


Showing my broad chest


Equally intense is the fear in me


Bizarre nightmares wake me up in the middle of the 
night


Someone offers me a bouquet of flowers


I wish to be happy


But the flowers are rotting


The stink disgusts all but my followers


I scream ‘first first’


I cannot remember who is it for that I scream


The guards come and tell me that I mean it for the 
dumbo-land


And then I go back to sleep


With my lips muttering


Bells ringing in my dreams


They ring and ring. 

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