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चुपचाप अट्टहास - 27 :‌सिंहासन पर दुर्योधन मैं


जीभ थक गई है

आग की लपटें बैंगनी पंखुड़ियाँ बन मेरे सपनों में आती हैं

जिन सितारों को मैंने भस्म करना चाहा,

वे टिमटिमाते मुझे चिढ़ाते हैं

मिटाए नहीं मिट रहा राग बसंत बहार

हर दिन चीखता है एक नया पौधा



अरे! तुम जो इतनी जल्दी में हो

भूलो मत कि यह दौर मेरा है

इतिहास का चक्का मेरे हाथों घूम रहा है



इस बात से अंजान कि

अंत होता है हर अंधकार का

उद्दंडता की हदें पार कर रहे हैं मेरे अनुचर



होता होगा अंत हर अंधकार का

अंधे युग के इस सिंहासन पर बैठा

दुर्योधन आज मैं हूँ।



My tongue cannot take it any more

Fire rises in my dreams as violet petals

The stars that I desired to burn down

They twinkle and tease me

And the Spring melody continues

Every day a new plant germinates



And you who are in such hurry

Forget not that these are my times

I wheel the history



My followers do not know that

All shades of dark end some day

And they are crossing limits of lumpen lust



Who cares if all darkness ends

I am Duryodhana

I sit on the throne in these dark times.

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